- महाभारत सभा पर्व के ‘लोकपाल सभाख्यान पर्व’ के अंतर्गत अध्याय 6 के अनुसार युधिष्ठिर की दिव्य सभाओं के विषय में जिज्ञासा का वर्णन इस प्रकार है[1]-
वैशम्पायन जी कहते हैं - जनमेजय! देवर्षि नारद का यह उपदेश पूर्ण होने पर युधिष्ठिर ने भलीभाँति उनकी पूजा की; तदनन्तर उनसे आज्ञा लेकर उनके प्रश्न का उत्तर दिया। युधिष्ठिर बोले- भगवन! आपने जो यह राजधर्म का यथार्थ सिद्धान्त बताया है, वह सर्वथा न्यायोचित है। मैं आपके इस न्यायानुकूल आदेश का यथाशक्ति पालन करता हूँ। इसमें संदेह नहीं कि प्राचीन काल के राजाओं ने जो कार्य जैसे सम्पन्न किया, वह प्रत्येक न्यायोचित, सकारण और किसी विशेष प्रयोजन से युक्त होता था। प्रभो! हम भी उन्हीं के उत्तम मार्ग से चलना चाहते हैं, परंतु उस प्रकार[2] चल नहीं पाते; जैसे वे नियतात्मा महापुरुष चला करते थे।
वैशम्पायन जी कहते हैं - जनमेजय! ऐसा कहकर धर्मात्मा युधिष्ठिर ने नारद जी के पूर्वोक्त प्रवचन की बड़ी प्रशंसा की। फिर सम्पूर्ण लोकों में विचरने वाले नारद मुनि जब शान्तिपूर्वक बैठ गये, तब दो घड़ी के बाद ठीक अवसर जानकर महातेजस्वी पाण्डु पुत्र राजा युधिष्ठिर भी उन के निकट आ बैठे और सम्पूर्ण राजाओं के बीच वहाँ उनसे इस प्रकार पूछने लगे। युधिष्ठिर ने पूछा- मुनिवर! आप मन के समान वेगशाली हैं, अतः ब्रह्मा जी ने पूर्वकाल में जिनका निर्माण किया है, उन अनेक प्रकार के बहुत-से लोकों का दर्शन करते हुए आप उनमें सदा बेरोक-टोक विचरते रहते हैं। ब्रह्मन! क्या आपने पहले कहीं ऐसी या इससे भी अच्छी कोई सभा देखी है? मैं जानना चाहता हूँ, अतः आप मुझसे यह बात बतावें। वैशम्पायन जी कहते हैं - जनमेजय! धर्मराज युधिष्ठिर का यह प्रश्न सुनकर देवर्षि नारद जी मुस्कराने लगे और उन पाण्डु कुमार को इसका उत्तर देते हुए मधुर वाणी में बोले।
नारद जी ने कहा - तात! भरतवंशी नरेश! मणि एवं रत्नों की बनी हुई जैसी तुम्हारी यह सभा है, ऐसी सभा मैंने मनुष्य लोक में ना तो पहले देखी है और न कानों से ही सुनी है। भरतश्रेष्ठ! यदि तुम्हारा मन दिव्य सभाओं का वर्णन सुनने को उत्सुक हो तो मैं तुम्हें पितृराज यम, बुद्धिमान वरुण, स्वर्गवासी इन्द्र, कैलास निवासी कुबेर तथा ब्रह्मा जी की दिव्य सभा का वर्णन सुनाऊँगा, जहाँ किसी प्रकार का क्लेश नहीं है एवं जो दिव्य और अदिव्य भोगों से सम्पन्न तथा संसार के अनेक रूपों से अलंकृत है। वह देवता, पितृगण, साध्यगण, याजक तथा मन को वश में रखने वाले शान्त मुनिगणों से सेवित है। वहाँ उत्तम दक्षिणाओं से युक्त वैदिक यज्ञों का अनुष्ठान होता है। नारद जी के ऐसा कहने पर भाइयों तथा सम्पूर्ण श्रेष्ठ ब्राह्मणों के साथ महामनस्वी धर्मराज युधिष्ठिर ने हाथ जोड़कर उनसे इस प्रकार कहा - ‘महर्षे! हम सभी दिव्य सभाओं का वर्णन सुनना चाहते हैं। आप उनके विषय में सब बातें बताइये। ‘ब्रह्मन! उन सभाओं का निर्माण किस द्रव्य से हुआ है? उनकी लंबाई-चैड़ाई कितनी है? ब्रह्मा जी की उस दिव्य सभा में कौन-कौन सभासद उन्हें चारों ओर से घेरकर बैठते हैं? ‘इसी प्रकार देवराज इन्द्र, वैवस्वत यम, वरुण तथा कुबेर की सभा में कौन-कौन लोग उनकी उपासना करते हैं? ‘ब्रह्मर्षे! हम सब लोग आपके मुख से ये सब बातें यथोचित रीति से सुनना चाहते हैं। हमारे मन में उसके लिये बड़ा कौतूहल है।’ पाण्डु कुमार युधिष्ठिर के इस प्रकार पूछने पर नारद जी ने उत्तर दिया- राजन! तुम हमसे यहाँ उन सभी दिव्य सभाओं का क्रमशः वर्णन सुनो।’
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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