महाभारत सभा पर्व के ‘अर्घाभिहरण पर्व’ के अंतर्गत अध्याय 38 के अनुसार श्रीकृष्ण और बलराम का द्वारका में प्रवेश का वर्णन इस प्रकार है[1]-
विषय सूची
श्रीकृष्ण और बलराम का द्वाराका में अभिनन्दन
इस प्रकार शिल्पियों में श्रेष्ठ विश्वकर्मा द्वारा बनाये हुए द्वारका नगर में प्रवेश करते समय भगवान श्रीकृष्ण ने बांर बार सब ओर दृष्टिपात किया। देवताओं के साथ श्रीमान् इन्द्र ने वहाँ द्वारका को सब ओर दृष्टि दौड़ाते हुए देखा। इस प्रकार उपेन्द्र (श्रीकृष्ण), बलराम तथा महायशस्वी इन्द्र इन तीनों श्रेष्ठ महापुरुषों ने द्वारकापुरी की शोभा देखी। तदनन्तर गरुड के ऊपर बैठे हुए भगवान श्रीकृष्ण ने प्रसन्नतापर्वूक श्वेत वर्ण वाले अपने उस पांचजन्य शंख को बजाया, जो शत्रुओं के रोंगटे खड़े कर देने वाला है। उस घोर शंकध्वनि से समुद्र विक्षुब्ध हो उठा तथा सारा आकशमण्डल गूँजने लगा। उस समय वहाँ यह अद्भुत बात हुई। पांचजन्य का गम्भीर घोस सुनकर और गरुड़ का दर्शन कर कुकुर और अन्धकवंशी यादव शोक रहित हो गये। भगवान श्रीकृष्ण के हाथों में शंख, चक्र और गदा आदि आयुध सुशोभित थे। वे गरुड के ऊपर बैठे थे। उनका तेज सूर्योदय के समान नूतन चेतना और उत्साह पैदा करने वाला था। उन्हें देखकर सबको बड़ा हर्ष हुआ। तदनन्तर तुरही और भेरियाँ बज उठीं। समस्त पुरवासी भी सिंहनाद कर उठे। उस समय दशार्ह, कुकुर और अन्धकवंश के सब लोग भगवान मधूसूदन का दर्शन करके बड़े प्रसन्न हुए और सभी उनकी अगवानी के लिये आ गये। राज उग्रसेन भगवान वासुदेव को आगे करके वेणुनाद और शंखध्वनि के साथ उनके महल तक उन्हें पहुँचाने के लिये गये। देवकी, रोहिणी तथा उग्रसेन की स्त्रियाँ अपने-अपने महलों में भगवान श्रीकृष्ण का अभिनन्दन करने के लिये यथा स्थान खड़ी थीं। पास आने पर उन सबने उनका यथावत सत्कार किया। वे आशीर्वाद देती हुई इस प्रकार बोलीं- ‘समस्त ब्राह्मण द्वेषी असुर मारे गये, अन्धक और वृष्णिवंश के वीर सर्वत्र विजयी हो रहे हैं।’ स्त्रियों ने भगवान मधुसूदन से ऐसा कहकर उनकी ओर देखा। तदनन्तर श्रीकृष्ण गरुड के द्वारा ही अपने महल में गये। वहाँ उन परमेश्वर ने एक उपयुक्त स्थान में मणिपर्वत को स्थापित कर दिया। इसके बाद कमलनयन मधुसूदन ने सभा भवन में धन और रत्नों को रखकर मन ही मन पिता के दर्शन की अभिलाषा की। फिर विशाल एवं कुछ लाल नेत्रों वाले उन महायशस्वी महाबाहु ने पहले मन ही मन गुरु सान्दीपनि के चरणों का स्पर्श किया।[1]
श्रीकृष्ण का लाये हुए धन को यदुवंशीयों को बाँटना
