युधिष्ठिर को जरासंध की उत्पत्ति का प्रसंग सुनाना

महाभारत सभा पर्व के ‘राजसूयारम्भ पर्व’ के अंतर्गत अध्याय 17 के अनुसार युधिष्ठिर को जरासंध की उत्पत्ति का प्रसंग सुनाने की कथा का वर्णन इस प्रकार है[1]-

युधिष्ठिर का कृष्ण से जरासंध के बारे में पूछना

युधिष्ठिर ने पूछा- श्रीकृष्ण! यह जरासंध कौन है ? उसका बल और पराक्रम कैसा है ? जो प्रज्वलित अग्नि के समान आप का स्पर्श करके भी पतंग के समान जलकर भस्म नहीं हो गया ? श्रीकृष्ण ने कहा- राजन्! जरासंध का बल और पराक्रम कैसा है तथा अनेक बार हमारा अप्रिय करने पर भी हम लोगों ने क्यों उसकी उपेक्षा कर दी, यह सब बता रहा हूँ , सुनिये।[1]

बृहद्रथ राजा का विषयरूपी वर्णन

मगधदेश में बृहद्रथ नाम से प्रसिद्ध एक बलवान् राजा राज्य करते थे। वे तीन अक्षौहिणी सेनाओं के स्वामी और युद्ध में बड़े अभिमान के साथ लड़ने वाले थे। राजा बृहद्रथ बड़े ही रूपवान्, बलवान्, धनवान्, और अनुपम पराक्रमी थे। उनका शरीर दूसरे इन्द्र की भाँति सदा यज्ञ की दीक्षा के चिह्नों से ही सुशोभित होता रहता था। वे तेज में सूर्य, क्षमा में पृथ्वी, क्रोध में यमराज और धन सम्पत्ति में कुबेर के समान थे। भरत श्रेष्ठ! जैसे सूर्य की किरणों से यह सारी पृथ्वी आच्छादित हो जाती है, उसी प्रकार उन के उत्तम कुलोचित सद्गुणों से समस्त भूमण्डल व्याप्त हो रहा था- सर्वत्र उनके गुणों की चर्चा एवं प्रशंसा होती रहती थी।[2]-

राजा का जुड़व कन्या से विवाह

भरत कुलभूषण! महापराक्रमी राजा बृहद्रथ ने काशिराज की दो जुड़वीं कन्याओं के साथ, जो अपनी रूप सम्पत्ति से अपूर्व शोभा पा रहीं थीं, विवाह किया और उन नरश्रेष्ठ ने एकान्त में अपनी दोनों पत्नियों के समीप यह प्रतिज्ञा की कि मैं तुम दोनों के साथ कभी विषय व्यवहार नहीं करूँगा (अर्थात् दोनों के प्रति समान रूप से मेरा प्रेम भाव बना रहेगा)। जैसे दो हथिनियों के साथ गजराज सुशोभित होता है, उसी प्रकार वे महाराज बृहद्रथ अपने मन के अनुरूप दोनों प्रिय पत्नियों के साथ शोभा पाने लगे। जब वे दोनों पत्नियों के बीच में विराजमान होते, उस समय ऐसा जान पड़ता , मानो गंगा और यमुना के बीच में मूर्तिमान् समुद्र सुशोभित हो रहा हो।[2]

