श्रीकृष्ण की राजसूय यज्ञ की सम्मति

महाभारत सभा पर्व के ‘राजसूयारम्भ पर्व’ के अंतर्गत अध्याय 14 के अनुसार श्रीकृष्ण की राजसूय यज्ञ की सम्मति की कथा का वर्णन इस प्रकार है[1]-

श्रीकृष्ण द्वारा युधिष्ठिर को राजाओं की श्रेष्ठता बताना

श्रीकृष्ण ने कहा- महाराज! आप में सभी सद्गुण विद्यमान हैं, अतः आप राजसूय यज्ञ करने के लिये योग्य हैं। भारत! आप सब कुछ जानते हैं, तो भी आपके पूछने पर मैं इस विषय में कुछ निवेदन करता हूँ।। जमदग्निनन्दन परशुराम ने पूर्वकाल में जब क्षत्रियों का संहार किया था, उस समय लुक-छिपकर जो क्षत्रिय शेष रह गये, वे पूर्ववर्ती क्षत्रियों की अपेक्षा निम्न कोटि के हैं। इस प्रकार इस समय संसार में नाममात्र के क्षत्रिय रह गये हैं। पृथ्वीपते! इन क्षत्रियों ने पूर्वजों के कथनानुसार सामूहिक रूप से यह नियम बना लिया है कि हम में से जो समस्त क्षत्रियों को जीत लेगा, वही सम्राट् होगा। भरत- श्रेष्ठ! यह बात आप को भी मालूम ही होगी। इस समय श्रेणिबद्ध (सब-के-सब ) राजा तथा भूमण्डल के दूसरे क्षत्रिय भी अपने को सम्राट् पुरूरवा तथा इक्ष्वाकु की संतान कहते हैं। भरतश्रेष्ठ राजन्! पुरूरवा तथा इक्ष्वाकु के वंश में जो नरेश आज कल हैं, उन के एक सौ कुल विद्यमान हैं; यह बात आप अच्छी तरह जान लें। महाराज! आज कल राजा ययाति के कुल में गुण की दृष्टि से भोजवंशियों का ही अधिक विस्तार हुआ है। भोजवंशी बढ़कर चारों दिशाओं में फैल गये हैं तथा आज के सभी क्षत्रिय उन्हीं की धन-सम्पत्ति का आश्रय ले रहें हैं। राजन्! अभी-अभी भूपाल जरासंध उन समस्त क्षत्रिय-कुलों की राजलक्ष्मी को लाँघकर राजाओं द्वारा सम्राट् के पद पर अभिषिक्त हुआ है और वह अपने बल-पराक्रम से सब पर आक्रमण करके समस्त राजाओं का सिरमौर हो रहा है। जरासंध मध्यभूमि का उपभोग करते हुए समस्त राजाओं में परस्पर फूट डालने की नीती को पसंद करता है। इस समय वही सबसे प्रबल एवं उत्कृष्ट राजा है। यह सारा जगत् एकमात्र उसी के वश में है। महाराज! वह अपनी राजनीतिक युक्तियों से इस समय सम्राट् बन बैठा है। राजन्! कहते हैं, प्रतापी राजा शिशुपाल सब प्रकार से जरासंध का आश्रय लेकर ही उस का प्रधान सेनापति हो गया है। युधिष्ठिर! माया युद्ध करने वाला महाबली करूषराज दन्तवक्र भी जरासंध के सामने शिष्‍य की भाँति हाथ जोड़े खड़ा रहता है। विशालकाल अन्य दो महापराक्रमी योद्धा सुप्रसिद्ध हंस और डिम्भक भी महाबली जरासंध की शरण ले चुके थे। करूष देश का राजा दन्तवक्र, करभ और मेघवाहन - ये सभी सिर पर दिव्य मणिमय, मुकुट धारण करते हुए भी जरासंध को अपने मस्तक की अद्भुत मणि मानते हैं (अर्थात् उस के चरणों में सिर झुकाते रहते हैं)। महाराज! जो मुर और नरक नामक देश का शासन करते हैं, जिन की सेना अनन्त है, जो वरुण के समान पश्चिम दिशा के अधिपति कहे जाते हैं, जिन की वृद्धावस्था हो चली है तथा जो आप के पिता के मित्र रहे हैं, वे यवनाधिपति राजा भगदत्त भी वाणी तथा क्रिया द्वारा भी जरासंध के सामने विशेष रूप से नतमस्तक रहते हैं; फिर भी वे मन-ही-मन तुम्हारे स्नेहपाश में बँधे हैं और जैसे पिता अपने पुत्र पर प्रेम रखता है, वैसे ही उनका तुम्हारे ऊपर वात्सल्य भाव बना हुआ है।[1]