तत्पश्चात भाई बलरामजी के साथ जाकर श्रीकृष्ण ने प्रसन्नतापूर्वक पिता के चरणों में प्रणाम किया। उस समय पिता वसुदेव के नेत्रों में प्रेम के आँसू भर गये और उनका हृदय आनन्द के समुद्र में निमग्न हो गया। अन्धक और वृष्णिवंश के सब लोगों ने बलराम और श्रीकृष्ण को हृदय से लगाया। भगवान श्रीकृष्ण ने रत्न और धन की उस राशि को एकत्र करके अलग-अलग बाँट दिया और सम्पूर्ण वृष्णिवंशयों से कहा- ‘यह सब आप लोग ग्रहण करें’। तदनन्तर यदुनन्दन श्रीकृष्ण ने यदुवंशियों में जो श्रेष्ठ पुरुष थे, उन सबसे क्रमश: मिलकर सब यादवों को नाम ले लेकर बुलाया और उन सबको वे सभी रत्नमय धन पृथक-पृथक बाँट दिये। जैसे पर्वत की कन्दरा सिंहों से सुशोभित होती है, उसी प्रकार द्वारकापुरी उस समय भगवान श्रीकृष्ण, देवराज इन्द्र तथा वृष्णिवंशी वीर पुरुषसिंहों से अत्यन्त शोभा पा रही थी। जब सभी यदुवंशी अपने-अपने आसनों पर बैठे गये, उस समय देवताओं के स्वामी महायशस्वी महेन्द्र अपनी कल्याणमयी वाणी द्वारा कुुकुर और अन्धक आदि यादवों तथा राजा उग्रसेन का हर्ष बढ़ाते हुए बोले। इन्द्र ने कहा- यदुवंशी वीरो! परमात्मा श्रीकृष्ण का मनुष्य योनि में जिस उद्देश्य को लेकर अवतार हुआ है और भगवान वासुदेव ने इस सयम जो महान पुरुषार्थ किया है, वह सब मैं संक्षेप में बताऊँगा। शत्रुओं का दमन करने वाले कमल नयन श्रीहरि ने एक लाख दानवों का संहार करके उस पाताल विवर में प्रवेश किया था, जहाँ पहले के प्रह्लाद, बलि और शम्बर आदि दैत्य भी नहीं पहुँच सके थे। भगवान आप लोगों के लिये यह धन वहीं से लाये हैं। बुद्धिमान श्रीकृध ने पाश सहित मुर नामक दैत्य को कुचलकर पंचजन नाम वाले रासक्षों का विनाश किया और शिला समूहों को लाँघकर सेवक गणों सहित निशुम्भ को मौत के घाट उतार दिया। तत्पश्चात इन्होंने बलवान एवं पराक्रमी दानव हयग्रीव पर आक्रमण करके उसे मार गिराया ओर भौमासुर का भी युद्ध में संहार कर डाला। इसके बाद केशव ने माता आदिति के कुण्डल प्राप्त करके उन्हें यथा स्थान पहुँचाया और स्वर्ग लोक तथा देवताओं में अपने महान् यश का विस्तार किया। अन्धक और वृष्णिवंश के लोक श्रीकृष्ण के बाहुबल का आश्रय लेकर शोक, भय और बाधाओं से मुक्त हैं। अब ये सभी नाना प्रकार के यज्ञों तथा सोमरस द्वारा भगवान का यजन करें। अब पुन: बाणासुर के वध का अवसर उपस्थित होने पर मैं तथा सब देवता, वसु और साध्यगण मधुसूदन श्रीकृष्ण की सेवा में उपस्थित होंगे। भीष्म कहते हैं- युधिष्ठिर! समस्त कुकुर और अन्धकवंश के लोगों से ऐसा कहकर सबसे विदा ले देवराज इन्द्र ने बलराम, श्रीकृष्ण और वसुदेव को हृदय से लगाया। प्रद्युम्न, साम्ब, निशठ, अनिरुद्ध, सारण, बभ्रु, झल्लि, गद, भानु, चारुदेष्ण, सारण और अक्रूर का भी सत्कार करके वृत्रासुर निषूदन इन्द्र ने पुन: सात्यकि से वार्तालाप किया। इसके बाद वृष्धि और कुकुरवंश के अधिपति राजा उग्रसेन को गले लगाया। तत्पश्चात भोज, कृतवर्मा तथा अन्य अन्धकवंशी एवं वृष्णिवंशियों का आलिंगन करके देवराज ने अपने छोटे भाई श्रीकृष्ण से विदा ली।[2]-
