श्रीकृष्ण का सोलह हजार कन्याओं को पत्नीरूप में स्वीकार करना

महाभारत सभा पर्व के ‘अर्घाभिहरण पर्व’ के अंतर्गत अध्याय 38 के अनुसार श्रीकृष्ण का सोलह हजार कन्याओं को पत्निरूप में स्वीकार करने की कथा का वर्णन इस प्रकार है[1]-

भूमि और श्रीकृष्ण का संवाद

भूमि ने अपने पुत्र को रणभूमि में गिरा देख अदिति के दोनों कुण्डल लौटा दिये और महाबाहु भगवान श्रीकृष्ण से इस प्रकार कहा। भूमि बोली- प्राभो मधुसूदन! आपने ही इसे जन्म दिया था और आपने ही इसे मारा है। आपकी जैसी इच्छा हो, वैसी ही लीला करते हुए नरकासुर की संतान का पालन कीजिये। श्रीभगवान ने कहा- भामिनि! तुम्हारा यह पुत्र देवताओं, मुनियों, पितरों, महात्माओं तथा सम्पूर्ण भूतों के उद्वेग का पात्र हो रहा था। यह पुरुषाधम ब्राह्मणों से द्वेष रखने वाला, देवताओं का शत्रु तथा सम्पूर्ण विश्व का कण्टक था, इसलिये सब लोग इससे द्वेष रखते थे।[1] इस बलवान असुर ने बल के घमंड में आकर सम्पूर्ण विश्व के लिये वन्दनीय देवमाता अदिति को भी कष्ट पहुँचाया और उनके कुण्डल के लिये। इन्हीं सब कारणों से यह मारा गया है। भामिनि! मैंने इस समय जो कुछ किया है, उसके लिये तुम्हें मुझ पर क्षोभ नहीं करना चाहिये। महाभागे! तुम्हारे पुत्र ने मेरे प्रभाव से अत्यन्त उत्तम गति प्राप्त की है, इसलिये जाओ, मैंने तुम्हारा भार उतार दिया है।[2]-

