महाभारत सभा पर्व के ‘अर्घाभिहरण पर्व’ के अंतर्गत अध्याय 38 के अनुसार भीष्म का शिशुपाल के आक्षेपों का उत्तर देने का वर्णन इस प्रकार है[1]-
विषय सूची
भीष्म जी का युधिष्ठिर को शिशुपाल को रोकने लिए मना करना
भीष्मजी ने कहा- धर्मराज! भगवान श्रीकृष्ण ही सम्पूर्ण जगत में सबसे चढ़कर हैं। वे ही परम पूजनीय हैं। जो उनकी अग्रपूजा स्वीकार नहीं करता है, उसकी अनुनयविनय नहीं करनी चाहिये। वह सान्त्वना देने या समझाने बुझाने के योग्य भी नहीं है। जो योद्धाओं में श्रेष्ठ क्षत्रिय जिसे युद्ध में जीतकर अपने वश में करके छोड़ देता है, वह उस पराजित क्षत्रिय के लिये गुरुतुल्य पूजय हो जाता है। राजाओं के इस समुदाय में एक भी भूपाल ऐसा नहीं दिखायी देता, जो युद्ध में देवकीनन्दन श्रीकृष्ण के तेज से परास्त न हो चुका हो। महाबाहु श्रीकृष्ण केवल हमारे लिये ही परम पूजनीय हों, ऐसी बात नहीं है, ये तीनों लोकों के पूजनीय हैं। श्रीकृष्ण के द्वारा संग्राम में अनेक क्षत्रियशिरोमणी परास्त हुए हैं। यह सम्पूर्ण जगत वृष्णिकुल भूषण भगवान श्रीकृष्ण में ही पूर्णरूप से प्रतिष्ठित हैं। इसीलिये हम दूसरे वृद्ध पुरुषों के होते हुए भी श्रीकृष्ण की ही पूजा करते हैं, दूसरों की नहीं। राजन! तुम्हें श्रीकृष्ण के प्रति वैसी बातें मुँह से नही निकालनी चाहिये थीं। उनके प्रति तुम्हें ऐसी बुद्धि नहीं रखनी चाहिये। मैंने बहत से ज्ञानवृद्ध महात्माओं का संग किया है। अपने यहाँ पधारे हुए उन संतों के मुख से अनन्तगुणशाली भगवान श्रीकृष्ण के असंख्य बहुसम्मत गुणों का वर्णन सुना है।[1]
भीष्म द्वारा श्रीकृष्ण का व्यावहारिक वर्णन
जन्मकाल से लेकर अब तक इन बुद्धिमान श्रीकृष्ण के जो जो चरित्र बहुधा बहुतेरे मनुष्यों द्वारा कहे गये हैं, उन सबको मैंने बार बार सुना है। चेदिराज! हम लोग किसी कामना से, अपना सम्बन्धी मानकर अथवा इन्होंने हमारा किसी प्रकार का उपकार किया है, इस दृष्टि से श्रीकृष्ण की पूजा नही कर रहे हैं। हमारी दृष्टि तो यह है कि ये इस भूमण्डल के सभी प्राणियों को सुख पहुँचाने वाले हैं और बड़े-बड़े संत महात्माओं ने इनकी पूजा की है। हम इनके यश, शौर्य ओर विजय को भली-भाँति जान कर इनकी पूजा कर रहे हैं। यहाँ बैठे हुए लोगों में से कोई छोटा सा बालक भी ऐसा नहीं है, जिसके गुणों की हम लोगों ने पूर्णत: परीक्षा न की हो। श्रीकृष्ण के गुणों को ही दृष्टि में रखते हुए हमने वयोवृद्ध पुरुषों का उल्लंखन करके इन को ही परम पूजनीय माना है। ब्राह्मणों में वही पूजनीय समझा जाता है, जो ज्ञान में बड़ा हो तथा क्षत्रियों में वही पूजा के योग्य है, जो बल में सबसे अधिक हो।[1]
वैश्यों में वही सर्वमान्य है, जो धन धान्य में बढ़कर हो, केवल शूद्रों में ही जन्म काल को ध्यान में रखकर जो अवस्था में बड़ा हो, उसको पूजनीय माना जाताहै। श्रीकृष्ण के परम पूजनीय होने में दोनों ही कारण विद्यमान हैं। इनमें वेद वेदांगों का ज्ञान तो है ही, बल भी सबसे अधिक हैं। श्रीकृष्ण के सिवा संसार के मनुष्यों में दूसरा कौन सबसे बढ़कर है? दान, दक्षता, शास्त्रज्ञान, शौर्य, लज्जा, कीर्ति, उत्तम बुद्धि, विनय, श्री, धृति, तुष्टि और पुष्टि- ये सभी सद्गुण भगवान श्रीकृष्ण में नित्य विद्यमान हैं। जो अर्ध्य पाने के सर्वथा योग्य और पूजनीय है, उन सकल गुण सम्पन्न, श्रेष्ठ, पिता और गुरु भगवान श्रीकृष्ण की हम लोगों ने पूजा की है, अत: सब राजा लोग इसके लिये हमें क्षमा करें। श्रीकृष्ण हमारे ऋत्विक, गुरु, आचार्य, स्नातक, राजा और प्रिय मित्र सब कुछ हैं। इसलिये हमने इनकी अग्रपूजा की है। भगवान श्रीकृष्ण ही सम्पूर्ण जगत की उत्पत्ति और प्रलय के स्थान हैं। यह सारा चराचर विव इन्हीं के लिये प्रकट हुआ है। ये ही अव्यक्त प्रकृति, सनातन कर्ता तथा सम्पूर्ण भूतों से परे हैं, अत: भगवान अच्युत ही सबसे बढ़कर पूजनीय हैं। महतत्त्व, अहंकार, मनसहित ग्यारह इन्द्रियाँ, आकाश, वायु, तेज, जल, पृथ्वी तथा जरायुज, अण्डज, स्वेदज और उद्भिज्ज- ये चार प्रकार के प्राणी भगवान श्रीकृष्ण में ही प्रतिष्ठित हैं। सूर्य, चन्द्रमा, नक्षत्र, ग्रह, दिशा और विदिशा सब उन्हीं में स्थित हैं। जैसे वेदों में अग्निहोत्र कर्म, छन्दों में गायत्री, मनुष्यों में राजा, नदियों (जलाशयों) में समुद्र, नक्षत्रों में चन्द्रमा, तेजोमय पदार्थो में सूर्य, पर्वतों में मेरु और पक्षियों में गरुड़ श्रेष्ठ हैं, उसी प्रकार देवलोक सहित सम्पूर्ण लोकों में ऊपर-नीचे, दाँयें-बाँयें, जितने भी जगत के आश्रय हैं, उन सब में भगवान श्रीकृष्ण ही श्रेष्ठ हैं। [2]
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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