मय द्वारा निर्मित सभा भवन में युधिष्ठिर का प्रवेश

महाभारत सभा पर्व के ‘सभाक्रिया पर्व’ के अंतर्गत अध्याय 4 के अनुसार मय द्वारा निर्मित सभा भवन में युधिष्ठिर का प्रवेश का वर्णन इस प्रकार है[1]-

वैशम्पायन जी कहते हैं - जनमेजय! उस श्रेष्ठ सभा भवन का निर्माण करके मयासुर ने अर्जुन से कहा। मयासुर बोला - सव्यसाचिन! यह है आपकी सभा, इसमें एक ध्वजा होगी। उसके अग्रभाग में भूतों का महापराक्रमी किंकर नामक गण निवास करेगा। जिस समय तुम्हारे धनुष की टंकार ध्वनि होगी, उस समय उस ध्वनि के साथ ये भूत भी मेघों के समान गर्जना करेंगे। यह जो सूर्य के समान तेजस्वी अग्निदेव का उत्तम रथ है और ये जो श्वेत वर्ण वाले दिव्य एवं बलवान अश्वरत्न हैं तथा यह जो वानरचिह्न से उपलक्षित ध्वज है, इन सबका निर्माण माया से ही हुआ है। यह ध्वज वृक्षों में कहीं अटकता नहीं हैं तथा अग्नि की लपटों के समान सदा ऊपर की ओर ही उठा रहता है। आपका यह वानरचिह्नित ध्वज अनेक रंग का दिखायी देता है। आप युद्ध में उत्कट एवं स्थिर ध्वज को कभी झुकता नहीं देखेंगे। ऐसा कहकर मयासुर ने अर्जुन को हृदय से लगा लिया और उनसे विदा लेकर[2] चला गया।

वैशम्पायन जी कहते हैं - जनमेजय! तदनन्तर राजा युधिष्ठिर ने घी और मधु मिलायी हुई खीर, खिचड़ी, जीवन्तिका के साग, सब प्रकार के हविष्य, भाँति-भाँति के भक्ष्य तथा फल, ईख आदि नाना प्रकार के चोष्य और बहुत अधिक पेय[3] आदि सामग्रियों द्वारा दस हजार ब्राह्मणें को भोजन कराकर उस सभाभवन में प्रवेश किया। उन्होंने नये-नये वस्त्र और छोटे-बडे़ अनेक प्रकार के हार आदि के उपहार देकर अनेक दिशाओं से आये हुए श्रेष्ठ ब्राह्मणों को तृप्त किया। भारत! तत्पश्चात उन्होंने प्रत्येक ब्राह्मण को एक-एक हजार गौएँ दी। उस समय वहाँ ब्राह्मणों के पुण्याहवाचन का गम्भीर घोष मानो स्वर्गलोक तक गूँज उठा। कुरुश्रेष्ठ युधिष्ठिर ने अनेक प्रकार के बाजे तथा भाँति-भाँति के दिव्य सुगन्धित पदार्थों द्वारा उस भवन में देवताओं की स्थापना एवं पूजा की। इसके बाद वे उस भवन में प्रविष्ट हुए। वहाँ धर्मपुत्र महात्मा युधिष्ठिर की सेवा में कितने ही मल्ल[4], नट, झल्ल[5], सूत और वैतालिक उपस्थित हुए। इस प्रकार पूजन का कार्य सम्पन्न करके भाइयों सहित पाण्डुनन्दन युधिष्ठिर स्वर्ग में इन्द्र की भाँति उस रमणीय सभा में आनन्दपूर्वक रहने लगे। उस सभा में ऋषि तथा विभिन्न देशों से आये हुए नरेश पाण्डवों के साथ बैठा करते थे। असित, देवल, सत्य, सर्पिर्माली, महाशिरा, अर्वावसु, सुमित्र, मैत्रेय, शुनक, बलि, बक, दाल्भ्य, स्थूलशिरा, कृष्ण द्वैपायन, शुकदेव, व्यास जी के शिष्य सुमन्तु, जैमिनि, पैल तथा हमलोग, तित्तिर, याज्ञवल्क्य, पुत्र सहित लोमहर्षण, अप्सुहोम्य, धौम्य, अणीमाण्डव्य, कौशिक, दामोष्णीष, त्रैबलि, पर्णाद, घटनाजुक, मौञ्जायन, वायुभक्ष, पाराशर्य, सारिक, बलिवाक, सिनीवाक, सत्यपाल, कृतश्रम, जातूकर्ण, शिखावान, आलम्ब, पारिजातक, महाभाग पर्वत, महामुनि मार्कण्डेय, पवित्रपाणि, सावर्ण, भालुकि, गालव, जंघाबन्धु, रैभ्य, कोपवेग, भृगु, हरिबभ्रु, कौण्डिन्य, बभ्रुमाली, सनातन, काक्षीवान, औशिज, नाचिकेत, गौतम, पैंगय, वराह, शुनक (द्वितीय), महातपस्वी शाणिडल्य, कुक्कुर, वेणुजंघ, कालाप तथा कठ आदि धर्मज्ञ, जितात्मा और जितेन्द्रिय मुनि उस सभा में विराजते थे। ये तथा और भी वेद-वेदांगों के पारंगत बहुत से मुनि श्रेष्ठ उस सभा में महात्मा युधिष्ठिर के पास बैठा करते थे।[1] वे धर्मज्ञ, पवित्रात्मा और निर्मल महर्षि राजा युधिष्ठिर को पवित्र कथाएँ सुनाया करते थे। इसी प्रकार क्षत्रियों में श्रेष्ठ नरेश भी वहाँ धर्मराज युधिष्ठिर की उपासना करते थे। श्रीमान महामना धर्मात्मा मुञ्जकेतु, विवर्धन, संग्रामजित, दुर्मुख, पराक्रमी उग्रसेन, राजा कक्षसेन, अपराजित क्षेमक, कम्बोजराज कमठ और महाबली कम्पन, जो अकेले ही बल-पौरूष सम्पन्न, अस्त्र विद्या के ज्ञाता तथा अमित तेजस्वी यवनों को सदा उसी प्रकार कँपाते रहते थे, जैसे व्रजधारी इन्द्र ने कालकेय नामक असुरों को कम्पित किया था।[6] इनके सिवा जटासुर, मद्रराज शल्य, राजा कुन्तिभोज, किरातराज पुलिन्द, अंगराज, वंगराज, पुण्ड्रक, पाण्ड्य, उड्रराज, आन्ध्रनरेश, अंग, बंग, सुमित्र, शत्रुसूदन शैव्य, किरातराज सुमना, यवननरेश, चाणूर, देवरात, भोज, भीमरथ, कलिंगराज श्रुतायुध, मगधदेशीय जयसेन, सुकर्मा, चेकितान, शत्रुसंहारक पुरु, केतुमान, वसुदान, विदेहराज कृतक्षण, सुधर्मा, अनिरुद्ध, महाबली श्रुतायु, दुर्धर्ष वीर अनूपराज, क्रमजित, सुदर्शन, पुत्रसहित शिशुपाल, करूषराज दन्तवक्त्र, वृष्णिवंशियों के देवस्वरूप दुर्धर्ष राजकुमार, आहुक, विपृथु, गद, सारण, अक्रूर, कृतवर्मा, शिनिपुत्र सत्यक, भीष्मक, आकृति, पराक्रमी द्युमत्सेन, महान धनुर्धर केकय राजकुमार, सोमक-पौत्र द्रुपद, केतुमान[7] तथा अस्त्र विद्या में निपुण महाबली वसुमान - ये तथा और भी बहुत से प्रधान क्षत्रिय उस सभा में कुन्तीनन्दन युधिष्ठिर की सेवा में बैठते थे। जो महाबली राजकुमार अर्जुन के पास रहकर कृष्ण मृगचर्म धारण किये धनुर्वेद की शिक्षा लेते थे[8] राजन! वृष्णिवंश को आनन्दित करने वाले राजकुमारों को वहीं शिक्षा मिली थी। रुक्मिणी नन्दन प्रद्युम्न, जाम्बवती कुमार साम्ब, सत्यक पुत्र[9] युयुधान, सुधर्मा, अनिरुद्ध, नरश्रेष्ठ शैव्य- ये और दूसरे भी बहुत से राजा उस सभा में बैठते थे।

