युधिष्ठिर का धन, राज्य, भाई, द्रौपदी सहित अपने को भी हारना

महाभारत सभा पर्व के ‘द्यूत पर्व’ के अंतर्गत अध्याय 64 के अनुसार युधिष्ठिर का धन, राज्य, भाई, द्रौपदी सहित अपने को भी हारने का वर्णन इस प्रकार है[1]-

युधिष्ठिर का जुए में धन सहित नकुल व सहदेव को हारना

शकुनि बोला-कुन्‍तीनन्‍दन युधिष्ठिर! आप अब तक पाण्‍डवों का बहुत-सा धन हार चुके। यदि आपके पास बिना हारा हुआ कोई धन शेष हो तो बताइये। युधिष्ठिर बोले-सुबलपुत्र! मेरे पास असंख्‍य धन है, जिसे मैं जानता हूँ। शकुने! तुम मेरे धन का परिमाण क्‍यों पूछते हो ? अयुत, प्रयुत, शंकु, पद्म, अर्बुद, खर्व, शंख, निखर्व, महापद्म, कोटि, मध्‍य, परार्घ और पर इतना धन मेरे पास है। राजन्! खेलो, मैं इसी को दाँव पर रखकर तुम्‍हारे साथ खेलता हूँ। वैशम्‍पायनजी कहते हैं - जनमेजय! यह सुनकर शकुनि ने छल का आश्रय ले पुन: इसी निश्‍चय के साथ युधिष्ठिर से कहा— 'लो' यह धन भी मैंने जीत लिया'।युधिष्ठिर बोले- सुबलपुत्र! मेरे पास सिन्‍धु नदी के पूर्वी तट से लेकर पर्णाशा नदी के किनारे तक जो भी बैल, घोडे़, गाय, भेड़ एवं बकरी आदि पशुधन हैं, वह असंख्‍य है। उनमें भी दूध देने वाली गौओं की संख्‍या अधिक है। यह सारा मेरा धन है, जिसे मैं दाँव पर रखकर तुम्‍हारे साथ खेलता हूँ॥ वैशम्‍पायनजी कहते हैं - जनमेजय! यह सुनकर शठता के आश्रित हुए शकुनि ने अपनी ही बात घोषित करते हुए युधिष्ठिर से कहा - 'लो, यह दाँव भी मैंने ही जीता'। युधिष्ठिर बोले - राजन्! ब्राह्माणों को जीविकारूप में जो ग्रामादि दिये गये हैं, उन्‍हें छोड़कर शेष जो नगर,जनपद तथा भूमि मेरे अधिकार में है तथा जो ब्राह्माणतर मनुष्‍य मेरे यहाँ रहते हैं, वे सब मेरे शेष धन हैं। शकुने! मैं इसी धन का दाँव पर रखकर तुम्‍हारे साथ जूआ खेलता हूँ। वैशम्‍पायनजी कहते हैं - जनमेजय! यह सुनकर कपट का आश्रय ग्रहण करके शकुनि ने पुन: अपनी ही जीत का निश्‍चय करके युधिष्ठिर से कहा - 'इस दाँव पर भी मेरी ही विजय हुई '। युधिष्ठिर बोले - राजन्! ये राजपुत्र जिन आभूषणों से विभूषित होकर शोभित हो रहे हैं, वे कुण्‍डल और गले के स्‍वर्णभूषण आदि समस्‍त राजकीय आभूषण मेरे धन हैं। इन्‍हे दाँव पर लगाकर मैं तुम्‍हारे साथ खेलता हूँ। वैशम्‍पायनजी कहते हैं - जनमेजय! यह सुनकर छल-कपट का आश्रय लेने वाले शकुनि ने युधिष्ठिर से निश्‍चय पूर्वक कहा - ‘लो, यह भी मैंने जीता’। युधिष्ठिर बोले - श्‍यामवर्ण, तरुण, लाल नेत्रों और सिंह के समान कंधोंवाले महाबाहु नकुल को ही इस समय में दाँव पर रखता हूँ, इन्‍हीं को मेरे दाँव का धन समझो। शकुनि बोला - धर्मराज युधिष्ठिर! आपके परमप्रिय राजकुमार नकुल तो हमारे अधीन हो गये, अब किस धन से आप यहाँ खेल रहे हैं? वैशम्‍पायनजी कहते हैं - जनमेजय! ऐसा कहकर शकुनि ने पासे फेंके और युधिष्ठिर से कहा - ‘लो, इस दाँव पर भी मेरी ही विजय हुई’। युधिष्ठिर बोले - ये सहदेव धर्मों का उपदेश करते हैं। संसार में पण्डित के रूप में इनकी ख्‍याति है। मेरे प्रिय राजकुमार सहदेव यद्यपि दाँव पर लगाने के योग्‍य नहीं हैं, तो भी मैं अप्रिय वस्‍तु की भाँति इन्‍हें दाँव पर रखकर खेलता हूँ। वैशम्‍पायनजी कहते हैं - जनमेजय! यह सुनकर छली शकुनि ने उसी निश्‍चय के साथ युधिष्ठिर से कहा -‘यह दाँव भी मैंने ही जीता’।[1]

