जरासंध का श्रीकृष्ण के साथ वैर का वर्णन

महाभारत सभा पर्व के ‘जरासंध वध पर्व’ के अंतर्गत अध्याय 22 के अनुसार जरासंध का श्रीकृष्ण के साथ वैर का वर्णन इस प्रकार है[1]-

श्रीकृष्ण और जरासंध की आपसी शत्रुता का कारण

जनमेजय ने पूछा- मुने! भगवान् श्रीकृष्ण और मगधराज जरासंध दोनों एक दूसरे के शत्रु क्‍यों हो गये थे ? तथा यदुकुलतिलक श्रीकृष्ण को युद्ध में कैसे परास्त किया ? कंस मगधराज जरासंध का कौन था, जिसके लिये उसने भगवान् से वैर ठान लिया। वैशम्पायन जी! ये सब बातें मुझे यथार्थ रूप से बताइये।[1]

कंस द्वारा अपने पिता को कैद करना

वैशम्पायन जी ने कहा- राजन्! यदुकुल में परम बुद्धिमान् वसुदेव उत्पन्न हुए, जो वृष्णिवंश के राजकुमार तथा राजा उग्रसेन के विश्वसनीय मन्त्री थे।। उग्रसेन का पुत्र बलवान् कंस हुआ, जो उनके अनेक पुत्रों में सबसे बड़ा था। कुरुनन्दन! कंस ने सम्पूर्ण अस्त्र-शस्त्रों की विद्या में निपुणता प्राप्त की थी। जरासंध की पुत्री उसकी सुप्रसिद्ध पत्नी थी, जिसे बुद्धिमान् जरासंध ने इस शर्त के साथ दिया था कि इस के पति को तत्काल राजा के पद पर अभिषिक्त किया जाय।। इस शुक्ल की पूर्ति के लिये उग्रसेन के उस दुःसह पराक्रमी पुत्र को मन्त्रियों ने मथुरा के राज्य पर अभिषिक्त कर दिया।। तब ऐश्वर्य के बल से उन्मत्त और शारीरिक शक्ति से मोहित हो कंस अपने पिता को कैद करके मन्त्रियों के साथ उनका राज्य भोगने लगा।। मन्दबुद्धि कंस वसुदेव के कर्तव्य-विषयक उपदेश को नहीं सुनता था, तो भी उसके साथ रहकर वसुदेव जी मथुरा के राज्य का धर्मपूर्वक पालन करने लगे।[1]

आकाशवाणी का होना

दैत्यराज कंस ने अत्यन्त प्रसन्न होकर वसुदेव जी के साथ देवकी का ब्याह कर दिया, जो उग्रसेन के भाई देवक की पुत्री थी।। जनमेजय! जब रथ पर बैठकर देवकी विदा होने लगी, तब राजा कंस भी उसे पहुँचाने के लिये वृष्णि वंशविभूषण वसुदेव के पास उस रथ पर जा बैठा।। इसी समय आकाश में किसी देवदूत की वाणी स्पष्ट सुनायी देने लगी। वसुदेव जी ने तो उसे सुना ही, राजा कंस ने भी सुना। देवदूत कह रहा था- ‘कंस! आज तू जिस देवकी को रथ पर बिठाकर लिये जा रहा है, उसका आठवाँ गर्भ तेरी मृत्यु का कारण होगा’।। यह आकाशवाणी सुनते ही अत्यन्त खोटी बुद्धिवाले राजा कंस ने म्यान से चमचमाती हुई तलवार खींच ली और देवकी का सिर काट लेने का विचार किया।[2]

वसुदेव का कंस को समझाना

राजन् उस समय परम बुद्धिमान् वसुदेव जी हँसते हुए क्रोध के वशीभूत हुए कंस को सान्त्वना दे उसकी अनुनय विनय करने लगे-। ‘पृथ्वी पते! प्रायः सभी धर्मों में नारी को अवध्य बताया गया है। क्या तुम इस निर्बल एवं निरपराध नारी को सहसा मार डालोगे ? ‘राजन्! इससे जो तुम्हें भय प्राप्त होने वाला है, उसका तो तुम निवारण कर सकते हो। तुम्हें इसकी रक्षा करनी चाहिये औैर मुझे इसकी प्राणरक्षा के लिये जो शर्त निश्चत हो, उसका पालन करना चाहिये।। ‘राजन् इसके आठवें गर्भ को तुम पैदा होते ही नष्ट कर देना। इस प्रकार तुम पर आयी हुई विपत्ति टल सकती है’।। भरतनन्दन! वसुदेव जी के ऐसा कहने पर शूरसेन देश के राजा कंस ने उनकी बात मान ली।[2]