श्रीकृष्ण का युधिष्ठिर को सभी राजाओं के गुणों व अवगुणों के विषय में बताना

जो भारत भूमि के पश्चिम से लेकर दक्षिण तक के भाग पर शासन करते हैं, आप के मामा वे शत्रु संहारक शूरवीर कुन्ति भोज कुलवर्द्धक पुरूजित् अकेले ही स्नेहवश आपके प्रति प्रेम और आदर का भाव रखते हैं। जिसे मैंने पहले मारा नहीं, उपेक्षावश छोड़ रक्खा है, जिस की बुद्धि बड़ी खोटी है, जो चेदि देश में पुरुषोत्तम समझा जाता है, इस जगत् में जो अपने-आप को पुरुषोत्तम ही कहकर बताया करता है और मोहवश सदा मेरे शंख-चक्र आदि चिह्नों को धारण करता है; वंग, पुण्ड्र तथा किरात देश का जो राजा है तथा लोक में वासुदेव के नाम से जिस की प्रसिद्धि हो रही है, वह बलवान् राजा पौण्ड्रक भी जरासंध से ही मिला हुआ है। राजन्! जो पृथ्वी के एक चौथाई भाग के स्वामी हैं, इन्द्र के सखा हैं, बलवान् हैं, जिन्होंने अस्त्र-विद्या के बल से पाण्डय, क्रथ और कैशिक देशों पर विजय पायी है, जिन का भाई आकृति जमदग्निनन्दन परशुराम के समान शौर्य सम्पन्न है, वे भोजवंशी शत्रुहन्ता राजा भीष्मक (मेरे श्वशुर होते हुए) भी मगध राज जरासंध के भक्त हैं। हम सदा उन का प्रिय करते रहते हैं, उनके प्रति नम्रता दिखाते हैं और उनके सगे-सम्बन्धी हैं; तो भी वे हम-जैसे अपने भक्तों तो नहीं अपनाते हैं और हमारे शत्रुओं से मिलते-जुलते हैं। राजन्! वे अपने बल और कुल की ओर भी ध्यान नहीं देते, केवल जरासंध के उज्ज्वल यश की ओर देखकर उस के आश्रित बन गये हैं। प्रभो! इसी प्रकार उत्तर दिशा में निवास करने वाले भोजवंशियों के अठारह कुल जरासंध के ही भय से भागकर पश्चिम दिशा में रहने लगे हैं। शूर सेन, भद्रकार, बोध, शाल्व, पटच्चर, सुस्थल, सुकुट्ट, कुलिन्द, कुन्ति तथा शाल्वायन आदि राजा भी अपने भाइयों तथा सेवकों के साथ दक्षिण दिशा में भाग गये हैं। जो लोग दक्षिण पन्चाल एवं पूर्वी कुन्ति प्रदेश में रहते थे, वे सभी क्षत्रिय तथा कोशल, मत्स्य, संन्यस्त पाद आदि राजपूत भी जरासंध भय से पीड़ित हो उत्तर दिशा को छोड़कर दक्षिण दिशा का ही आश्रय ले चुके हैं। उसी प्रकार समस्त पन्चाल देशीय क्षत्रिय जरासंध के भय से दुखी हो अपना राज्य छोड़कर चारों दिशाओं में भाग गये हैं।[2]