इन्द्र का श्रीकृष्ण से विदा लेकर इन्द्रलोक जाना
तदनन्तर शचीपति भगवान इन्द्र सब प्राणियों के देखते-देखते श्वेतपर्वत के समान सुशोभित ऐरावत हाथी पर आरुढ़ हुए। वह श्रेष्ठ गजराज अपनी गम्भीर गर्जना से पृथ्वी, अन्तरिक्ष और स्वर्गलोक को बारंबार निनादित सा कर रहा था।[2] उसकी पीठ पर सोने के खंभों से युक्त बहुत बड़ाहौदा कसा हुआ था। उसके दाँतों में सोना मढ़ा गया था। उसके ऊपर मनोहर झूल पड़ी हुई थी। वह सब प्रकार के रत्नमय आभूषित था। सैकड़ों रत्नों से अलंकृत पताकाएँ उसकी शोभा बढ़ा रही थीं। उसके मस्तक से निरन्तर मद की धारा इस प्रकार बहती रहती थी, मानो मेघ पानी बरसा रहा हो। वह विशालकाय दिग्गज सेाने की माला धारण किये हुए था। उस पर बैठे हुए देवराज इन्द्र मन्दराचल के शिखर पर तपते हुए सूर्यदेव की भाँति अद्भासित हो रहे थे। तदननतर शचीपति इन्द्र वज्रमय भंयकर एवं विशाल अंकुश लेकर बलवान अग्रिदेव के साथ स्वर्ग लोक को चल दिये। उनके पीछे हाथि-हथिनियों के समुदायों और विमानों द्वारा मरुद्गण, कुबेर तथा वरुण आदि देतवा भी प्रसन्नतापूर्वक चल पड़े। इन्द्र देव पहले वायुपथ में पहुँचकर वैश्वानरपथ (तेजोमय लोक) में जा पहुँचे। तत्पपश्चात सूर्य देव के मार्ग में जाकर वहाँ अन्तर्धान हो गये।[3]-
श्रीकृष्ण की रानियों व माता का उनसे मिलनें के लिए उत्सुक होना
तदननतर सब दशार्हकुल की स्त्रियाँ, राजा उग्रसेन की रानियाँ, नन्दगोप की विश्वविख्यात रानी यशोदा, महाभागा रेवती (बलभद्र पत्नी) तथा पतिव्रता रुक्मिणी, सत्या, जाम्बवती, गान्धारराज कन्या शिंशुमा, विशोका, लक्ष्मणा, साध्वी सुमित्रा, केतुमा तथा भगवान वासुदेव की अन्य रानियाँ ये सब की सब श्रीजी के साथ भगवान केशव की विभूति एवं नवागत सुन्दरी रानियों को दखेन के लिये और श्रीअच्युत का दर्शन करने के लिये बड़ी प्रसन्नता के साथ सभा भवन में गयीं। देवकी तथा रोहिणीजी सब रानियों के आगे चल रही थीं। सबने वहाँ जाकर श्रीबलरामजी के साथ बैठे हुए श्रीकृष्ण को देखा। उन दोनों भाई बलराम और श्रीकृष्ण ने उठकर पहले रोहिणी जी को प्रणाम किया। फिर देवकी जी की तथा सात देवियों में से श्रेष्ठता के क्रम से अन्य सभी माताओं की चरण वन्दना की। बलराम सहित भगवान उपेन्द्र ने जब इस प्रकार मातृ चरणों में प्रणाम किया, तब वृष्णिकुल की महिलाओं में अग्रणी माता देवकीजी ने एक श्रेष्ठ आसन पर बैठकर बलराम और श्रीकृष्ण दोनों को गोद में ले लिया। वृषभ के सह्श विशाल नेत्रों वाले उन दोनों पुत्रों के साथ उस समय माता देवकी की वैसी ही शोभा हुई, जैसी मित्र और वरुण के साथ देवमाता अदिति की होती है। इसी समय यशोदा जी को पुत्री क्षणभर में वहाँ आ पहुँची। भारत! उसके श्रीअंग दिव्य प्रभा