महाभारत सभा पर्व के ‘शिशुपाल वध पर्व’ के अंतर्गत अध्याय 40 के अनुसार युधिष्ठिर को भीष्म का सान्त्वना देने का वर्णन इस प्रकार है[1]-
विषय सूची
युधिष्ठिर का राजाओं के रोष को देख चिन्तित होना
वैशम्पायनजी कहते हैं- जनमेजय! तदनन्तर प्रलय कालीन महावायु के थपेड़ों से क्षुब्ध हुस भयंकर महासागर की भाँति राजाओं के उस समुदाय को क्रोध से चंचल हुआ देख धर्मराज युधिष्ठिर बुद्धिमानों में श्रेष्ठ और कुरुकुल के वृद्धि पितामह भीष्मजी से उसी प्रकार बोले, जैसे शत्रुहन्ता महातेजस्वी इन्द्र बृहस्पतिजी से कोई बात पूछते हैं- ‘पितामह! यह देखिये, राजाओं का महासमुद्र रोष से अत्यन्त चंचल हो उठा है। अब यहाँ इन सबको शान्त करने जो उचित उपाय जान पड़े, वह मुझ बताइये। ‘दादाजी! यज्ञ में विघ्र न पड़े और प्रजाओं का हित हो तथा जिस प्रकार सर्वत्र शान्ति भी बनी रहे, वह सब उपाय अब मुझे बताने की कृपा करें'।
भीष्म का युधिष्ठिर को समझाना
धर्म के ज्ञाता युधिष्ठिर के ऐसा कहने पर कुरुकुल पितामह भीष्मजी इस प्रकार बोले- ‘कुरुवंश के वीर! तुम डरो मत, क्या कुत्ता कभी सिंह को मार सकता है? हमने कल्याणमय मार्ग पहले चुन लिया है (श्रीकृष्ण का आश्रय ही वह मार्ग है जिसका मैंने वरण कर लिया है)। ‘जैसे सिंह के सो जाने पर बहुत से कुत्ते उसके निकट आकर एक साथ भूँकने लगते हैं, उसी प्रकार ये सामने खड़े हुए राजा भी तभी तक भूँक रहे हैं, जब तक वृष्णिवंश का सिंह सो रहा है। ‘क्रोध में भरे हुए कुत्तों के समान ये लोग सिंह के निकट तभी तक कोलहाल मचा रहे हैं, जब तक भगवान श्रीकृष्ण सिंह की तरह जाग नही उठते- इन्हें दण्ड देने के लिये उद्यत नही हो जाते। राजाओं में श्रेष्ठ चेदिकुल भूषण नृसिंह शिशुपाल भी अपनी विवेकशक्ति खो बैठा है, तभी इन सब नरेशों को यमलोक में भेज देने की इच्छा से कुत्तें से सिंह बनाने की कोशिश कर रहा है। ‘भारत! अवश्य ही भगवान श्रीकृष्ण इस शिशुपाल के भीतर उनका तो तेज है, उसे पुन: समेट लेना चाहते हैं। ‘ बुद्धिमानों में श्रेष्ठ कुन्तीनन्दन युधिष्ठिर! तुम्हारा कल्याण हो। अवश्य ही इस चेदिराज शिशुपाल की तथा इन समस्त भूपालों की बुद्धि मारी गयी है। ‘क्योंकि नरेश्रेष्ठ श्रीकृष्ण जिस जिस को अपने में विलीन कर लेना चाहते हैं, उस-उस मनुष्य की बुद्धि इसी प्रकार नष्ट हो जाती है, जैसे इस चेदिराज शिशुपाल की। ‘युधिष्ठिर! माधव श्रीकृष्ण तीनों लोकों में जो स्वदेज, अण्डज, अद्भिज और जरायुज- ये चार प्रकार के प्राणी हैं, उन सबकी उत्पत्ति और प्रलय के स्थान हैं। वैशम्पायनजी कहते हैं- जनमेजय! भीष्म की यह बात सुनकर चेदिराज शिशपाल उनको बड़ी कठोर बातें सुनाने लगा।
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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