सत्यभामा सहित अन्य रानियों के महल का वर्णन

महाभारत सभा पर्व के ‘अर्घाभिहरण पर्व’ के अंतर्गत अध्याय 38 के अनुसार सत्यभामा सहित अन्य रानियों के महल का वर्णन इस प्रकार है[1]-

सत्यभामा के महल का वर्णन

श्रीकृष्ण की दूसरी पटरानी सत्यभामा सदा श्वेत रंग के प्रासाद में निवास करती हैं, जिसमें विचित्र मणियों के सोपान बनाये गये हैं। उसमें प्रवेश करने पर लोगों को (ग्रीष्म ऋतु में भी) शीतलता का अनुभव होता है। निर्मल सूर्य के समान तेजस्विनी पताकाएँ उस मनोरम प्रसाद की शोभा बढ़ाती हैं। एक सुन्दर उद्यान में उस भवन का निर्माण किया गया है। उसके चारों और ऊँची-ऊँची ध्वजाएँ फहराती हैं। [1]

जाम्बवती के महल का वर्णन

इसके सिवा वह प्रमुख प्रसाद, जो रुक्मिणी तथा सत्यभामा के महलों के बीच में पड़ता है और जिसकी उज्ज्वल प्रभा सब ओर फैली रहती है, जाम्बवती देवी द्वारा विभूषित किया गया है। वह अपनी दिव्य प्रभा औरविचित्र सजावट से मानो तीनों लोकों को प्रकाशित कर रहा है। उसे भी विश्वकर्मा ने ही बनाया है। जाम्बवती का वह विशाल भवन कैलाश शिखर के समान सुशोभित होता है। जिसका दरवाजा जाम्बूनद सुवर्ण के समान उद्दीप्त होता है, जो देखने में प्रज्वलित अग्नि के समान जान पड़ता है।[1]

श्रीकृष्ण की अन्य रानियों के महल का वर्णन

विशालता में समुद्र से जिसकी उपमा दी जाती है, जो मेरु के नाम से विख्यात है, उस महान् प्रासाद में गान्धाराज की कुलीन कन्या सुकेशी को भगवान श्रीकृष्ण ने ठहराया है। महाबाहो! पद्मकूट नाम से विश्यात जो कमल के समान कान्ति वाला प्रसाद है, वह महारानी सुप्रभा का परम पूजित निवास स्थान है। कुरुश्रेष्ठ! जिस उत्तम प्रासाद की प्रभा सूर्य के समान है, उसे शांर्गधन्वा श्रीकृष्ण ने महारानी लक्ष्मणा को दे रखा है। भारत! वैदूर्यमणि के समान कान्तिमान हरे रंग का महल, जिसे देखकर सब प्राणियों को ‘श्रीहरि’ ही हैं, ऐसा अनुभव होता है, वह मित्रविन्दा का निवास स्थान है। उसकी देवगण भी सराहना करते हैं। भगवान वासुदेव की रानी मित्रविन्दा का यह भवन अन्य सब महलों का आभूषणरूप हैं। युधिष्ठिर! द्वारका में जो दूसरा प्रमुख प्रासाद है, उसे सम्पूर्ण शिल्पियों ने मिलकर बनाया है। वह अत्यन्त रमणीय भवन हँसता सा खड़ा है। सभी शिल्पी उसके निर्माण कौशल की सराहना करते हैं। उस प्रासाद का नाम है केतुमान। वह भगवान वासुदेव की महारानी सुदत्तादेवी का सुन्दर निवास स्थान है। वहीं ‘बिरज’ नास से प्रसिद्ध एक प्रासाद है, जो निर्मल एवं राजेगुण के प्रभाव से शून्य है। वह परामात्मा श्रीकृष्ण का उपस्थानगृह (खास रहने का स्थान) है। इसी प्रकार वहाँ एक और भी प्रमुख प्रासाद है, जिसे स्वयं विश्वकर्मा ने बनाया है। उसकी लंबाई-चौड़ाई एक-एक योजन की है। भगवान का वह भवन सब प्रकार के रत्नों द्वारा निर्मित हुआ है। वसुदेवनन्दन श्रीकृष्ण के सुन्दर सदन में जो मार्गदर्शक ध्वज है, उन सबके दण्ड सुवर्णमय बनाये गये हैं। उन सब पर पताकाएँ फहराती रहती हैं।[1]