श्रीकृष्ण का मणिपर्वत पर जाना

भीष्म कहते हैं- युधिष्ठिर! भूमिपुत्र नरकासुर को मारकर सत्यभामा सहित भगवान श्रीकृष्ण ने लोकपालों के साथ जाकर नरकासुर के घर को देखा। यशस्वी नरक के घर में जाकर उन्होंने नाना प्रकार के रत्न और अक्षय धन देखा। मणि, मोती, मूँगे, वैदूर्यमणि की बनी हुई वस्तुएँ, पुखराज, सूर्यकान्त मणि और निर्मल स्फटिक मणि की वस्तुएँ भी वहाँ देखने में आयीं। जाम्बूनद तथा शातकुम्भसज्ञक सुवर्ण की बनी हुई बहुत सी ऐसी वस्तुएँ वहाँ दृष्टिगोचर हुई, जो प्रज्वलित अग्नि और शीतरश्मि चन्द्रमा के समान प्रकाशित हो रही थी। नरकासुर का भीतरी भवन सुवर्ण के समान सुन्दर, कान्तिमान् एवं उज्ज्वल था। उसके घर में जो असंख्य एवं अक्षय धन दिखायी दिया, उतनी धनराशि राजा कुबेर के घर में भी नहीं है। देवराज इन्द्र के भवन में भी पहले कभी उतना वैभव नहीं देखा गया था। इन्द्र बोले- जनार्दन! ये जो नाना प्रकार के माणिक्य, रत्न, धन तथा सोने की जालियों से सुशोभित बड़े-बड़े हौदों वाले, तोमर सति पराक्रमशाली बड़े भारी गजराज एवं उन पर बिछाने के लिये मूँगे से विभूषित कम्बल, निर्मल पताकाओं से युक्त नाना प्रकार के वस्त्र आदि हैं, इन सब पर आपका अधिकार है। इन गजराजों की संख्या बीस हजार है तथा इससे दूनी हथिनियाँ हैं। जनार्दन! यहाँ आठ लाख उत्तम देशी घोड़े हैं और बैल जुते हुए नये-नये वाहन हैं। इनमें से जिनकी आपको आवश्यकता हो, वे सब आपके यहाँ जा सकते हैं। शत्रुदमन! ये महीन ऊनी वस्त्र, अनेक प्रकार की शय्याएँ, बहुत से आसन, इच्छानुसार बोली बोलने वाले देखने में सुन्दर पक्षी, चन्दन और अगुरुमिश्रित नाना प्रकार के रथ- ये सब वस्तुएँ मैं आपके लिये वृष्णियों के निवास स्ािान द्वारका में पहुँचा दूँगा। भीष्मजी कहते हैं- युधिष्ठिर! देवता, गन्धर्व, दैत्य और असुर सम्बन्धी जितने भी रत्न नरकासुर के घर में उपलब्ध हुए, उन्हें शीघ्र ही गरुड़ पर रखकर देवराज इन्द्र दाशार्हवंश के अधिपति भगवान श्रीकृष्ण के साथ मणिपर्वत पर गये। वहाँ बड़ी पवित्र हावा बह रही थी तथा विचित्र एवं उज्ज्वल प्रभा सब ओर फैली हुुई थी। यह सब देखकर देवताओं को बड़ा विस्मय हुआ। आकाशमण्डल में प्रकाशित होने वाले देवता, ऋषि, चन्द्रमा और सूर्य की भाँति वहाँ आये हुए देवगण उस पर्वत की प्रभा से तिरस्कृत हो साधारण से प्रतीत हो रहे थे। तदनन्तर बलरामजी तथा देवराज इन्द्र की आज्ञा से महाबाहु भगवान श्रीकृष्ण ने नरकासुर के मणिपर्वत पर बने हुए अन्त:पुर में प्रसन्नतापूर्वक प्रवेश किया। मधुसूदन ने देखा, उस अन्त:पुर के द्वारा और गृह वैदूर्यमणि ने समान प्रकाशित हो रहे है। उनके फाटकों पर पताकाएँ फहरा रही थीं। सुवर्णमय विचित्र पताकाओं वाले महलों से सुशोीिात वह मणिपर्वत चित्रलिखित मेघों के समान प्रतीत होता था।[2]

मणिपर्वत की स्त्रियों का श्रीकृष्ण से विवाह के लिये अनुमोदन

उन महलों में विशाल अट्टालिकाएँ बनी थीं, जिन पर चढ़ने के लिए मणिनिर्मित सीढ़ियाँ सुशोभित हो रही थीं। वहाँ रहने वाली प्रधान-प्रधान गन्धर्वों और असुरों की परम सुन्दरी प्यारी पुत्रियों ने उस स्वर्ग के समान प्रदेश में खड़े हुए अपराजित वीर भगवान मधुसूदन को देखा। देखते-देखते ही उन सबने महाबाहु श्रीकृष्ण को घरे लिया। वे सभी स्त्रियाँ एक वेणी धारण किये गेरुए वस्त्र पहिने इन्द्रय संयमपूर्वक वहाँ तपस्या करती थीं। उस समय व्रत और संतापजनित शोक उनमें से किसी को पीड़ा नहीं दे सका। वे निर्मल रेशमी वस्त्र पहने हुए यदुवीर श्रीकृष्ण के पास जा उनके सामने हाथ जोड़कर खड़ी हो गयीं। उन कमलनयनी कामिनियों ने अपनी सम्पूर्ण इन्द्रियों के स्वामी श्रीहरि से इस प्रकार कहा। कन्याएँ बोलीं- पुरुषोत्तम! देवर्षि नारद ने हमसे कह रखा था कि ‘देवताओं का कार्य सिद्ध करने के लिये भगवान गोविन्द यहाँ पधारेंगे। ‘एवं वे सपरिवार नरकासुर, निशम्भ, मुर, दानव हयग्रीव तथा पंचजन को मारकर अक्षय धन प्राप्त करेंगे। ‘थोड़े ही दिनों में भगवान यहाँ पधाकर तुम सब लोगों का इस संकट से उद्धार करेंगे।’ ऐसा कहरक परम बुद्धिमान देवर्षि नारद यहाँ से चले गये। हम सदा आपका ही चिन्तन करती हुई घोर तपस्या में लग गयीं। हमारे मन में यह संकल्प उठता रता था कि कितना समय बीतने पर हमें महाबाहु माधव का दर्शन प्राप्त होगा। पुरुषोत्तम! यही संकल्प लेकर दानवों द्वारा सुरक्षित हो हम सदा तपस्या करती आ रही हैं। भगवन्! आप गान्धर्व विवाह की रीति से हमारे साथ विवाह करके हमारा प्रिय करें। हमारे पूर्वोक्त मनोरथ को जान कर भगवान वायुदेव ने भी हम सबके प्रिय मनोरथ की सिद्धि के लिये कहा था कि ‘देवर्षि नारदजी ने जो कहा है, वह शीघ्र ही पूर्ण होगा’।[3]-