जरासंध द्वारा पीड़ित कृष्ण का अपनी कथा युधिष्ठिर को सुनाना

कुछ समय पहले की बात है, व्यर्थ बुद्धि वाले कंस ने समस्त यादवों को कुचलकर जरासंध की दो पुत्रियों के साथ विवाह किया। उन के नाम थे अस्ति और प्राप्ति। वे दोनों अबलाएँ सहदेव की छोटी बहिनें थीं। निःसार बुद्धिवाला कंस जरासंध के ही बल से अपने जाति-भाइयों को अपमानित करके सब का प्रधान बन बैठा था। यह उसका बहुत बड़ा अत्याचार था। उस दुरात्मा से पीड़ित हो भोजराज वंश के बड़े-बूढ़े लोगों ने जाति-भाईयों की रक्षा के लिये हम से प्रार्थना की। तब मैंने आहुक की पुत्री सुतनु का विवाह अक्रुर से करा दिया और बलराम जी को साथी बनाकर जाति-भाइयों का कार्य सिद्ध किया। मैंने और बलराम जी ने कंस और सुनामा को मार ड़ाला। इस से कंस का भय तो जाता रहा; परंतु जरासंध कुपित हो हम से बदला लेने को उद्यत हो गया। राजन्! उस समय भोजवंश के अठारह कुलों (मन्त्री - पुरोहित आदि) ने मिल-कर इस प्रकार विचार-विमर्श किया।[2] यदि हम लोग शत्रुओं का अन्त करने वाले बड़े-बड़े अस्त्रों द्वारा निरन्तर आघात करते रहें, तो भी तीन सौ वर्षों में भी उस की सेना का नाश नहीं कर सकते। ‘क्योंकि बलवानों में श्रेष्ठ हंस और डिम्भक उस के सहायक हैं, जो बल में देवताओं के समान हैं। उन दोनों को यह वरदान प्राप्त है कि वे किसी अस्त्र-शस्त्र से नहीं मारे जा सकते’। भैया युधिष्ठिर! मेरा तो ऐसा विश्वास है कि एक साथ रहने वाले वे दोनों वीर हंस और डिम्भक तथा पराक्रमी जरासंध - ये तीनों मिलकर तीनों लोकों का सामना करने के लिये पर्याप्त थे। बुद्धिमानों में श्रेष्ठ नरेश! यह केवल मेरा मत नहीं है, दूसरे भी जितने भूमिपाल हैं, उन सबका यही विचार रहा है। जरासंध के साथ जब सत्रहवीं बार युद्ध हो रहा था, उसमें हंस नाम से प्रसिद्ध कोई दूसरा राजा भी लड़ने आया था, वह उस युद्ध में बलराम जी के हाथ से मारा गया। भारत! यह देख किसी सैनिक ने चिल्लाकर कहा- ‘हंस मारा गया। ’ राजन्! उसकी वह बात कान में पड़ते ही डिम्भक अपने भाई को मरा हुआ जान यमुना जी में कूद पड़ा। मैं हंस के बिना इस संसार में जीवित नहीं रह सकता। ’ ऐसा निश्चय करके डिम्भक ने अपनी जान दे दी।[3] डिम्भक की इस प्रकार मृत्यु हुई सुनकर शत्रु नगरी को जीतने वाला हंस भी भाई के शोक से यमुना में ही कूद पड़ा और उसी में डूबकर मर गया। भरत श्रेष्ठ! उन दोनों की मृत्यु हुई सुनकर राजा जरासंध हताश हो गया और उत्साह शून्य हृदय से अपनी राजधानी को लौट गया। शत्रुसूदन! उस के इस प्रकार लौट जाने पर हम सब लोग पुनः मथुरा में आनन्दपूर्वक रहने लगे। शत्रुदमन राजेन्द्र! फिर जब पति के शोक से पीड़ित हुई कंस की कमललोचना भार्या अपने पिता मगध नरेश जरासंध के पास जाकर उसे बार-बार उकसाने लगी कि मेरे पति के घातक को मार डालो,। तब हम लोग भी पहले की की हुई गुप्त मन्त्रणा को स्मरण करके उदास हो गये। महाराज! फिर तो हम मथुरा भाग खड़े हुए। राजन्! उस समय हम ने यही निश्चय किया कि ‘यहाँ की विशाल सम्पत्ति को पृथक-पृथक बाँटकर थोड़ी-थोड़ी करके पुत्र एवं भाई-बन्धुओं के साथ शत्रु के भय से भाग चलें। ’ ऐसा विचार करके हम सब ने पश्चिम दिशा की शरण ली। और राजन्! रैवतक पर्वत से सुशोभित रमणीय कुशस्थली पुरी में जाकर हम लोग निवास करने लगे। हमने कुशस्थली दुर्ग की ऐसी मरस्मत करायी कि देवताओं के लिये भी उस में प्रवेश करना कठिन हो गया। अब तो उस दुर्ग में रहकर स्त्रियाँ भी युद्ध कर सकती हैं, फिर वृष्णि कुल के महारथियों की तो बात ही क्या है ? शत्रुसूदन! हम लोग द्वारका पुरी में सब ओर से निर्भय होकर रहते हैं। कुरुश्रेष्ठ! गिरिराज रैवतक की दुर्गमता का विचार करके अपने को जरासंध के संकट से पार हुआ मानकर हम सभी मधुवंशियों को बड़ी प्रसन्नता प्राप्त हुई है।[3]