से प्रज्वति से हो रहे थे। उस कामरूपिणी कन्या का नाम था ‘एकानंगा’। जिसके निमित्त से पुरुषोंत्तम श्रीकृष्ण ने सेवकों सहित कंस का वध किया था। तब भगवान बलराम ने आगे बढ़कर उस मानिनी बहिन को बायें हाथ से पकड़ लिया और वात्सल्य स्नेह से उसका मस्तक सूँघा। तदनन्तर श्रीकृष्ण ने भी उस कन्या को दाहिने हाथ से पकड़ लिया। लोगों ने उस सभा में बलराम और श्रीकृष्ण की इस बहिन को देखा, मानो दो श्रेष्ठ गजराजों के बीच में सवुर्णमय कमल के आसन पर विराजमान भगवती लक्ष्मी हों। तत्पश्चात वृष्णिवंशी पुरुषों ने प्रसन्न होकर बलराम और श्रीकृष्ण पर लाजा (खील), फूल और घीसे युक्त अक्षत की वर्षा की। उस समय बालक, वृद्ध, ज्ञाति, कुल और बन्ध- बान्धवों सहित समस्त वृष्णिवंशी प्रसन्नतापूर्वक भगवान मधुसूदन के समीप बैठ गये। इसके बाद पुरवासियों की प्रीति बढ़ाने वाले पुरुषसिंह महाबाहु मधुसूदन ने सबसे पूजित हो अपने महल में प्रवेश किया।[3] वहाँ सदा प्रसन्न रहने वाले श्रीकृष्ण रुक्मिणी देवी के साथ बड़े सुख का अनुभव करने लगे। भारत! तत्पश्चात सदा लीला विहार करने वाले यदुश्रेष्ठ श्रीकृष्ण क्रमश: सत्यभामा तथा जाम्बवती आदि सभी देवियों के निवास स्थानों में गये। तात! महाबाहु युधिष्ठिर! शांर्ग नामक धनुष धारण करने वाले भगवान श्रीकृष्ण की यह विजय गाथा कही गयी है। इसकी के लिये महात्मा श्रीकृष्ण का मनुष्यों में अवतार हुआ बताया जाता है।[4]
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 1.0 1.1 महाभारत सभा पर्व अध्याय 38 भाग 33
- ↑ 2.0 2.1 महाभारत सभा पर्व अध्याय 38 भाग 34
- ↑ 3.0 3.1 महाभारत सभा पर्व अध्याय 38 भाग 35
- ↑ महाभारत सभा पर्व अध्याय 38 भाग 36
संबंधित लेख
महाभारत सभा पर्व में उल्लेखित कथाएँ
सभाक्रिया पर्व
श्रीकृष्ण की आज्ञानुसार मयासुर द्वारा सभा भवन निर्माण
| श्रीकृष्ण की द्वारका यात्रा
| मयासुर का भीम-अर्जुन को गदा और शंख देना
| मय द्वारा निर्मित सभा भवन में युधिष्ठिर का प्रवेश
लोकपाल सभाख्यान पर्व
नारद का युधिष्ठिर को प्रश्न रूप में शिक्षा देना
| युधिष्ठिर की दिव्य सभाओं के विषय में जिज्ञासा
| इन्द्र सभा का वर्णन
| यमराज की सभा का वर्णन
| वरुण की सभा का वर्णन
| कुबेर की सभा का वर्णन
| ब्रह्माजी की सभा का वर्णन
| राजा हरिश्चंद्र का माहात्म्य
राजसूयारम्भ पर्व
युधिष्ठिर का राजसूयविषयक संकल्प
| श्रीकृष्ण की राजसूय यज्ञ की सम्मति
| जरासंध के विषय में युधिष्ठिर, भीम और श्रीकृष्ण की बातचीत
| जरासंध पर जीत के विषय में युधिष्ठिर का उत्साहहीन होना
| श्रीकृष्ण द्वारा अर्जुन की बात का अनुमोदन
| युधिष्ठिर को जरासंध की उत्पत्ति का प्रसंग सुनाना
| जरा राक्षसी का अपना परिचय देना
| चण्डकौशिक द्वारा जरासंध का भविष्य कथन
