महाभारत सभा पर्व के ‘द्यूत पर्व’ के अंतर्गत अध्याय 47 के अनुसार दुर्योधन का मय निर्मित सभा भवन को देखने का वर्णन इस प्रकार है[1]-
विषय सूची
दुर्योधन का युधिष्ठिर के महल में घुमना
वैशम्पायनजी कहते है- नरश्रेष्ठ जनमेजय! राजा दुर्योधन ने उस सभा भवन में निवास करते समय शकुनि के साथ धीरे-धीरे उस सारी सभा का निरीक्षण किया। कुरुनन्दन दुर्योधन उस सभा में उन दिव्य अभिप्रायों (दृश्यों) को देखने लगा, जिन्हें उसने हस्तिनापुर में पहले कभी नही देखा था। एक दिन की बात है, राजा दुर्योधन उस सभा भवन में घूमता हुआ स्फटिक मणिमय स्थल पर जा पहुँचा ओर वहाँ जल की आशंका से उसने अपना वस्त्र ऊपर उठा लिया। इस प्रकार बुद्धि मोह हो जाने से उसका मन उदास हो गया और वह उस स्थान से लौटकर सभा में दूसरी ओर चक्कर लगाने लगा।[1]
दुर्योधन का भ्रम के कारण उपहास का पात्र बनना
तदनन्तर वह स्थल में ही गिर पड़ा, इससे वह मन ही मन दुखी और लज्जित हो गया तथा वहाँ से हटकर लम्बी साँसें लेता हुआ सभा भवन में घूमने लगा। तत्पश्चात् स्फटिकमणि के समान स्वच्छ जल से भरी और स्फटिक मणियम कमलों से सुशोभित बावली को स्थल मानकर वह वस्त्र सहित जल में गिर पड़ा। उसे जल में गिरा देख महाबली भीमसेन हँसने लगे। उनके सेवकों ने भी दुर्योधन की हँसी उड़ायी तथा राजाज्ञा से उन्होंने दुर्योधन को सुन्दर वस्त्र दिये। दुर्योधन की यह दुरवस्था देख महाबली भीमसेन, अर्जुन और नकुल-सहदेव सभी उस समय जोर जोर से हँसने लगे। दुर्योधन स्वभाव से ही अमर्षशील था, अत: वह उनका उपहास न सह सका। वह अपने चेहरे के भाव को छिपाये रखने के लिये उनकी ओर दृष्टि नहीं डालता था। फिर स्थल में ही जल का भ्रम हो जाने से वह कपड़े उठाकर इस प्रकार चलने लगा, मानो तैरने की तैयारी कर रहा हो। इस प्रकार जब वह ऊपर चढ़ा, तब सब लोग उनकी भ्रान्ति पर हँसने लगे। उसके बाद राजा दुर्योधन ने एक स्फटिकमणि का बना हुआ दरवाजा देखा, जो वास्वत में बंद था, तो भी खुला दीखता था। उसमें प्रवेश करते ही उसका सिर टकरा गया और उसे चक्कर सा आ गया। ठीक उसी तरह का एक दूसरा दरवाजा मिला, जिसमें स्फटिकमणि के बड़े-बड़े किंवाड़ लगे थे। यद्यपि वह खुला था, तो भी दुर्योधन ने उसे बंद समझकर उस पर दोनों हाथों से धक्का देना चाहा। किंतु धक्के से वह स्वयं द्वार के बाहर निकल कर गिर पड़ा। आगे जाने पर उसे एक बहत बड़ा फाटक और मिला, परंतु कहीं पिछले दरवाजों की भाँति यहाँ भी कोई अग्रिम घटना न घटित हो इस भय से वह उस दरवाजे के इधर से ही लौट आया। राजन्! इस प्रकार बार बार धोखा खाकर राजा दुर्योधन राजसूय महायज्ञ में पाण्डवों के पास आयी हुई अद्भुत समृद्धि पर दृष्टि डालकर पाण्डुनन्दन युधिष्ठिर की आज्ञा ले अप्रसन्न मन से हस्तिनापुर को चला गया।[1]
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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