राजसूय यज्ञ की समाप्ति

महाभारत सभा पर्व के ‘शिशुपाल वध पर्व’ के अंतर्गत अध्याय 45 के अनुसार राजसूय यज्ञ की समाप्ति का वर्णन इस प्रकार है[1]-


यज्ञ में उपस्थित भगवान कृष्ण से यज्ञ का पूर्ण रूप से अनुष्ठान

उस यज्ञ का विघ्न शान्त हो गया था, अत: उसका सुख पूर्वक आरम्भ हुआ। उसमें अपरिमित धन धान्य का संग्रह एवं सदुपयोग किया गया था। भगवान श्रीकृष्ण से सुरक्षित होने के कारण उस यज्ञ में कभी अन्न की कमी नहीं होने पायी। उसमें सदा पार्याप्त मात्रा में भक्ष्य भोज्य आदि की सामग्री प्रस्तुत रहती थी। भरतनन्दन! राजाओं ने सहदेव के द्वारा विष्णु बुद्धि से भगवान श्रीकृष्ण की प्रसन्नता के लिये किये जाने वाले उस यज्ञ का उत्तम विधि विधान देखा। उस यज्ञमण्डप में सुवर्णमय ताल के बने हुए फाटक दिखायी देते थे, जो अपनी प्रभा से तेजस्वी सूर्य के समान देदीप्यमान हो रहे थे। उन तेजस्वी द्वारों से वह विशाल यज्ञ मण्डप ग्रहों से आकाश की भाँति प्रकाशित हो रहा था। वहाँ शय्या, आसन और क्रीडा भवनों की संख्या बहुत थी। उनके निर्माण में प्रचुर धन लगा था। चारों ओर घड़े, भाँति-भाँति के पात्र, कड़ाहे, और कलश आदि सुवर्ण निर्मित सामान दृष्टिगोचर हो रहे थे। वहाँ राजाओं ने कोई ऐसी वस्तु नहीं देखी, जो सोने की बनी हुई न हो। उस महान् यज्ञ में राजसेव गण ब्राह्मणों के आगे सदा नाना प्रकार के स्वादिष्ट भात तथा चावल की बनी हुई बहुत सी दूसरी भोजय वस्तुएँ परोसते रहते थे। वे उनके लिये मधुर पेय पदार्थ भी अर्पण करते थे। भोजन करने वाले ब्राह्मणों की संख्या जब एक लाख पूरी हो जाती थी, तब वहाँ प्रतिदिन शंख बजाया जाता था। जनमेजय! दिन में कई बार इस तरह की शंख ध्वनि होती थी। वह उत्तम शंखनाद सुनकर लोगों को बड़ा विस्मय होता था। इस प्रकार सहस्रों ह्रष्ट पुष्ट मनुष्यों से भरे हुए उस यज्ञ का कार्य चलने लगा। राजन्! उसमें अन्न के बहुत से ऊँचे ढेर लगाये गये थे , जो पवतों के समान पड़ते थे। लोगों ने देखा, वहाँ दही की नहरेें बह रहीं थीं तथा घी के कितने ही कुण्ड भरे हुए थे।[1]