श्रीकृष्ण का स्त्रियों से विवाह की स्वीकृति देना

भीष्मजी कहते हैं- युधिष्ठिर! देवताओं तथा गन्धर्वों ने देखा, वृषभ के समान विशाल नेत्रों वाले भगवान श्रीकृष्ण उन परम सुन्दरी नारियों के समक्ष वैस ही खड़े थे, जैसे नयी गायों के आगे साँड़ हो। भगवान के मुखचन्द्र को देखकर उन सबकी इन्द्रियाँ उल्लसित हो उठीं और हर्ष में भरकर महाबाहु श्रीकृष्ण से पुन: इस प्रकार बोलीं। कन्याओं ने कहा- बड़े हर्ष की बात है कि पूर्वकाल में वायुदेव ने तथा सम्पूर्ण भूतों के प्रति कृतज्ञता रखने वाले महर्षि नारदजी ने जो बात कही थी, वह सत्य हो गयी। उन्होंने कहा था कि ‘शंख, चक्र, गदा और खड्ग धारण करने वाले सर्वव्यापी नारायण भगवान विष्णु भूमिपुत्र नरक को मारकर तुम लोगों के पति होंगे’। ऋषियों में प्रधान महात्मा नारद का वह वचन आज आपके दर्शन मात्र से सत्य होने जा रहा है, यह बड़े सौभाग्य की बात है। तभी तो आज हम आपके परम प्रिय चन्द्रतुल्य मुख का दर्शन कर रही हैं। आप परमात्मा के दर्शन मात्र से ही हम कृतार्थ हो गयीं। उन सब के हृदय में कामभाव का संचार हो गया था। उस समय यदुश्रेष्ठ श्रीकृष्ण ने उनसे कहा। श्रीभगवान बोले- विशाल नेत्रों वाली सुन्दरियों! जैसा तुम कहती हो, उसके अनुसार तुम्हारी सारी अभिलाषा पूर्ण हो जायगी। भीष्मजी कहते हैं- युधिष्ठिर! सेवकों द्वारा उन सब रत्नों को तथा देवतओं एवं राजाओं आदि की कन्याओं को द्वारका भेज देवकीनन्दन भगवान श्रीकृष्ण ने उन उत्तम मणिपर्वत को शीघ्र ही गरुड़ी बाँह (पंख या पीठ) पर चढ़ा दिया।[3]


टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 महाभारत सभा पर्व अध्याय 38 भाग 25
  2. 2.0 2.1 महाभारत सभा पर्व अध्याय 38 भाग 26
  3. 3.0 3.1 महाभारत सभा पर्व अध्याय 38 भाग 27

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