युधिष्ठिर का जुए में अर्जुन, भीम और स्वंय को भी हार जाना

शकुनि बोला - राजन्! आपके ये दोनों प्रिय भाई माद्री के पुत्र नकुल-सहदेव तो मेरे द्वारा जीत लिये गये, अब रहे भीमसेन और अर्जुन। मैं समझता हूँ, वे दोनों आपके लिये अधिक गौरव की वस्‍तु हैं (इसीलिये आप इन्‍हें दाँव पर नहीं लगाते)। युधिष्ठिर बोले - ओ मूढ़! तू निश्‍चय ही अधर्म का आचरण कर रहा है, जो न्‍याय की ओर नहीं देखता। तू शुद्ध हृदय वाले हमारे भाइयों में फूट डालना चाहता है। शकुनि बोला - राजन्! धन के लोभ से अधर्म करने वाला मतवाला मनुष्‍य नरककुण्‍ड में गिरता है। अधिक उन्‍मत्त हुआ ठूँठा काठ हो जाता है। आप तो आयु में बड़े और गुणों में श्रेष्‍ठ हैं। भरतवंश विभूषण! आपको नमस्‍कार है। धर्मराज युधिष्ठिर! जुआरी जूआ खेलते समय पागल होकर जो अनाप-शनाप बातें बक जाया करते हैं, वे न कभी स्‍वप्‍न में दिखायी देती हैं और न जाग्रत् काल में ही। युधिष्ठिर ने कहा- शकुने! जो युद्धरूपी समुद्र में हम लोगों को नौका की भाँति पार लगाने वाले हैं तथा शत्रुओं पर विजय पाते हैं,वे लोक विख्‍यात वेगशाली वीर राजकुमार अर्जुन यद्यपि दाँव पर लगाने योग्‍य नहीं हैं, तो भी उनको दाँव पर लगाकर मैं तुम्‍हारे साथ खेलता हूँ। वैशम्‍पायनजी कहते हैं - जनमेजय! यह सुनकर कपटी शकुनि ने पूर्ववत् विजय का निश्‍चय करके युधिष्ठिर से कहा - ‘यह भी मैंने ही जीता’। शकुनि फिर बोला - राजन्! ये पाण्‍डवों में धनुर्धर वीर सव्‍यसाची अर्जुन मेरे द्वारा जीत लिये गये। पाण्‍डुनन्‍दन! अब आपके पास भीमसेन ही जुआरियों को प्राप्‍त होने वाले धन के रूपमें शेष हैं, अत: उन्‍हीं को दाँव पर रखकर खेलिये। युधिष्ठिर ने कहा - राजन्! जो युद्ध में हमारे सेना-पति और दानवशत्रु बज्रधारी इन्‍द्र के समान अकेले ही आगे बढ़ने वाले हैं; जो तिरछी दृष्टि से देखते हैं, निजकी भौंहें धनुष की भाँति झुकी हुई हैं, जिनका हृदय विशाल और कंधे सिंह के समान हैं, जो सदा अत्‍यन्‍त अमर्ष में भरे रहते हैं, बल में जिनकी समानता करने वाला कोई पुरुष नहीं है, जो गदाधारियों में अग्रगण्‍य तथा अपने शत्रुओं को कुचल डालने वाले हैं, उन्‍हीं राजकुमार भीमसेन को दाँव पर लगाकर मैं जुआ खेलता हूँ। यद्यपि वे इसके योग्‍य नहीं हैं। वैशम्‍पायनजी कहते हैं - जनमेजय! यह सुनकर शठता का आश्रय शकुनि ने उसी निश्‍चय के साथ युधिष्ठिर से कहा, ‘यह दाँव भी मैंने ही जीता’। शकुनि बोला - राजन्! कुन्‍तीनन्‍दन! आप अपने भाइयों और हाथी-घोड़ों सहित बहुत धन हार चुके, अब आपके पास बिना हारा हुआ धन कोई अवशिष्‍टृ हो, तो बतलाइये। युधिष्ठिर ने कहा- मैं अपने सब भाइयों में बड़ा और सबका प्रिय हूँ; अत: अपने को ही दाँव पर लगाता हूँ। यदि मैं हार गया तो पराजित दास की भाँति सब कार्य करूँगा। वैशम्‍पायनजी कहते हैं - जनमेजय! यह सुनकर कपटी शकुनि ने निश्‍चयपूर्वक अपनी गति जीत घोषित करते हुए युधिष्ठिर से कहा-‘यह दाँव भी मैंने ही जीता’। शकुनि फिर बोला - राजन्! आप अपने को दाँव पर लगाकर जो हार गये, यह आपके द्वारा बड़ा अधर्म-कार्य हुआ। धन के शेष रहते हुए अपने आपको हार जाना महान् पाप है। वैशम्‍पायनजी कहते हैं - जनमेजय! पासा फेंकने की वि़द्या में निपुण शकुनि ने राजा युधिष्ठिर से दाँव लगाने के विषय में उक्‍त बातें कहकर सभा में बैठे हुए लोकप्रसिद्ध वीर राजाओं को पृथक्-पृथक् पाण्‍डवों की पराजय सूचित की।[2]