यज्ञ में आये राजाओं और ब्राह्मणों का सत्कार

राजन्! महाराज युधिष्ठिर के उस महान् यज्ञ में नाना जनपदों से युक्त सारा जम्बूद्वीप ही एकत्र हुआ सा दिखायी देता था। वहाँ विशुद्ध मणिमय कुण्डल तथा हार धारण किये नरेश ब्राह्मणों को राजाओं के उपभोग में आने योग्य नाना प्रकार के अन्न पान और भाँति-भाँति की चटनी परोसते थे। उस यज्ञ में निरन्तर उपर्युक्त पदार्थ भोजन करके सब ब्राह्मण आनन्दमग्न हो बड़ी तृप्ति और प्रसन्नता का अनुभव करते थे। इस प्रकार बहुत सी गायों तथा धन धान्य से सम्पन्न उस समृद्धिशाली यज्ञ मण्डप को देखकर सब राजाओं को बड़ा आश्चर्य होता था। ऋत्विजलोग शास्त्रीय विधि के अनुसार राजा युधिष्ठिर के उस राजसूय नामक महायज्ञ का अनुष्ठान करते थे और समस्त याजक ठीक समय पर अग्नि में आहुतियाँ देते थे। व्यास और धौम्य आदि जो सोलह ऋत्विज थे, वे युधिष्ठिर के उस महायज्ञ में विधिपर्वूक अपने अपने निश्चित कार्यों का सम्पादन करते थे। उस यज्ञमण्डप में कोई भी सदस्य ऐसा नहीं था, जो वेद के छाहों अंगों का ज्ञाता, बहुश्रुत, व्रतशील, अध्यापक, पापरहित, क्षमाशील एवं सामर्ध्यशील न हो। उस यज्ञ मे कोई भी मनुष्य दीन, दरिद्र, दुखी, भूखा प्यासा अथवा मूढ़ नहीं था। महातेजस्वी सहदेव महाराज युधिष्ठिर की आज्ञा से भोजनार्थियों को सदा भोजन दिलाया करते थे। शास्त्रोंक्त अर्थपर दृष्टि रखने वाले यज्ञ कुशल याजक प्रतिदिन सब कार्यों को विधिवत् सम्पन्न करते थे। वेद शास्त्रों के ज्ञाता ब्राह्मण वहाँ सदा कथा प्रवचन किया करते थे। उस महायज्ञ में सब लोग कथा के अन्त में बड़े सुख का अनुभव करते थे। देवता, असुर, यक्ष, नाग, दिव्य मानव तथा विद्याधर गणों से भरा हुआ बुद्धिमान पाण्डुनन्दन महात्मा धर्मराज का वह राजसूय यज्ञ बड़ी शोभा पाता था। वह यज्ञमण्डप गन्धर्वों, अप्सरा-समूहों, देवताओं, मुनिगणों तथा यक्षों से सुशोभित हो दूसरे देवलोक के समान जान पड़ता था। किम्पुरुषों के गीत तथा किन्नरगण उस स्थान की शोभा बढा रहे थे। नारद, महातेजस्वी तुम्बुरु, विश्वावसु, चित्रसेन तथा दूसरे गीतकुलश गन्धर्व वहाँ गीत गाकर यज्ञ कार्यों के बीच बीच में अवकाश मिलने पर सब लोगों का मनोरंजन करते थे। यज्ञ सम्बन्धी कर्मों के बीच में अवसर मिलने पर व्याकरण शास्त्र के ज्ञाता विद्वान पुरुष इतिहास पुराण तथा सब प्रकार के उपाख्यान सुनाया करते थे। वहाँ सहस्रों भेरी, मृदंग, मुड्डुक, गोमुख, शृंंग, वंशी और शंखों के शब्द सुनायी पड़ते थे। इस जगत में रहने वाले समस्त ब्राह्मण, (क्षत्रिय,) वैश्य, शूद्र, सब प्रकार के म्लेच्छ तथा अग्रज, मध्यज और अन्त्यज आदि सभी वर्णों के लोग उस यज्ञ में उपस्थित हुए थे।[1] अन्य देशों में उत्पन्न विभिन्न जाति के लोगों के शुभागमन से युधिष्ठिर के उस राजभवन में ऐसा जान पड़ता था कि यह समस्त लोक वहाँ उपस्थित हो गया है। उस राजसूय यज्ञ में भीष्म, द्रोण और दुर्योधन आदि समस्त कौरव, सारे वृष्णिवंशी तथा सम्पूर्ण पांचाल भी सेवकों की भाँति यथायोग्य सभी कार्य अपने हाथों करते थे। महाबाहु जनमेजय! इस प्रकार बुद्धिमान युधिष्ठिर का वह यज्ञ चन्द्रमा के राजसूय यज्ञ की भाँति शोभा पाता था। धर्मराज युधिष्ठिर उस यज्ञ में हर समय वस्त्र, कम्बर, चादर, स्वर्णपदक, सोने के बर्तन और सब प्रकार के आभूषणों का दान करते रहते थे। वहाँ राजाओं से जो-जो रत्न अथवा उत्तम धन भेंट के रूप में प्राप्त हुए, उन सबको युधिष्ठिर ने ब्राह्मणों की सेवा में समर्पित कर दिया। उन्होंने महात्मा ब्राह्मणों को दक्षिणा के रूप में सहस्र कोटि स्वर्ण मुद्राएँ प्रदान कीं। उन्होंने संसार में वह कार्य किया जिसे दूसरा कोई राजा नहीं कर सकेगा। यज्ञ कराने वाले ब्राह्मण सम्पूर्ण मनोवान्छित वस्तुएँ और प्रचुर धन पाकर, सदा के लिये तृप्त हो गये। फिर राजा युधिष्ठिर ने व्याप्त, धौम्य, महामति नारद, सुमन्तु, जैमिनि, पैल, वैशम्पायन, याज्ञवल्क्य, कठ तथा महातेजस्वी कलाप- इन सब श्रेष्ठ ब्राह्मणों का पूर्ण मनोयोग के साथ सत्कार एवं पूजन किया।[2]

