इन्द्र सभा का वर्णन

महाभारत सभा पर्व के ‘लोकपाल सभाख्यान पर्व’ के अंतर्गत अध्याय 7 के अनुसार इन्द्र सभा का वर्णन इस प्रकार है[1]-

नारद जी कहते हैं - कुरुनन्दन! इन्द्र की तेजोमयी दिव्य सभा सूर्य के समान प्रकाशित होती है।[2] प्रयत्नों से उसका निर्माण हुआ है। स्वंय इन्द्र ने[3] उस पर विजय पायी है। उसकी लंबाई डेढ़ सौ चौड़ाई सौ योजन की है। वह आकाश में विचरने वाली और इच्छा के अनुसार तीव्र या मन्द गति से चलने वाली है। उसकी ऊँचाई भी पाँच योजन की है। उसमें जीर्णता, शोक और थकावट आदि का प्रवेश नहीं है। वहाँ भय नहीं है, वह मंगलमयी और शोभा सम्पन्न है। उसमें ठहरने के लिये सुन्दर-सुन्दर महल और बैठने के लिये उत्तमोत्तम सिंहासन बने हुए हैं। वह रमणीय सभा दिव्य वृक्षों से सुशोभित होती है। भारत! कुन्तीनन्दन! उस सभा में सर्वश्रेष्ठ सिंहासन पर देवराज इन्द्र शोभा में लक्ष्मी के समान प्रतीत होने वाली इन्द्राणी शची के साथ विराजते हैं। उस समय वे अवर्णनीय रूप धारण करते हैं। उनके मस्तक पर किरीट रहता है और दोनों भुजाओं में लाल रंग के बाजू बंद शोभा पाते हैं। उनके शरीर पर स्वच्छ वस्त्र और कण्ठ में विचित्र माला सुशोभित होती है। वे लज्जा, कीर्ति और कान्ति- इन देवियों के साथ उस दिव्य सभा में विराजमान होते हैं। राजन! उस दिव्य सभा में सभी मरूद्गण और गृहवासी देवता सौ यज्ञों का अनुष्ठान पूर्ण कर लेने वाले महात्मा इन्द्र की प्रतिदिन सेवा करते हैं। सिद्ध, देवर्षि, साध्यदेवगण तथा मरुत्वान- ये सभी सुवर्ण-मालाओं से सुशोभित हो तेजस्वी रूप धारण किये एक साथ उस दिव्य सभा में बैठकर शत्रुदमन महामना देवराज इन्द्र की उपासना करते हैं। वे सभी देवता अपने अनुचरों[4] के साथ वहाँ विराजमान होते हैं। वे दिव्य रूप धारी होने के साथ ही उत्तमोत्तम अलंकारों से अलंकृत रहते हैं।