जरासंध वध पर्व
श्रीकृष्ण, अर्जुन और भीम की मगध यात्रा
| श्रीकृष्ण द्वारा मगध की राजधानी की प्रशंसा
| श्रीकृष्ण और जरासंध का संवाद
| जरासंध की युद्ध के लिए तैयारी
| जरासंध का श्रीकृष्ण के साथ वैर का वर्णन
| भीम और जरासंध का भीषण युद्ध
| भीम द्वारा जरासंध का वध
| जरासंध द्वारा बंदी राजाओं की मुक्ति
दिग्विजय पर्व
पाण्डवों की दिग्विजय के लिए यात्रा
| अर्जुन द्वारा अनेक राजाओं तथा भगदत्त की पराजय
| अर्जुन का अनेक पर्वतीय देशों पर विजय पाना
| किम्पुरुष, हाटक, उत्तरकुरु पर अर्जुन की विजय
| भीम का पूर्व दिशा में जीतने के लिए प्रस्थान
| भीम का अनेक राजाओं से भारी धन-सम्पति जीतकर इन्द्रप्रस्थ लौटना
| सहदेव द्वारा दक्षिण दिशा की विजय
| नकुल द्वारा पश्चिम दिशा की विजय
राजसूय पर्व
श्रीकृष्ण की आज्ञा से युधिष्ठिर का राजसूय यज्ञ की दीक्षा लेना
| राजसूय यज्ञ में राजाओं, कौरवों तथा यादवों का आगमन
| राजसूय यज्ञ का वर्णन
अर्घाभिहरण पर्व
राजसूय यज्ञ में ब्राह्मणों तथा राजाओं का समागम
| भीष्म की अनुमति से श्रीकृष्ण की अग्रपूजा
| शिशुपाल के आक्षेपपूर्ण वचन
| युधिष्ठिर का शिशुपाल को समझाना
| भीष्म का शिशुपाल के आक्षेपों का उत्तर देना
| भगवान नारायण की महिमा
| भगवान नारायण द्वारा मधु-कैटभ वध
| वराह अवतार की संक्षिप्त कथा
| नृसिंह अवतार की संक्षिप्त कथा
| वामन अवतार की संक्षिप्त कथा
| दत्तात्रेय अवतार की संक्षिप्त कथा
| परशुराम अवतार की संक्षिप्त कथा
| श्रीराम अवतार की संक्षिप्त कथा
| श्रीकृष्ण अवतार की संक्षिप्त कथा
| कल्कि अवतार की संक्षिप्त कथा
| श्रीकृष्ण का प्राकट्य
| कालिय-मर्दन एवं धेनुकासुर वध
| अरिष्टासुर एवं कंस वध
| श्रीकृष्ण और बलराम का विद्याभ्यास
| श्रीकृष्ण का गुरु को दक्षिणा रूप में उनके पुत्र का जीवन देना
| नरकासुर का सैनिकों सहित वध
| श्रीकृष्ण का सोलह हजार कन्याओं को पत्नीरूप में स्वीकार करना
| श्रीकृष्ण का इन्द्रलोक जाकर अदिति को कुण्डल देना
| द्वारकापुरी का वर्णन
| रुक्मिणी के महल का वर्णन
| सत्यभामा सहित अन्य रानियों के महल का वर्णन
| श्रीकृष्ण और बलराम का द्वारका में प्रवेश
| श्रीकृष्ण द्वारा बाणासुर पर विजय
| भीष्म के द्वारा श्रीकृष्ण माहात्म्य का उपसंहार
| सहदेव की राजाओं को चुनौती
शिशुपाल वध पर्व
युधिष्ठिर को भीष्म का सान्त्वना देना
| शिशुपाल द्वारा भीष्म की निन्दा
| शिशुपाल की बातों पर भीम का क्रोध
| भीष्म द्वारा शिशुपाल के जन्म का वृतांत्त का वर्णन
| भीष्म की बातों से चिढ़े शिशुपाल का उन्हें फटकारना
| श्रीकृष्ण द्वारा शिशुपाल वध
| राजसूय यज्ञ की समाप्ति
| श्रीकृष्ण का स्वदेशगमन
द्यूत पर्व
व्यासजी की भविष्यवाणी से युधिष्ठिर की चिन्ता
