पाण्डवों की दिग्विजय के लिए यात्रा

महाभारत सभा पर्व के ‘दिग्विजय पर्व’ के अंतर्गत अध्याय 25 के अनुसार पाण्डवों की दिग्विजय के लिए यात्रा का वर्णन इस प्रकार है[1]-

वैशम्पायन जी कहते है - जनमेजय! अर्जुन श्रेष्ठ धनुष, दो विशाल एवं अक्षय तूणीर, दिव्य रथ, ध्वज और अद्भुत सभाभवन पहले ही प्राप्त कर चुके थे, अब वे युधिष्ठिर से बोले।

अर्जुन ने कहा - राजन! मुझे धनुष, अस्त्र, बाण, पराक्रम, श्रीकृष्ण जैसे सहायक, भूमि (राज्य एवं इन्द्रप्रस्थ का दुर्ग), यश और बल- ये सभी दुर्लभ एवं मनोवान्छित वस्तुएँ प्राप्त हो चुकी है। नृपश्रेष्ठ! अब मैं अपने कोष को बढ़ाना ही आवश्यक कार्य समझता हूँ। मेरी इच्छा है कि समस्त राजाओं को जीतकर उनसे कर वसूल करूँ। आपकी आज्ञा हो तो उत्तम तिथि, मुहूर्त और नक्षत्र में कुबेर द्वारा पालित उत्तम दिशा को जीतने के लिये प्रस्थान करूँ। यह सुनकर भाइयों सहित कुरुश्रेष्ठ धर्मराज युधिष्ठिर को बड़ी प्रसन्नता हुई। साथ ही मन्त्रियों तथा व्यास, धौम्य आदि महर्षियों को बड़ा हर्ष हुआ। तत्पश्चात् परम बुद्धिमान व्यास जी ने अर्जुन से कहा। व्यास जी बोले- कुन्तीनन्दन! मैं तुम्हें बारंबार साधुवाद देता हूँ। सौभाग्य से तुम्हारी बुद्धि में ऐसा संकल्प हुआ है। तुम सारी पृथ्वी को अकेले ही जीतने के लिये उत्साहित हो रहे हो। राजा पाण्डु धन्य थे, जिनके पुत्र तुम ऐसे पराक्रमी निकले। तुम्हारे पराक्रम से धर्मपुत्र धर्मात्मा महाराज युधिष्ठिर सब कुछ पा लेंगे। सार्वभौम सम्राट के पद पर प्रतिष्ठित होंगे। तुम्हारे बाहुबल का सहारा पाकर ये राजसूयज्ञ पूर्ण कर लेंगे। भगवान श्रीकृष्ण की उत्तम नीति, भीम और अर्जुन के बल तथा नकुल और सहदेव के पराक्रम से धर्मराज युधिष्ठिर को सब कुछ प्राप्त हो जायगा। इसलिये अर्जुन! तुम तो देवताओं द्वारा सुरक्षित उत्तर दिशा की यात्रा करो, क्योंकि देवताओं को जीतकर वहाँ से बलपूर्वक रत्न ले आने में तुम्हीं समर्थ हो। अपने बल द्वारा दूसरों से होड़ लेने वाले भरत कुलभूषण भीमसेन पूर्व दिशा की यात्रा करें। महारथी सहदेव दक्षिण दिशा की और प्रस्थान करें और नकुल वरुणपालि पश्चिम दिशा पर आक्रमण करें। भरतश्रेष्ठ पाण्डवों! मेरी बुद्धि का ऐसा ही निश्चय है। तुम लोग इसका पालन करो। वैशम्पायनजी कहते हैं- जनमेजय! व्यासजी की यह बात सुनकर पाण्डवों ने बड़े हर्ष के साथ कहा। पाण्डव बोले - मुनिश्रेष्ठ! आप जैसी आज्ञा देते हैं वैसा ही हो।

वैशम्पायन जी कहते हैं - जनमेजय! अर्जुन की पूर्वोक्त बात सुनकर धर्मराज युधिष्ठिर स्नेहयुक्त गम्भीर वाणी में उनसे इस प्रकार बोले - ‘भरत कुलभूषण! पूजनीय ब्राह्मणों से स्वस्तिवाचन कराकर यात्रा करो। तुम्हारी यह यात्रा शत्रुओं का शोक और सुह्रदों का आनन्द बढ़ाने वाली हो। ‘पार्थ! तुम्हारी विजय सुनिश्चित है, तुम अभीष्ट कामनाओं को प्राप्त करोगे।’ उनके इस प्रकार आदेश देने पर कुन्ती पुत्र अर्जुन विशाल सेना के साथ अग्नि के दिये हुए अद्भुत कर्मा दिव्य रथ द्वारा वहाँ से प्रस्थित हुए। इसी प्रकार भीमसेन तथा नरश्रेष्ठ नकुल-सहदेव इन सभी भाइयों ने धर्मराज से सम्मानित हो सेनाओं के साथ दिग्विजय के लिये प्रस्थान किया। राजन! इन्द्रकुमार अर्जुन ने कुबेर की प्रिय उत्तर दिशा पर विजय पायी। भीमसेन ने पूर्व दिशा, सहदेव ने दक्षिण दिशा तथा अस्त्र वेत्ता नकुल ने पश्चिम दिशा को जीता। केवल धर्मराज युधिष्ठिर सुहृदों से घिरे हुए अपनी उत्तम राजलक्ष्मी के साथ खाण्डवप्रस्थ में रह गये थे।

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. महाभारत सभा पर्व अध्याय 25 श्लोक 1-11

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