श्रीकृष्ण द्वारा अर्जुन की बात का अनुमोदन

महाभारत सभा पर्व के ‘राजसूयारम्भ पर्व’ के अंतर्गत अध्याय 15 के अनुसार जरासंध पर जीत के विषय में युधिष्ठिर के उत्साह की कथा का वर्णन इस प्रकार है[1]-

कृष्ण द्वारा अर्जुन की प्रशंसा

भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा- राजन्! भरतवंश में उत्पन्न पुरुष और कुन्ती -जैसी माता के पुत्र की जैसी बुद्धि होनी चाहिये, अर्जुन ने यहाँ उसी का परिचय दिया है। महाराज! हम लोग यह नहीं जानते कि मौत कब आयेगी ? रात में आयेगी या दिन में ? (क्योंकि उस के नियत समय का ज्ञान किसी को नहीं है। ) हमने यह भी नहीं सुना है कि युद्ध न करने के कारण कोई अमर हो गया हो। अतः वीर पुरुषों का इतना ही कर्तव्य है कि वे अपने हृदय के संतोष लिये नीतिशास्त्र में बतायी हुई नीति के अनुसार शत्रुओं पर आक्रमण करें। दैव आदि की प्रतिकूलता से रहित अच्छी नीति एवं सलाह प्राप्त होने पर आरम्भ किया हुआ कार्य पूर्ण रूप से सफल होता है। शत्रु के साथ भिड़ने पर ही दोनों पक्षों का अन्तर ज्ञात होता है। दोनों दल सभी बातों में समान ही हों, ऐसा सम्भव नहीं। जिसने अच्छी नीति नहीं अपनायी है और उत्तम उपाय से काम नहीं लिया है, उस का युद्ध में सर्वथा विनाश होता है। यदि दोनों पक्षों में समानता हो, तो संशय ही रहता है तथा दोनों में से किसी की भी जय अथवा पराजय नहीं होती। जब हम लोग नीति का आश्रय लेकर शत्रु के शरीर के निकट तक पहुँच जायँगे, तब जैसे नदी का वेग किनारे के वृक्ष को नष्ट कर देता है, उसी प्रकार हम शत्रु का अन्‍त क्‍यों न कर डालेंगे ? हम अपने छिद्रों को छिपाये रखकर शत्रु के छिद्र को देखेंगे और अवसर मिलते ही उस पर बलपूर्वक आक्रमण कर देंगे। जिन की सेनाएँ मोर्चा बाँधकर खड़ी हों और जो अत्यन्त बलवान् हों, ऐसे शत्रुओं के साथ (सम्मुख होकर) युद्ध नहीं करना चाहिये; यह बुद्धिमानों की नीति है। यही नीति यहाँ मुझे भी अच्छी लगती है। यदि हम छिपे-छिपे शत्रु के घर तक पहुँच जायँ तो यह हमारे लिये कोई निन्दा की बात नहीं होगी। फिर हम शत्रु के शरीर पर आक्रमण करके अपना काम बना लेंगे। यह पुरुषों में श्रेष्ठ जरासंध प्राणियों के भीतर स्थित आत्मा की भाँति सदा अकेला ही साम्राज्य लक्ष्मी का उपभोग करता है ; अतः उस का और किसी उपाय से नाश होता नहीं दिखायी देता (उसके विनाश के लिये हमें स्वंय प्रयन्न करना होगा)। अथवा यदि जरासंध को युद्ध में मारकर उसके पक्ष में रहने वाले शेष सैनिकों द्वारा हम भी मारे गये, तो भी हमें कोई हानि नहीं है। अपने जाति भाइयों की रक्षा में संलग्न होने के कारण हमें स्वर्ग की ही प्राप्ति होगी।[1]


टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 महाभारत सभा पर्व अध्याय 17 श्लोक 1-12

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