कुन्तीनन्दन! इसी प्रकार जिनके पाप धुल गये हैं, वे अन्नि के समान उद्दीप्त होने वाले सभी निर्मल देवर्षि वहाँ इन्द्र की उपासना करते हैं। वे देवर्षिगण तेजस्वी, सोमयाग करने वाले तथा शोक और चिन्ता से शून्य हैं। पराशर, पर्वत, सावर्णि, गालव, शंख, लिखित, गौरशिरा मुनि, दुर्वासा, क्रोधन, श्येन, दीर्घतमा मुनि, पवित्रपाणि, सावर्णि (द्वितीय), याज्ञवल्क्य, भालुकि, उद्दालक, श्वेतकेतु, ताण्डव्य, भाण्डायनि, हविष्मान, गरिष्ठ, राजा हरिश्चंद्र, हृद्य, उदरशाण्डिल्य, पराशरनन्दन व्यास, कृषीवल, वातस्कन्ध, विशाख, विधाता, काल, करालदन्त, त्वष्टा, विश्वकर्मा तथा तुम्बुरु- ये और दूसरे अयोनिज या योनिज मुनि एवं वायु पीकर रहने वाले तथा हविष्य-पदार्थों को खाने वाले महर्षि सम्पूर्ण लोकों के अधीश्वर वज्रधारी इन्द्र की उपासना करते हैं। भरतवंशी नरेश पाण्डु नन्दन! सहदेव, सुनीथ, महातपस्वी वाल्मीकि, सत्यवादी शमीक, सत्यप्रतिज्ञ प्रचेता, मेधातिथि, वामदेव, पुलस्त्य, पुलह, क्रतु, मरुत्त, मरीचि, महातपस्वी स्थाणु, कक्षीवान, गौतम, तार्क्ष्य, वैश्वानरमुनि, षडर्तु, कवष, धूम्र, रैभ्य, नल, परावसु, स्वस्त्यात्रेय, जरत्कारु, कहोल, काश्यप, विभाण्डक, ऋष्यश्रृंग, उन्मुख, विमुख, कालकवृक्षीय मुनि, आश्राव्य, हिरण्मय, संवर्त, देवहव्य, पराक्रमी विष्वक्सेन, कण्व, कात्यायन, गार्ग्य, कौशिक, दिव्यजल, ओषधियाँ, श्रद्धा, मेधा, सरस्वती, अर्थ, धर्म, काम, विद्युत, जलधरमेघ, वायु, गर्जना करने वाले बादल, प्राची दिशा, यज्ञ के हविष्य को वहन करने वाले सत्ताईस पावक,[5] सम्मिलित अग्नि और सोम, संयुक्त इन्द्र और अग्नि, मित्र, सविता, अर्यभा, भग, विश्वेदेव, साध्य, बृहस्पति, शुक्र, विश्वावसु, चित्रसेन, सुमन, तरुण, विविध यज्ञ, दक्षिणा, ग्रह, तारा और यज्ञनिर्वाहक मन्त्र- ये सभी वहाँ इन्द्रसभा में बैठते हैं।[1]

राजन! इसी प्रकार मनोहर अप्सराएँ तथा सुन्दर गन्धर्व नृत्य, वाद्य, गीत एवं नाना प्रकार के हास्यों द्वारा देवराज इन्द्र का मनोरंजन करते हैं। इतना ही नहीं, वे स्तुति, मंगल पाठ और पराक्रम सूचक कर्मों के गायन द्वारा बल और वृत्रनामक असुरों के नाशक महात्मा इन्द्र का स्तवन करते हैं। ब्रह्मर्षि, राजर्षि तथा सम्पूर्ण देवर्षि माला पहने एवं वस्त्राभूषणों से विभूषित हो, नाना प्रकार के दिव्य विमानों द्वारा अग्नि के समान देदीप्यमान होते हुए वहाँ आते-जाते रहते हैं। बृहस्पति और शुक्र वहाँ नित्य विराजते हैं। ये तथा और भी बहुत से संयमी महात्मा जिनका दर्शन चन्द्रमा के समान प्रिय है, चन्द्रमा की भाँति चमकीले विमानों द्वारा वहाँ उपस्थित होते हैं। राजन! भृगु और सप्तर्षि, जो साक्षात ब्रह्माजी के समान प्रभावशाली हैं, ये भी इन्द्र-सभा की शोभा बढ़ाते हैं। महाबाहु नरेश! शतक्रतु इन्द्र की कमल-मालाओं से सुशोभित सभा मैंने अपनी आँखों देखी है। अब यमराज की सभा का वर्णन सुनो।[6]

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 महाभारत सभा पर्व अध्याय 7 श्लोक 1-23
  2. विश्वकर्मा के
  3. सौ यज्ञों का अनुष्ठान करके
  4. सेवकों
  5. नीलकण्ठ ने अपनी टीका में इन सत्ताईस पावकों के नाम इस प्रकार बताये हैं- अंगिरा, दक्षिणाग्नि, गार्हपत्याग्नि, आहवनीयाग्नि, निर्मन्थ्य, वैद्युत , शूर, संवर्त, लौकिक, जठराग्नि, विषग, क्रव्यात, क्षेमवान, वैष्णव, दस्युमान, बलद, शान्त, पुष्ट, विभावसु, ज्योतिष्मान, भरत, भद्र, स्विष्टकृत, वसुमान, क्रतु, सोम और पितृमान।
  6. महाभारत सभा पर्व अध्याय 7 श्लोक 24-30

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