राजा का निसंतान विषय में मुनि को बताना

विषयों में डूबे राजा की सारी जवानी बीत गयी, परंतु उन्हें कोई वंश चलाने वाला पुत्र नहीं प्राप्त हुआ। उन श्रेष्ठ नरेश ने बहुत-से मांगलिक कृत्य, होम और पुत्रेष्टि यज्ञ कराये, तो भी उन्हें वंश की वृद्धि करने वाले पुत्र की प्राप्ति नहीं हुई। एक दिन उन्होंने सुना कि गौतम गौत्रीय महात्मा काक्षीवान् के पुत्र परम उदार चण्डकौशिक मुनि तपस्या से उपरत होकर अकस्मात् इधर आ गये हैं और एक वृक्ष के नीचे बैठे हैं। यह समाचार पाकर राजा बृहद्रथ अपनी दोनों पत्नियों (एवं पुरवासियों) के साथ उनके पास गये तथा सब प्रकार के रत्नों (मुनिजनोचित उत्कृष्ट वस्तृओं) की भेंट देकर उन्हें संतुष्ट किया। महर्षि ने भी यथोचित बर्ताव द्वारा बृहद्रथ को प्रसन्न किया। उन महात्मा की आज्ञा पाकर राजा उनके निकट बैठे। उस समय ब्रह्मर्षि चण्डकौशिक ने उन से पूछा - ‘राजन्! अपनी दोनों पत्नियों और पुरवासियों के साथ यहाँ तुम्हारा आगमन किस उद्देश्य से हुआ है ?’ तब राजा ने मुनि से कहा- ‘भगवान्! मेरे कोई पुत्र नहीं है। मुनि श्रेष्ठ! लोग कहते हैं कि पुत्रहीन मनुष्य का जन्म व्यर्थ है। ‘इस बुढ़ापे में पुत्र हीन रहकर मुझे राज्य से क्या प्रयोजन है ? इसलिये अब मैं दोनों पत्नियों के साथ तपोवन रहकर तपस्या करूँगा। ‘मुने! संतानहीन मनुष्य को न तो इस लोक में कीर्ति प्राप्त होती है और न परलोक में अक्षय स्वर्ग ही प्राप्त होती है। ’ राजा के ऐसा कहने पर महर्षि को दया आ गयी। तब धैर्य से सम्पन्न और सत्यवादी मुनिवर चण्डकौशिक ने राजा बृहद्रथ से कहा- ‘उत्तम व्रत का पालन करने वाले राजेन्द्र! मैं तुम पर संतुष्ट हूँ। तुम इच्छानुसार वर माँगो। ’ यह सुनकर राजा बृहद्रथ अपनी दोनों रानियों के साथ मुनि के चरणों में पड़ गये और पुत्र दर्शन से निराश होने के कारण नेत्रों से आँसू बहाते हुए गदगद वाणी में बोले।[2] राजा ने कहा- भगवान्! मैं तो अब राज्य छोड़कर तपोवन की ओर चल पड़ा हूँ। मुझ अभागे और संतानहीन को वर अथवा राज्य की क्या आवश्यकता ?[3]-

मुनि का राजा से प्रसन्न हो अभिमन्त्रित कर फल देना

श्रीकृष्ण कहते हैं- राजा का यह कातर वचन सुनकर मुनि की इन्द्रियाँ क्षुब्ध हो गयीं (उनका हृदय पिघल गया)। तब वे ध्यानस्थ हो गये और उसी आम्रवृक्ष की छाया में बैठे रहे। उसी समय वहाँ बैठे हुए मुनि की गोद में एक आम का फल गिरा। वह न हवा के चलने से गिरा था, न किसी तोते ने ही उस फल में अपनी चोंच गड़ायी थी। मुनि श्रेष्ठ चण्डकौशिक ने उस अनुपम फल को हाथ में ले लिया और उसे मन-ही-मन अभिमन्त्रित करके पुत्र की प्राप्ति कराने के लिये राजा को दे दिया। तत्पश्चात् उन महाज्ञानी महामुनि ने राजा से कहा- ‘राजन्! तुम्हारा मनोरथ पूर्ण हो गया। नरेश्वर! अब तुम अपनी राजधानी को लौट जाओ। ‘महाराज! यह फल तुम्हें पुत्र प्राप्ति करायेगा, अब तुम वन में जाकर तपस्या न करो; धर्मपूर्वक प्रजा का पालन करो। यही राजाओं का धर्म है। ‘नाना प्रकार के यज्ञों द्वारा भगवान् का यजन करो और देवराज इन्द्र को सोमरस से तृप्त करो। फिर पुत्र को राज्य सिंहासन पर बिठाकर वानप्रस्थाश्रम में आ जाना। ‘भूपाल! मैं तुम्हारे पुत्र के लिये आठ वर देता हूँ- वह ब्राह्मण भक्त होगा, युद्ध में अजेय होगा, उसकी युद्ध विषयक रुचि कभी कम न होगी,। ‘वह अतिथियों का प्रेमी होगा, दीन-दुखियों पर उसकी सदा कृपा-दृष्टि बनी रहेगी, उस का बल महान् होगा, लोक में उसकी अक्षय कीर्ति का विस्तार होगा और प्रजाजनों पर उसका सदा स्नेह बना रहेगा। ’ इस प्रकार चण्डकौशिक मुनि ने उसके लिये ये आठ वर दिये।। मुनि का यह वचन सुनकर उन परम बुद्धिमान् राजा बृहद्रथ ने उनके दोनों चरणों में मस्तक रखकर प्रणाम किया और अपने घर को लौट गये।[3]