कंस द्वारा देवकी के पुत्रों की हत्या

तदनन्तर देवकी के गर्भ से सूर्य के समान तेजस्वी अनेक कुमार क्रमशः उत्पन्न हुए। मथुरा नरेश कंस ने जन्म लेते ही उन सब को मार डालता था।। तदनन्तर देवकी के उदर में सातवें गर्भ के रूप में बलदेव का आगमन हुआ। राजन्! यमराज ने यमसम्बन्धिनी माया के द्वारा उस अनुपम गर्भ को देवकी के उदर से निकालकर रोहिणी की कुक्षि में स्थापित कर दिया। आकर्षण होने के कारण उस बालक का नाम संकर्षण हुआ। बल में प्रधान होने से उसका नाम बलदेव हुआ।[2]

देवकी के आठवें पुत्र को मथुरा पहुँचाना

तत्पश्चात् देवकी के उदर में आठवें गर्भ के रूप में साक्षात् भगवान् मधुसूदन का आविर्भाव हुआ। राजा कंस ने बड़े यत्न से उस गर्भ की रक्षा की।। तदनन्तर प्रसवकाल आने पर सात्वत वंशी वसुदेव पर कड़ी नजर रखने के लिये कंस ने उग्र स्वभाव वाले अपने क्रूरकर्मा मन्त्री को नियुक्त किया। परंतु बालस्वरूप श्रीकृष्ण के प्रभाव से रक्षकों के निद्रा से मोहित हो जाने पर वहाँ से उठकर महातेजरूवी वसुदेव जी बालक के साथ ब्रज में चले गये।[2]

वसुदेव द्वारा कंस को पुत्री देना

नवजात वासुदेव को मथुरा से हटाकर पिता वसुदेव ने उसके बदले किसी गोप की पुत्री को लाकर कंस को भेंट कर दिया।। देवदूत के कहे हुए पूर्वोक्त शब्द का स्मरण करके उसके भय से छूटने की इच्छा रखने वाले कंस ने उस कन्या को भी पृथ्वी पर दे मारा। परंतु वह कन्या उसके हाथ से छूटकर हँसती और आर्य शब्द उच्चारण करती हुई वहाँ से चली गयी। इसीलिये उसका नाम ‘आर्या’ हुआ।। परम बुद्धिमान् वसुदेव ने इस प्रकार राजा कंस को चकमा देकर गोकुल में अपने महात्मा पुत्र वासुदेव का पालन कराया। वासुदेव भी पानी में कमल की भाँति गोपों में रहकर बड़े हुए। काठ में छिपी हुई अग्नि की भाँति वे अज्ञात भाव से वहाँ रहने लगे। कंस को उनका पता न चला।[2]

कंस का अत्याचार

मथुरा नरेश कंस उन सब गोपों को बहुत सताया करता था। इधर महाबाहु श्रीकृष्ण बड़े होकर तेज और बल से सम्पन्न हो गये।[2] राजा के सताये हुए गोपगण भय तथा कामना से झुंड-के-झुंड एकत्र हो कमलनयन भगवान् श्रीकृष्ण को घेरकर संगठित होने लगे।[3]

श्रीकृष्ण द्वारा कंस वध

राजन्! इस प्रकार बल का संग्रह करके महाबली वसुदेव नन्दन श्रीकृष्ण ने उग्रसेन की सम्मति के अनुसार समस्त भाइयों सहित भोजराज कंस को मारकर पुनः उग्रसेन को ही मथुरा के राज्य पर अभिषिक्त कर दिया।। राजन्! जरासंध ने जब यह सुना कि श्रीकृष्ण ने कंस को युद्ध में मार डाला है, तब उसने कंस के पुत्र को शूरसेन का राजा बनाया।। जनमेजय! उसने बड़ी भारी सेना लेकर आक्रमण किया और वसुदेव नन्दन श्रीकृष्ण को हराकर अपनी पुत्री के पुत्र को वहाँ राज्य पर अभिषिक्त कर दिया।[3]

जरासंध का कृष्ण से कंस के वध के कारण बैर होना

जनमेजय! प्रतापी जरासंध महान् बल और सैनिक शक्ति से सम्पन्न था। वह उग्रसेन तथा वृष्णिवंश को सदा क्लेश पहुँचाया करता था। कुरुनन्दन! जरासंध और श्रीकृष्ण के वैर का यही वृत्तान्त है। राजेन्द्र! समृद्धिशाली जरासंध कृत्तिवासा और व्यम्बक नामों से प्रसिद्ध देवश्रेष्ठ महादेवजी को भूमण्डल के राजाओं की बलि देकर उनका यजन करना चाहता था और इसी मनोवांछित प्रयोजन की सिद्धि के लिये उसने अपने जीते हुए समस्त राजाओं को कैद में डाल रखा था। भरत श्रेष्ठ! यह सब वृत्तान्त तुम्हें यथावत् बताया गया। अब जिस प्रकार भीमसेन ने राजा जरासंध का वध किया वह प्रसंग सुनो।[3]

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 1.2 महाभारत सभा पर्व अध्याय 22 भाग-3
  2. 2.0 2.1 2.2 2.3 2.4 2.5 महाभारत सभा पर्व अध्याय 22 भाग-4
  3. 3.0 3.1 3.2 महाभारत सभा पर्व अध्याय 22 भाग-5

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