शकुनि का युधिष्ठिर को द्रौपदी को दाँव पर लगाने के लिए उकसाना

तत्‍पश्‍चात् शकुनि फिर कहा—राजन्! आपकी प्रियतमा द्रौपदी एक ऐसा दाँव है, जिसे आप अब तक नहीं हारे हैं; अत: पांचालराज कुमारी कृष्‍णा को आप दाँव पर रखिये और उसके द्वारा फिर अपने को जीत लीजिये। युधिष्ठिर ने कहा - जो न नाटी है न लंबी, न कृष्‍ण वर्णा है न अधिक रक्‍तवर्णा तथा जिसके केश नीले और घुँघराले हैं, उस द्रौपदी को दाँव पर लगाकर मैं तुम्‍हारे साथ जूआ खेलता हूँ। उसके नेत्र शरद् ऋतु के प्रफूल्‍ल कमलदल के समान सुन्‍दर एवं विशाल हैं। उसके शरीर से शारदीय कमल के समान सुगन्‍ध फैलती रहती है। वह शरद्ऋतु के कमलों का सेवन करती है तथा रूप में साक्षात् लक्ष्‍मी के समान है। पुरुष जैसी स्‍त्री प्राप्‍त करने की अभिलाषा रखता है, उसमें वैसा ही दयाभाव है, वैसी ही रूपसम्‍पति है तथा वैसे ही शील-स्‍वभाव हैं। वह समस्‍त सद्गुणों से सम्‍पन्‍न तथा मन के अनुकूल और प्रिय वचन बोलने वाली है। मनुष्‍य धर्म, काम और अर्थ की सिद्धि के लिये जैसी पत्‍नी की इच्‍छा रखता है, द्रौपदी वैसी ही है। वह ग्‍वालों और भेड़ों के चरवाहों से भी पीछे सोती और सबसे पहले जागती है। कौन-सा कार्य हुआ और कौन-सा नहीं हुआ, इन सबकी वह जानकारी रखती है। उसका स्‍वेदबिन्‍दुओं से विभूषित मुख कमल के समान सुन्‍दर और महिला के समान सुगन्धित है। उसका मध्‍यभाग वेदी के समान कृश दिखायी देता है। उसके सिर के केश बेड़-बडे़ मुख और ओष्‍ठ अरुणवर्ण के हैं तथा उसके अंगों में अधिक रोमावलियाँ नहीं हैं।[3]

युधिष्ठिर का द्रौपदी को भी हारना

सुबलपुत्र! ऐसी सर्वांग सुन्‍दरी सुमध्‍यमा पांचाल-राजकुमारी द्रौपदी को दाँव पर रखकर मैं तुम्‍हारे साथ जूआ खेलता हूँ; यद्यपि ऐसा करते हुए मुझे महान् कष्‍ट हो रहा है। वैशम्‍पायनजी कहते हैं- जनमेजय! बुद्धिमान धर्मराज के ऐसा कहते ही उस सभा में बैठे हुए बड़े-बड़े़ लोगों के मुख से ‘धिक्‍कार है, धिक्‍कार है’ की आवाज आने लगी। राजन् उस समय सारी सभा में हलचल मच गयी। राजाओं को बड़ा शोक हुआ। भीष्‍म, द्रोण और कृपाचार्य आदि के शरीर से पसीना छूटने लगा। विदुरजी तो दोनों हाथों से अपना सिर थामकर बेहोश-से हो गये। वे फुँफकारते हुए सर्प की भाँति अच्‍छावास लेकर मुँह नीचे किये हुए गम्‍भीर चिन्‍ता में निमग्‍न हो बैठे रह गये। बाह्रीक, प्रतीप के पौत्र सोमदत्त, भीष्‍म, संचय, अश्‍वत्‍थामा, भूरिश्रवा तथा धृतराष्‍ट्र युयुत्‍सु - ये सब मुँह नीचे किये सर्पों के समान लंबी साँसें खींचते हुए अपने दोनों हाथ मलने लगे। धृतराष्‍ट्र मन-ही-मन प्रसन्‍न हो उनसे बार-बार पूछ रहे थे, ‘क्‍या हमारे पक्ष की जीत हो रही है ?’ वे अपनी प्रसन्‍नता की आकृति को न छिपा सके। दु:शासन आदि के साथ कर्ण को तो बड़ा हर्ष हुआ; परंतु अन्‍य सभासदों की आँखों से आँसू गिरने लगे। सुबलपुत्र शकुनि ने मैंने यह भी जीत लिया, ऐसा कहकर पासों को पुन: उठा लिया। उस समय वह विजयोउल्‍लास से सुशोभित और मदोन्‍मत्त हो रहा था।[3]


टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 महाभारत सभा पर्व अध्याय 65 श्लोक 1-16
  2. महाभारत सभा पर्व अध्याय 65 श्लोक 17-31
  3. 3.0 3.1 महाभारत सभा पर्व अध्याय 65 श्लोक 32-45

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