दुर्योधन का द्यूत के लिए धृतराष्ट्र से अनुरोध

महाभारत सभा पर्व के ‘द्यूत पर्व’ के अंतर्गत अध्याय 49 के अनुसार दुर्योधन का द्यूत के लिए धृतराष्ट्र से अनुरोध का वर्णन इस प्रकार है[1]-

शकुनि का दुर्योधन के विषय में धृतराष्ट्र को बताना

वैशम्पायनजी कहते है- जनमेजय! गान्धारीपुत्र दुर्योधन के सहित सुबल नन्दन शकुनि राजा युधिष्ठिर के राजसूय महायज्ञ का उत्सव देखकर जब लौटा, तब पहले दुर्योधन के अपने अनुकूल मत को जानकर और उसकी पूरी बातें सुनकर सिंहासन पर बैठे हुए प्रज्ञाचक्षु महाप्राज्ञ राजा धृतराष्ट्र के पास जाकर इस प्रकार बोला। शकुनि ने कहा- महाराज! दुर्योधन की कान्ति फीकी पड़ती जा रही है। वह सफेद और दुर्बल हो गया है। उसकी बड़ी दयनीय दशा है। वह निरन्तर चिन्ता में डूबा रहता है। नरेश्वर! उसके मनोभाव को समझिये। उसे शत्रुओं की ओर से कोई अच्छा कष्ट प्राप्त हुआ है। आप उसकी अच्छी तरह परीक्षा क्यों नहीं करते? दुर्याेधन आपका ज्येष्ठ पुत्र है। उसके हृदय में महान् शोक व्याप्त है। आप उसका पता क्यों नही लगाते?[1]

धृतराष्ट्र का दुर्योधन से बात करना

धृतराष्ट्र दुर्योधन के पास जाकर बोले- बेटा दुर्योधन! तुम्हारे दु:ख का कारण क्या है? सुना है तुम बड़े कष्ट में हो। कुरुनन्दन! यदि मेरे सुनने योग्य हो तो वह बात मुझे बताओं। यह शकुनि कहता है कि तुम्हारी कान्ति फीकी पड़ गयी है। तुम सफेद और दुबले हो गये हो, परंतु मैं बहुत सोचने पर भी तुम्हारे शोक का कोई कारण नहीं देखता। बेटा! इस सम्पूर्ण महान ऐश्वर्य का भार तुम्हारे ही ऊपर है। तुम्हारे भाई सुह्रद कभी तुम्हारे प्रतिकूल आचरण नही करते। तुम बहुमूलय वस्त्र ओढ़ते पहनते हो, बढ़िया विशु्द्ध भात खाते हो तथा अच्छी जाति के घोड़े तुम्हारी सवारी में रहते हैं, फिर किस दु:ख से तुम सफेद और दुबले हो गये हो? बहुमूल्य शय्याएँ, मन को प्रिय लगने वाली युवतियाँ, सभी ऋतुओं में लाभदायक भवन और इच्छानुसार सुख देने वाले विहार स्थान देवताओं की भाँति ये सभी वस्तुएँ नि:संदेह तुम्हें वाणी द्वारा कहने मात्र से सुलभ हैं। मेरे दुर्द्धर्ष पुत्र! फिर तुम दीन की भाँति क्यों शोक करते हो ? जैसे स्वर्ग में इन्द्र को सम्पूर्ण मनोवान्छित भोग सुलभ हैं, उसी प्रकार समस्त अभिलषित भोग और खाने पीने की विविधि उततम वस्तुएँ तुम्हारे लिये सदा प्रस्तुत हैं। फिर तुम किस लिये शोक करते हो? तुमने कृपाचार्य से निरुक्त, निगम, छन्द, वेद के छहों अंंग, अर्थशास्त्र तथा आठ प्रकार के व्याकरण शास्त्रों का अध्ययन किया है। हलायुध, कृपाचार्य तथा द्रोणाचार्य से तुमने अस्त्रविद्या सीखी है। बेटा! तुम इस राज्य के स्वामी होकर इच्छानुसार सब वस्तुओं का उपभोग करते हो। सूत और मागध सदा तुम्हारी स्तुति करते रहते हैं। तुम्हारी बुद्धि की प्रखरता प्रसिद्ध है। तुम इस जगत में ज्येष्ठ पुत्र के लिये सुलभ समस्त राजोचित सुखों के भागी हो। फिर भी तुम्हें कैसे चिन्तो रही है? बेटा! तुम्हारे इस शोक का कारण क्या है? यह मुझे बताओ।[1]