श्रीकृष्ण का अन्त तक युधिष्ठिर के यज्ञ की रक्षा करना

युधिष्ठिर उनसे बोले- महर्षियों! आप लोगों के प्रभाव से यह राजसूय महायज्ञ सांगोपांग सम्पन्न हुआ। भगवान श्रीकृष्ण के प्रताप से मेरा सारा मनोरथ पूर्ण हो गया। वैशम्पायनजी कहते हैं। जनमेजय! इस प्रकार यज्ञ समाप्ति के समय राजा युधिष्ठिर ने अन्त में लक्ष्मीपति भगवान श्रीकृष्ण, देवेश्वर लबदेव तथा कुरुश्रेष्ठ भीष्म आदि का पूजन किया। तदनन्तर उस राजसूय महायज्ञ को विधिपूर्वक समाप्त किया। शंख, चक्र और गदा धारण करने वाले महाबाहु भगवान श्रीकृष्ण ने आरम्भ से लेकर अन्त तक उस यज्ञ की रक्षा की।[2]

राजाओं द्वारा युधिष्ठिर को बधाई

तदनन्तर धर्मात्मा युधिष्ठिर जब अवभृथ स्थान कर चुकें, उस समय क्षत्रिय राजाओं का समुदाय उनके पास जाकर बोला- ‘धर्मज्ञ! आपका अभ्युदय हो रहा है, यह बड़े सौभाग्य की बात है। आपने सम्राट का पद प्राप्त कर लिया। अजमीढकुल नन्दन राजाधिराज! आपने इस कर्म द्वारा अजमीढवंशी क्षत्रियों के यश का विस्तार तो किया ही है, महान धर्म का भी सम्पादन किया है। नरव्याघ्र! आपने मारे लिये सब प्रकार के अभीष्ट पदार्थ सुलभ करके हमारा बड़ा सम्मान किया है। अब हम आपसे जाने की अनुमति लेना चाहते हैं। ‘हम अपने-अपने राष्ट्र को जायँगे, आप हमें आज्ञा दें।’ राजाओं का यह वचन सुनकर धर्मराज युधिष्ठिर ने उन पूजनीय नरेशों का यथा योग्य सत्कार करके सब भाइयों से कहा- ‘ये सभी राजा प्रेम से ही हमारे यहाँ पधारे थे। ये परंतप भूपाल अब मुझ से पूछकर अपने राष्ट्रों को जाने के लिय उद्यत हैं। तुम लोगों का भला हो। तुम लोग अपने राज्य की सीमा तक आदरपूर्वक इन श्रेष्ठ नरपतियों को पहुँचा आओं’। भाई की बात मनाकर वे धर्मात्मा पाण्डव एक-एक करके यथायोग्य सभी राजाओं के साथ गये। प्रतापी धृष्टद्युम्र तुरंत ही राजा विराट के साथ गया। धनंजय ने महारथी महात्मा द्रुपद का अनुसरण किया। महाबली भीमसेन भीष्म और धृतराष्ट्र के साथ गये। योद्धाओं में श्रेष्ठ सहदेव ने द्रोणाचार्य तथा उनके वीर पुत्र अश्वत्थामा को पहुँचाया। राजन्! सुबल और उनके पुत्र के साथ नकुल गये। द्रौपदी के पाँच पुत्रों तथा अभिमन्यु ने पर्वतीय महारथियों को अपने राज्य की सीमा तक पहुँचाया। इसी प्रकार अन्य क्षत्रिय शिरोमणियों ने दूसरे दूसरे खत्रिय राजाओं का अनुगमन किया। इसी तरह सभी ब्राह्मण भी अत्यन्त पूजित हो सहस्रों की संख्या में वहाँ से विदा हुए। राजाओं तथा ब्राह्मणों के चले जाने पर प्रतापी भगवान श्रीकृष्ण ने युधिष्ठिर से कहा- ‘कुरुनन्दन! मैं आपकी आज्ञा चाहता हूँ, अब मैं द्वारका पुरी को जाऊँगा। सौभाग्य से आपने सब यज्ञों में उत्तम राजसूय का सम्पादन कर लिया’।[2]

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 1.2 महाभारत सभा पर्व अध्याय 45 श्लोक 38-39
  2. 2.0 2.1 2.2 महाभारत सभा पर्व अध्याय 45 श्लोक 40-62

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