पृथ्वीपते! अर्जुन के सखा तुम्बुरु गन्धर्व भी उस सभा में नित्य विराजमान होते थे। मन्त्री सहित चित्रसेन आदि सत्ताईस गन्धर्व और अप्सराएँ सभा में बैठे हुए महात्मा युधिष्ठिर की उपासना करतीं थी। गाने बजाने में कुशल, साम्य[10] और ताल[11] के विशेषज्ञ तथा प्रमाण, लय और स्थान की जानकारी के लिये विशेष परिश्रम किये हुए मनस्वी किन्नर तुम्बुरु की आज्ञा से वहाँ अन्य गन्धर्वों के साथ दिव्य तान छेड़ते हुए यथोचित रीति से गाते और पाण्डवों तथा महर्षियों का मनोरंजन करते हुए धर्मराज की उपासना करते थे। जैसे देवता लोग दिव्य लोग की सभा में ब्रह्मा जी की उपासना करते हैं, उसी प्रकार कितने ही सत्य प्रतिज्ञ और उत्तम व्रत का पालन करने वाले महापुरुष उस सभा में बैठकर महाराज युधिष्ठिर की आराधना करते थे।[12]

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 महाभारत सभा पर्व अध्याय 4 श्लोक 1-19
  2. अभीष्ट स्थान को
  3. शर्बत
  4. बाहुयुद्ध करने वाले
  5. लकुटियों से युद्ध करने वाले
  6. ये सभी नरेश धर्मराज युधिष्ठिर की उपासना करते रहते थे
  7. द्वितीय
  8. वे सभी उस सभा भवन में बैठकर राजा युधिष्ठिर की उपासना करते थे
  9. सात्यकि
  10. संगीत में नृत्य, गीत और वाद्य की समता को लय अथवा साम्य कहते हैं; जैसाकि अमरकोष का वाक्य है - ‘लयः साम्यम्’।
  11. नृत्य या गीत में उसके काल और क्रिया का परिमाण, जिसे बीच-बीच में हाथ पर हाथ मारकर सूचित करते जाते हैं, ताल कहलाता है; जैसा कि अमरकोष का वचन है -‘तालः कालक्रियामामम्’।
  12. महाभारत सभा पर्व अध्याय 4 श्लोक 20-40

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