दुर्योधन का पिता को अपने दु:ख का कारण बताना

वैशम्पायनजी कहते हैं- पिता का यह कथन सुनकर क्रोध के वशीभूत हुए मूढ़ दुर्योधन ने उन्हें अपना विचार बताते हुए इस प्रकार उत्तर दिया। दुर्योधन बोला- पिताजी! मैं अच्छा खाता पहनता तो हूँ, पंरतु कायरों की भाँति। मैं समय के परिवर्तन की प्रतीक्षा में रहकर अपने हृदय में भारी ईर्ष्या धारण करता हूँ। जो शत्रुओं के प्रति अमर्श रख उन्हें पराजित करके विश्राम लेता है और अपनी प्रजा के शत्रुजनित क्लेश से छुड़ाने की इच्छा करता है, वही पुरुष कहलाता है। भारत! संतोष लक्ष्मी और अभिमान का नाश कर देता है। दया अैर भय ये दोनों भी वैसे ही हैं। इन (संतोषादि) से युक्त मनुष्य कभी ऊँचा पद नहीं पा सकता।[1] कुन्तीनन्दन युधिष्ठिर की वह अत्यन्त प्रकाशमान राज लक्ष्मी देखकर मुझे भोजन अच्छा नहीं लगता। वही मेरी कान्ति को नष्ट करने वाली है। शत्रुओं को बढ़ते और अपने को हीन दशा में जाते देख तथा युधिष्ठिर की उस अदृश्य लक्ष्मी पर भी प्रत्यक्ष की भाँति दृष्टिपात करके मैं चिन्तित हो उठा हूँ। यही कारण है कि मेरी कान्ति फीकी पड़ गयी है तथा मैं दीन, दुर्बल अैर सफेद हो गया हूँ। राजा युधिष्ठिर अपने घर में बसने वाले अठ्ठासी हजार स्नातकों का भरण पोषण करते हैं। उनमें से प्रत्येक की सेवा के लिये तीस तीस दासियाँ प्रस्तुत रहती हैं। इसके सिवा युधिष्ठिर के महल में दस हजार अन्य ब्राह्मण प्रतिदिन सोने की थालियों में भोजन करते हैं। काम्बोज राज ने काले, नीले और लाल रंग के कदली मृग के चर्म तथा अनेक बहुमूल्य कम्बल युधिष्ठिर के लिये भेंट में भेजे थे। उन्हीं की भेजी हुई सैकड़ों हथिनियाँ, सहस्रों गायें और घोड़े तथा तीस तीस हजार ऊँट और घोड़ियाँ वहाँ विचरती थीं। सभी राजा लोग भेंट लेकर युधिष्ठिर के भवन में एकत्र हुए थे। पृथ्वी! उस महान् यज्ञ में भूपालगण कुन्तीपुत्र युधिष्ठिर के लिये भाँति-भाँति के बहुत से रत्न लाये थे। बुद्धिमान पाण्डुकुमार युधिष्ठिर के यज्ञ में धन की जैसी प्राप्ति हुई है, वैसी मैंने पहले कहीं न तो देखी हैं और न सुनी ही है।[2]

दुर्योधन का युधिष्ठिर के एश्वर्य को देख चिन्तित होना

महाराज! शत्रु की वह अनन्त धनराशि देखकर मैं चिन्तित हो रहा हूँ, मुझे चैन नहीं मिलता। ब्राह्मण लोग तथा हरी भरी खेती उपजा कर जीवन निर्वाह करने वाले और बहुत से गाय बैल रखने वाले वैश्य सैकड़ों दलों में इकठ्ठे होकर तीन खर्व भेंट लेकर राजा के द्वार पर रोके हुए खड़े थे। वे सब लोग सोने के सुन्दर कलश और इतना धन लेकर आये थे, तो भी वे सभी राज द्वार में प्रवेश नहीं कर पाते थे अर्थात् उनमें से कोई कोई ही प्रेवश कर पाते थे। देवांगनाएँ इन्द्र के लिये कलशों में जैसा मधु लिये रहती हैं, वैसा ही वरुण देवता का दिया हुआ और काँस के पात्र में रखा हुआ मधु समुद्र ने युधिष्ठिर के लिये उपहार में भेजा था। वहाँ छींके पर रखकर लाया हुआ एक हजार स्वर्ण मुद्राओं का बना हुआ कलश रखा था, जिसमें अनेक प्रकार के रत्न जड़े हुए थे। उस पात्र में स्थित समुद्र जल को उत्तम शंख में लेकर श्रीकृष्ण ने युधिष्ठिर का अभिषेक किया था। तात! वह सब देखकर मुझे ज्वर सा आ गया। भरतश्रेष्ठ! वैसे ही सुवर्ण कलशों को लेकर पाण्डव लोग जल लाने के लिये पूर्व, दक्षिण, पश्चिम समुद्र तक तो जाया करते थे, किंतु सुना जाता है कि उत्तर समुद्र के समीप, जहाँ पक्षियों के सिवा मनुष्य नहीं जा सकते, वहाँ भी जाकर अर्जुन अपार धन कर के रूप में वसूल कर लाये। युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ में एक यह अद्भुत बात और भी हुई थी, वह मैं बताता हूँ सुनिये। जब एक लाख ब्राह्मणों को रसाई परोस दी जाती, तब उसके लिये एक संकेत नियत किया गया था, प्रतिदिन लाख की संख्या पूरी होते ही बड़े जोर से शंख बजाया जाता था। भारत! ऐसा शंख वहाँ बार-बार बजता था और मैं निरन्तर उस शंख ध्वनि को सुना करता था, इससे मेरे शरीर में रोमान्च हो आता था।[2] महाराज! वहाँ यज्ञ देखने के लिये आये हुए बहुत से राजाओं द्वारा भरी हुई यज्ञमण्डप की बैठक ताराओं से व्याप्त हुुए निर्मल आकाश की भाँति शोभा पाती थी। जनेश्वर! बुद्धिमान पाण्डुनन्दन युधिष्ठिर के उस यज्ञ में भूपालगण सब रत्नों की भेंट लेकर आये थे। राजालोग वैश्यों की भाँति ब्राह्मणों को भोजन परोसते थे। राजा युधिष्ठिर के पास जो लक्ष्मी है, वह देवराज इन्द्र, यम, वरुण अथवा यक्षराज कुबेर के पास भी नहीं होगी। पाण्डुपुत्र युधिष्ठिर की उस उत्कृष्ट लक्ष्मी को देखकर मेरे हृदय में जलन हो गयी, अत: मुझे क्षणभर भी शान्ति नहीं मिलती। पाण्डवों का ऐश्वर्य यदि मुझे नहीं प्राप्त हुआ तो मेरे मन को शान्ति नहीं मिलेंगी। या तो मैं बाणों द्वारा रण भूमि में उपस्थित होकर शत्रुओं की सम्पत्ति पर अधिकार प्राप्त करूँगा या शत्रुओं द्वारा मारा जाकर संग्राम में सदा के लिये सो जाऊँगा। तरंतप! ऐसी स्थिति में मेरे इस जीवन से क्या लाभ? पाण्डव दिनों दिन बढ़ रहे हैं और हमारी उन्न्नति रुक गयी है।[3]

दुर्योधन का द्यूत के लिए धृतराष्ट्र से अनुरोध करना

शकुनि ने दुर्योधन से पुन: कहा- सत्यपराक्रमी दुर्योधन! तुमने पाण्डुपुत्र युधिष्ठिर के यहाँ जो अनुपम लक्ष्मी देखी है, उसकी प्राप्ति का उपाय मुझ सेे सुनो। भारत! मैं इस भूमण्डल में द्यूतविद्या का विशेष जानकार हूँ, द्यूतक्रीड़ा का मर्म जानता हूँ, दाव लगाने का भी मुझे ज्ञान है तथा पासे फेंकने की कला का भी मैं विशेषज्ञ हूँ। कुन्तीनन्दन युधिष्ठिर को जुआ खेलना बहुत प्रिय है, परंतु वे उसे खेलना जानते नहीं हैं। द्यूत अथवा युद्ध किसी भी उद्देश्य से यदि उन्हें बुलाया जाय, तो वे अवश्य पधारेंगे। प्रभो! मैं छल करके युधिष्ठिर को निश्चय ही जीत लूँगा और उनकी उस दिव्य समृद्धि को यहाँ माँगा लूँगा, अत: तुम उन्हें बुलाओ। वैशम्पायनजी कहते हैं- जनमेजय! शकुनि के ऐसा कहने पर राजा दुर्योधन ने तुरंत ही धृतराष्ट्र से इस प्रकार कहा- ‘राजन्! ये अक्षविद्या का मर्म जानने वाले हैं और जूए के द्वारा पाण्डुपुत्र युधिष्ठिर की राजलक्ष्मी का अपहरण कर लेने का उत्साह रखते हैं, अत: इसके लिये इन्हें आज्ञा दीजिये’। धृतराष्ट्र बोल- महाबुद्धिमान विदुर मेरे मंत्री हैं, जिनके आदेश के अनुसार मैं चलता हूँ। उनसे मिलकर विचार करने के पश्चात् मैं यह समझ सकूँगा कि इस कार्य के सम्बन्धों में क्या निश्चय किया जा? विदुर दूरदर्शी हैं, वे धर्म को सामने रखकर दोनों पक्षों के लिये उचित और परम हित की बात सोचरक उसके अनुकूल ही कार्य का निश्च बातयेंगे। दुर्योधन ने कहा- विदुर जब आप से मिलेंगे, तब अवश्य ही आपको इस कार्य से निवृत्त कर देंगे। राजेन्द्र! यदि आपने इस कार्य से मुँह मोड़ लिया तो मैं नि:संदेह प्राण त्याग दूँगा। राजन्! मेरी मृत्यु हो जाने पर आप विदुर के साथ सुख से रहियेगा और सारी पृथ्वी का राज्य भोगियेगा। मेरे जीवित रहने से आप क्या प्रयोजन सिद्ध करेंगे?[3]

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 1.2 1.3 महाभारत सभा पर्व अध्याय 49 श्लोक 1-14
  2. 2.0 2.1 महाभारत सभा पर्व अध्याय 49 श्लोक 15-32
  3. 3.0 3.1 महाभारत सभा पर्व अध्याय 49 श्लोक 33-48

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