द्वारका में लगे हुए वृक्षों का मनोहारी वर्णन

द्वारकापुरी में सभी के घरों में घंटा लगाया गया है। यदुसिंह श्रीकृष्ण ने वहाँ लाकर वैजयन्ती पताकाओं से युक्त पर्वत स्थापित किया है। वहाँ हसंकूट पर्वत का शिखर है, जो साठ ताड़ के बराबर ऊँचा और आधा योजन चौड़ा है। वहीं इन्द्रघुम्र सरोवर भी है, जिसका विस्तार बहुत बड़ा है। वहाँ सब भूतों के देखते-देखते किन्नरों के संगीत का महान् शब्द होता रहता है। वह भी अमिततेजस्वी भगवान श्रीकृष्ण का ही लीलास्थल है। उसकी तीनों लोकों में प्रसिद्धि है। मेरुपर्वत का जो सूर्य के मार्ग तक पहुँचा हुआ जाम्बूनदमय दिव्य और त्रिभुवन विख्यात उत्तम शिखर है, उसे उखाड़कर भगवान श्रीकृष्ण कठिनाई उठाकर भी अपने महल में ले आये हैं। सब प्रकार की ओषधियों से अलंकृत वह मेरुशिखर द्वाराका में पूर्ववत प्रकाशित है। शत्रुओं को संताप, देने वाले भगवान श्रीकृष्ण जिसे इन्द्र भवन से हर ले आये थे, वह पारिजात वृक्ष भी उन्होंने द्वारका में ही लगा रखा है। भगवान वासुदेव ने ब्रह्मलोक के बड़े-बड़े वृक्षों को भी लाकर द्वारका में लगाया है। साल, ताल, अश्वकर्ण (कनेर), सौ शाखाओं से सुशोभित वटवृक्ष, भल्लातक (भिलावा), कपित्थ (कैथ), चन्द्र (बड़ी इलाचयी के) वृक्ष, चम्पा, खजूर और केतक (केवड़ा)- ये वृक्ष वहाँ सब ओर लगाये गये थे। द्वारका में जो पुष्करिणियाँ और सरोवर हैं, ये कमल पुष्पों से सुशोभित स्वच्छ जल से भरे हुए हैं। उनकी आभा लाल रंग की है। उनमें सुगन्धयुक्त उत्पल खिले हुए हैं। उनमें स्थित बालू के कण मणियों और मोतियों के चूर्ण जैसे जान पड़ते हैं। वहाँ लगाये हुए बड़े-बड़े वृक्ष उन सरोवरों के सुन्दर तटों की शोभा बढ़ाते हैं। जो वृक्ष हिमालय पर उगते हैं तथा जो नन्दनवन में उत्पन्न होते हैं, उन्हें भी यदुप्रवर श्रीकृष्ण ने वहाँ लाकर लगाया है। कोई वृक्ष लाल रंग के हैं, कोई पीत वर्ण के हैं और कोई अरुण कान्ति से सुशोभित हैं तथा बहुत से वृक्ष ऐसे हैं, जिन्में श्वेत रंग के पुष्प शोभा पाते हैं। द्वारका के उपवनों में लगे हुए पूर्वोक्त सभी वृक्ष सम्पूर्ण ऋतुओं के फलों से परिपूर्ण हैं। सहस्रदल कमल, सहस्रों मन्दार, अशोक, कर्णिकार, तिलक, नागमल्लिका, कुरव (कटसरैया), नागपुष्प, चम्पक, तृण, गुल्म, सप्तपर्ण (छितवन), कदम्ब, नीप, कुरबक, केतकी, केसर, हिंताक, तल, ताटक, ताल, प्रियंगु, वकुल (मौलसिरी), पिण्डिका, बीजूर (बिजौरा), दाख, आँवला, खजूर, मुनक्का, जामुन, आम, कटहल, अंकोल, तिल, तिन्दुक, लिकुच (लीची), आमड़ा, क्षीरिका (काकोली नाम की जड़ी या पिंडखजूर), कण्टकी (बेर), नारियल, इंगुद (हिंगोट), उत्क्रोशकवन, कदलीवन, जाति (चमेली), मल्लिक (मेातिया), पाटल, भल्लातक, कपित्थ, तैतभ, बन्धुजीव (दुपहरिया), प्रवाल, अशोक और काश्मरी (गाँभारी), आदि सब प्रकार के प्राचीन वृक्ष, प्रियंगुलता, बेर, जौ, स्पन्दन, चन्दन, शमी, बिल्व, पलाश, पाटला, बड़, पीपल, गूृलर, द्विदल, पालाश, पारिभद्रक, इन्द्रवृक्ष, अर्जुन वृक्ष, अश्वत्थ, चिरिबिल्व, सौभन्चन, भल्लट, अश्व पुष्प, सर्ज, ताम्बूललता, लवंग, सुपरी तथा नाना प्रकार के बाँस ये सब द्वारकापुरी में श्रीकृष्ण भवन के चारों ओर लगाये हैं। नन्दवन में और चैत्ररथवन जो-जो वृक्ष होते हैं, वे सभी युदपति भगवान श्रीकृष्ण ने लाकर यहाँ सब ओर लगाये हैं। भगवान श्रीकृष्ण के गृहोद्यान में कुमुद और कमलों से भरी हुई कितनी ही छोटी बावलियाँ हैं। सहस्रों कुएँ बने हुए हैं। जल से भरी हुई बड़ी-बड़ी वापिकाएँ भी तैयार करायी गयी हैं, जो देखने में पीत वर्ण की है और जिनकी बालुकाएँ लाल हैं।[2] उनके गृहोंद्यान में स्वच्छ जल से भरे हुए कुण्डवाली कितनी ही कृत्रिम नदियाँ प्रवाहित होती रहती हैं, जो प्रफुल्ल उत्पलयुक्त जल से परिपूर्ण है तथा जिनहें दोनों ओर से अनेक प्रकार के वृक्षों ने घेर रखा है। उस भवन के उद्यान की सीमा में मणिमय कंकड् और बालुकाओं से सुशोभित नदियाँ निकाली गयी हैं, जहाँ मतवाले मयूरों के झंड विचरते हैं और मदोन्मत्त कोकिलाएँ कुहू कुहू किया करती हैं। उन गृहोंद्यान में जगत के सभी श्रेष्ठ पर्वत अंशत: संग्रहीत हुए हैं। वहाँ हाथियों के यूथ तथा गाया भैसों के झुंंड रहते है। वहीं जंगली सूअर, मृग और पक्षियों के रहने योज्य निवास स्थान भी बनाये गये हैं। विश्वकर्मा द्वारा निर्मित पर्वत माला ही उस विशाल भवन की चहारदीवारी है। उसकी ऊँचाई सौ हाथ की है और वह चन्द्रमा के समान अपनी श्वेत छटा छिटकाती रहती है। पूर्वोक्त बड़े-बड़े पर्वत, सरिताएँ, सरोवर और प्रासाद के समीपवर्ती वन उपवन इस चहारदीवारी से घिरे हुए हैं।[3]


टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 1.2 1.3 महाभारत सभा पर्व अध्याय 38 भाग 31
  2. महाभारत सभा पर्व अध्याय 38 भाग 32
  3. महाभारत सभा पर्व अध्याय 38 भाग 33

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