राजा की पत्नियों के गर्भ से दो टुकड़े पैदा होना

भरत श्रेष्ठ! उन उत्तम नरेश ने उचित काल का विचार करके दोनों पत्नियों के लिये वह एक फल दे दिया। उन दोनों शुभस्वरूपा रानियों ने उस आम के दो टुकड़े करके एक-एक टुकड़ा खा लिया। होने वाली बात होकर ही रहती है, इसलिये तथा मुनि की सत्यवादिता के प्रभाव से वह फल खाने के कारण दोनों रानियों के गर्भ रह गये। उन्हें गर्भवती हुई देखकर राजा को बड़ी प्रसन्नता हुई। महाप्राज्ञ युधिष्ठिर! प्रसवकाल पूर्ण होने पर उन दोनों रानियों ने यथासमय अपने गर्भ से शरीर का एक-एक टुकड़ा पैदा किया। प्रत्येक टुकड़े में एक आँख, एक हाथ, एक पैर, आध पेट, आधा मुँह और कटि के नीचे का आधा भाग था। एक शरीर के उन टुकड़ों को देखकर वे दोनों भय के मारे थर-थर काँपने लगीं। उनका हृदय उद्विग्न हो उठा; अबला ही तो थीं। उन दोनों बहिनों ने अत्यन्त दुखी होकर परस्पर सलाह करके उन दोनों टुकड़ों को, जिन में जीव तथा प्राण विद्यमान थे, त्याग दिया। उन दोनों की धायें गर्भ के उन टुकड़ों को कपड़े से ढककर अन्तःपुर के दरवारजे से बाहर निकलीं और चौराहे पर फेंक कर चलीं गयीं।[3]

जरा राक्षसी का टुकड़ों को जुड़ना

पुरुष सिंह! चौराहे पर फेंके हुए उन टुकड़ों को रक्त और मांस खाने वाले जरा नाम की एक राक्षसी ने उठा लिया।[3] विधाता के विधान से प्रेरित होकर उस राक्षसी ने उन दोनों टुकड़ों को सुविधापूर्वक ले जाने योग्य बनाने की इच्छा से उस समय जोड़ दिया। नरश्रेष्ठ! उन टुकड़ों का परस्पर संयोग होते ही एक शरीरधारी वीर कुमार बन गया। राजन्! यह देखकर राक्षसी के नेत्र आश्चर्य से खिल उठे। उसे वह शिशु वज्र के सारतत्त्व का बना जान पड़ा। राक्षसी उसे उठाकर ले जाने में असमर्थ हो गयी। उस बालक ने अपने लाल हथेली वाले हाथों की मुट्ठी बाँधकर मुँह में डाल ली और अत्यन्त क्रुद्ध होकर जल से भरे मेघ की भाँति गम्भीर स्वर से रोना शुरू कर दिया। परंतप नरव्याघ्र! बालक के उस रोने -चिल्लाने के शब्द से रनिवास की सब स्त्रियाँ घबरा उठीं तथा राजा के साथ सहसा बाहर निकलीं। दूध से भरे हुए स्तनों वाली वे दोनों अबला रानियाँ भी, जो पुत्र प्राप्ति की आशा छोड़ चुकीं थीं, मलिन मुख हो सहसा बाहर निकल आयीं। उन दोनों रानियों को उस प्रकार उदास, राजा को संतान पाने के लिये उत्सुक तथा उस बालक को अत्यन्त बलवान् देखकर राक्षसी ने सोचा[4]-

राक्षसी का राजा को उनका पुत्र सौंपना

‘मैं इस राजा के राज्य में रहती हूँ। यह पुत्र की इच्छा रखता है; अतः इस धर्मात्मा तथा महात्मा नरेश के बालक पुत्र की हत्या करना मेरे लिये उचित नहीं है’। ऐसा विचार कर उस राक्षसी ने मानवी का रूप धारण किया और जैसे मेघमाला सूर्य को धारण करे, उसी प्रकार वह उस बालक को गोद में उठाकर भूपाल से बोली।[4] राक्षसी ने कहा - बृहद्रथ! यह तुम्हारा पुत्र है, जिसे मैंने तुम्हें दिया है। तुम इसे ग्रहण करो। ब्रह्मर्षि के वरदान एवं आशीर्वाद से तुम्हारी दोनों पत्नियों के गर्भ से इसका जन्म हुआ है। धायों ने इसे घर के बाहर लाकर डाल दिया था; किंतु मैंने इस की रक्षा की है। श्रीकृष्ण कहते हैं- भरत कुलभूषण! तब काशिराज की उन दोनों शुभलक्ष्णा कन्याओं उस बालक को तुरंत गोद में लेकर उसे स्तनों के दूध से सींच दिया। यह सब देख-सुनकर राजा के हर्ष की सीमा न रही। उन्होंने सुवर्ण की-सी कान्ति वाली उस रक्षासी से, जो स्वरूप से राक्षसी नहीं जान पड़ती थी, इस प्रकार पूछा।[4]

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 महाभारत सभा पर्व अध्याय 17 श्लोक 1-12
  2. 2.0 2.1 2.2 महाभारत सभा पर्व अध्याय 17 श्लोक 13-25
  3. 3.0 3.1 3.2 3.3 महाभारत सभा पर्व अध्याय 17 श्लोक 26-39
  4. 4.0 4.1 4.2 महाभारत सभा पर्व अध्याय 17 श्लोक 40-52

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