| दुर्योधन का मय निर्मित सभा भवन को देखना
| युधिष्ठिर के वैभव को देखकर दुर्योधन का चिन्तित होना
| पाण्डवों पर विजय प्राप्त करने के लिए दुर्योधन-शकुनि की बातचीत
| दुर्योधन का द्यूत के लिए धृतराष्ट्र से अनुरोध
| धृतराष्ट्र का विदुर को इन्द्रप्रस्थ भेजना
| दुर्योधन का धृतराष्ट्र को अपने दुख और चिन्ता का कारण बताना
| युधिष्ठिर को भेंट में मिली वस्तुओं का दुर्योधन द्वारा वर्णन
| दुर्योधन द्वारा युधिष्ठिर के अभिषेक का वर्णन
| दुर्योधन को धृतराष्ट्र का समझाना
| दुर्योधन का धृतराष्ट्र को उकसाना
| द्यूतक्रीडा के लिए सभा का निर्माण
| धृतराष्ट्र का युधिष्ठिर को बुलाने के लिए विदुर को आज्ञा देना
| विदुर और धृतराष्ट्र की बातचीत
| विदुर और युधिष्ठिर बातचीत तथा युधिष्ठिर का हस्तिनापुर आना
| जुए के अनौचित्य के सम्बन्ध में युधिष्ठिर-शकुनि संवाद
| द्यूतक्रीडा का आरम्भ
| जुए में शकुनि के छल से युधिष्ठिर की हार
| धृतराष्ट्र को विदुर की चेतावनी
| विदुर द्वारा जुए का घोर विरोध
| दुर्योधन का विदुर को फटकारना और विदुर का उसे चेतावनी देना
| युधिष्ठिर का धन, राज्य, भाई, द्रौपदी सहित अपने को भी हारना
| विदुर का दुर्योधन को फटकारना
| दु:शासन का सभा में द्रौपदी को केश पकड़कर घसीटकर लाना
| सभासदों से द्रौपदी का प्रश्न
| भीम का क्रोध एवं अर्जुन को उन्हें शान्त करना
| विकर्ण की धर्मसंगत बात का कर्ण द्वारा विरोध
| द्रौपदी का चीरहरण
| विदुर द्वारा प्रह्लाद का उदाहरण देकर सभासदों को विरोध के लिए प्रेरित करना
| द्रौपदी का चेतावनी युक्त विलाप एवं भीष्म का वचन
| दुर्योधन के छल-कपटयुक्त वचन और भीम का रोषपूर्ण उद्गार
| कर्ण और दुर्योधन के वचन एवं भीम की प्रतिज्ञा
| द्रौपदी को धृतराष्ट्र से वर प्राप्ति
| कौरवों को मारने को उद्यत हुए भीम को युधिष्ठिर का शान्त करना
| धृतराष्ट्र का युधिष्ठिर को सारा धन लौटाकर इन्द्रप्रस्थ जाने का आदेश
अनुद्यूत पर्व
दुर्योधन का धृतराष्ट्र से पुन: द्युतक्रीडा के लिए पाण्डवों को बुलाने का अनुरोध
| गान्धारी की धृतराष्ट्र को चेतावनी किन्तु धृतराष्ट्र का अस्वीकार करना
| धृतराष्ट्र की आज्ञा से युधिष्ठिर का पुन: जुआ खेलना और हारना
| दु:शासन द्वारा पाण्डवों का उपहास
| भीम, अर्जुन, नकुल और सहदेव की भीषण प्रतिज्ञा
| विदुर का पाण्डवों को धर्मपूर्वक रहने का उपदेश देना
| द्रौपदी का कुन्ती से विदा लेना
| कुन्ती का विलाप एवं नगर के नर-नारियों का शोकातुर होना
| वनगमन के समय पाण्डवों की चेष्टा
| प्रजाजनों की शोकातुरता के विषय में धृतराष्ट्र-विदुर का संवाद
| शरणागत कौरवों को द्रोणाचार्य का आश्वासन
| धृतराष्ट्र की चिन्ता और उनका संजय के साथ वार्तालाप
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज