सभासदों से द्रौपदी का प्रश्न

महाभारत सभा पर्व के ‘द्यूत पर्व’ के अंतर्गत अध्याय 67 के अनुसार सभासदों से द्रौपदी के प्रश्न पूछने का वर्णन इस प्रकार है[1]-

द्रौपदी का क्रोधित हो कर सभासदों से प्रश्न पूछना

अहो! धिक्‍कार है! भरतवंश के नरेशों का धर्म निश्‍चय ही नष्‍ट हो गया तथा क्षत्रियधर्म के जानने वाले इन महापुरुषों का सदाचार भी लुप्‍त हो गया; क्‍योंकि यहाँ कौरवों की धर्ममर्यादा-का उल्‍लंघन हो रहा है, तो भी सभा में बैठे हुए सभी कुरुवंशी चुपचाप देख रहे हैं। जान पड़ता है द्रोणाचार्य, पितामह भीष्‍म, महात्‍मा विदुर तथा राजा धृतराष्‍ट्र में अब कोई शक्ति नहीं रह गयी है; तभी तो ये कुरुवंश के बड़े-बड़े़ महापुरुष राजा दुर्योधन के इस भयानक पापा चार की ओर दष्टिपात नहीं कर रहे हैं। मेरे इस प्रश्‍न का सभी सभा सद् उत्तर दें। राजाओ! आप-लोग क्‍या समझते हैं ? धर्म के अनुसार मैं जीती गयी हूँ था नहीं। वैशम्‍पायनजी कहते हैं - जनमेजय! इस प्रकार करूण स्‍वर में विलाप करती सुमध्‍यमा द्रौपदी ने क्रोध में भरे हुए अपने पतियों की ओर तिरछी दृष्टि से देखा। पाण्‍डवों के अंग-अंग में क्रोध की अग्नि व्‍याप्‍त हो गयी थी। द्रौपदी ने अपने कटाक्ष द्वारा देखकर उनकी क्रोधाग्नि को और भी उदीप्‍त कर दिया।[1] रात्‍य, धन तथा मुख्‍य-मुख्‍य रत्‍नों को हार जाने पर भी पाण्‍डवों को उतना दु:ख नहीं हुआ था, जितना कि द्रौपदी के लज्‍जा एवं क्रोधयुक्‍त कटाक्षपात से हुआ था। द्रौपदी को अपने पतियों की ओर देखती देख दु:शासन उसे बड़े वेग से झकझोरकर जोर-जोर से हँसते हुए ‘दासी’ कहकर पुकारने लगा। उस समय द्रौपदी मूर्च्छित-सी हो रही थी।[2]-

भीष्म का द्रौपदी के प्रश्न का विवेचन न कर पाना

कर्ण को बड़ी प्रसन्‍नता हुई। उसने खिलखिलाकर हँसते हुए दु:शासन के उस कथन की बड़ी सराहना की। सुबलपुत्र गान्‍धार राज शकुनि ने भी दु:शासन का अभिनन्‍दन किया। उस समय वहाँ जितने समासद् उपस्थित थे, उनमें से कर्ण, शकुनि और दुर्योधन को छोड़कर अन्‍य सब लोगों को सभा में इस प्रकार घसीटी जाती हुई द्रौपदी की दुर्दशा देखकर बड़ा दु:ख हुआ। उसम समय भीष्‍म ने कहा- सौभाग्‍यशाली बहू! धर्म का स्‍वरूप अत्‍यन्‍त सूक्ष्‍म होने के कारण मैं तुम्‍हारे इस प्रश्‍न का ठीक-ठीक विवेचन नहीं कर सकता। जो स्‍वामी नहीं है वह पराये धन को दाँव पर नहीं लगा सकता, परंतु स्‍त्री को सदा अपने स्‍वामी के अधीन देखा जाता है, अत: इन सब बातों पर विचार करने से मुझसे कुछ कहते नहीं बनता। मेरा विश्‍वास है कि धर्मराज युधिष्ठिर धन-समृद्धि से भरी हुई इस सारी पृथ्‍वी को त्‍याग सकते हैं, किंतु धर्म को नहीं छोड़ सकते। इन पाण्‍डुनन्‍दन ने स्‍वयं कहा है कि मैं अपने को हार गया; अत: मैं इस प्रश्‍न का विवेचन नहीं कर सकता। यह शकुनि मनुष्‍यों में द्यूतविद्या का अद्वितीय जानकर है। इसी ने कुन्‍तीनन्‍दन युधिष्ठिर प्रेरित करके उनके मन में तुम्‍हें दाँव पर रखने की इच्‍छा उत्‍पन्‍न की है, परंतु युधिष्ठिर इसे शकुनि का छल नहीं मानते है; इसीलिये मैं तुम्‍हारे इस प्रश्‍न का विवेचन नहीं कर पाता हूँ। द्रौपदी ने कहा - जूआ खेलने में निपुण, अनार्य,दुषृात्‍मा, कपटी तथा द्यूत प्रेमी धूतों ने राजा युधिष्ठिर को सभा में बुलाकर जूए का खेल आरम्‍भ कर दिया। इन्‍हें जूआ खेलने का अधिक अभ्‍यास नहीं है। फिर इनके मन में जूए की इच्‍छा क्‍यों उत्‍पन्‍न की गई ? जिनके हृदय की भावना शुद्ध नहीं है, जो सदा छल और कपट में लगे रहते हैं, उन समस्‍त दुरात्‍माओं ने मिलकर इन भोले-भोले कुरु-पाण्‍डव-शिरोमणि महाराज युधिष्ठिर को पहले जूए में जीत लिया है, तत्‍पश्‍चात् ये मुझे दाँव पर लगाने के लिये विवश किये गये हैं। ये कुरुवंशी महापुरुष जो सभा में बैठे हुए हैं, सभी पुत्रों और पुत्र वधुओं के स्‍वामी हैं (सभी के घर में पुत्र और पुत्र-वधुएँ है), अत: ये सब लोग मेरे कथन पर अच्‍छी तरह विचार करके इस प्रश्‍न का ठीक-ठीक विवेचन करें। वह सभा नहीं है जहाँ वृद्ध पुरुष न हों, वे वृद्ध नहीं हैं जो धर्म की बात न बतावें, वह धर्म नहीं है जिसमें सत्‍य न हो और वह सत्‍य नहीं है जो छल से युक्‍त हो। वैशम्‍पायनजी कहते हैं - जनमेजय! इस प्रकार द्रौपदी करूणस्‍वर में बोलकर रोती हुई अपने दीन पतियों की ओर देखनी लगी। उस समय दु:शासन ने उसके प्रति कितने ही अप्रिय कठोर एवं कटुवचन कहे। कृष्‍णा राजस्‍वलावस्‍था मे घसीटी जा रही थी, उसके सिर का कपड़ा सरक गया था, वह इस तिरस्‍कार के योग्‍य कदापि नहीं थी। उसकी यह दुरवस्था देखकर भीमसेन को बड़ी पीड़ा हुई। वे युधिष्ठिर की ओर देख कर अत्‍यन्‍त कुपित हो उठे।[2]


टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 महाभारत सभा पर्व अध्याय 67 श्लोक 30-42
  2. 2.0 2.1 महाभारत सभा पर्व अध्याय 67 श्लोक 43-54

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