श्रीकृष्ण द्वारा युधिष्ठिर को वीरों और शत्रुओं के नाम बताना

राजन्! हम जरासंध के अपराधी हैं, अतः शक्तिशाली होते हुए भी जिस स्थान से हमारा सम्बन्ध था, उसे छोड़कर गोमान् (रैवतक) पर्वत के आश्रम में आ गये हैं। रैवतक दुर्ग की लम्बाई तीन योजन की है। एक-एक योजन पर सेनाओं के तीन-तीन दलों की छावनी है। प्रत्येक योजन के अन्त में सौ-सौ द्वार हैं, जो सेनाओं से सुरक्षित हैं। वीरों का पराक्रम ही उस गढ़ का प्रधान फाटक है। युद्ध में उन्मत्त होकर पराक्रम दिखाने वाले अठारह यादववंशी क्षत्रियों से वह दुर्ग सुरक्षित है। हमारे कुल में अठाहर हजार भाई हैं। आहुक के सौ पुत्र हैं, जिन में से एक-एक देवताओं के समान पराक्रमी हैं। अपने भाई के साथ चारूदेष्ण, चक्रदेव, सात्यकि, मैं, बलरामजी, साम्ब और प्रद्युमन- ये सात अतिरथी वीर हैं। राजन्! अब मुझ से दूसरों का परिचय सुनिये। कृतवर्मा, अनाधृष्टि, समीक, समितिंजय, कंक, शंकु और कुन्ति ये सात महारथी हैं। अन्धक भोज के दो पुत्र और बूढ़े राजा उग्रसेन को भी गिन लेने पर उन महारथियों की संख्या दस हो जाती है। ये सभी वीर वज्र के समान सुदृढ़ शरीर वाले, पराक्रमी और महारथी हैं, जो मध्यदेश का स्मरण करते हुए वृष्णिकुल में निवास करते हैं। वितदु, झल्लि, बभ्रु, उद्धव, विदूरथ, वसुदेव तथा उग्रसेन- ये सात मुख्यमन्त्री हैं। प्रसेनजित् और सत्राजित् -ये दोनों जुड़वे बन्धु कुबेरेपम सद्गुणों से सुशोभित हैं। उन के पास जो ‘स्यमन्तक’ नामक मणि है, उस से प्रचुर मात्रा में सुवर्ण झरता रहता है।। भरतवंशशिरोमणे! आप सदा ही सम्राट् के गुणों से युक्त हैं। अतः भारत! आप को क्षत्रिय समाज में अपने को सम्राट् बना लेना चाहिये। दुर्योधन, भीष्म, द्रोण, अश्वत्थामा, कृपाचार्य, कर्ण, शिशुपाल, रुक्मी, धनुर्धर एकलव्य, द्रुम, श्वेत, शैब्य तथा शकुनि- इन सब वीरों को संग्राम में जीते बिना आप कैसे वह यज्ञ कर सकते हैं ?[4]-

श्रीकृष्ण का युधिष्ठिर को जरासन्ध का वध करने के लिए प्रेरित करना

परंतु ये नरश्रेष्ठ आप का गौरव मानकर युद्ध नहीं करेंगे। किंतु राजन्! मेरी सम्मति यह है कि जब तक महाबली जरासंध जीवित है, तब तक आप राजसूय यज्ञ पूर्ण नहीं कर सकते। उस ने सब राजाओं को जीतकर गिरिव्रज में इस प्रकार कैद कर रक्खा है, मानो सिंह ने किसी महान् पर्वत की गुफा में बड़े-बड़े गजराजाओं को रोक रक्खा हो। शत्रुदमन! राजा जरासंध ने उमावल्लभ महात्मा महादेव जी की उग्र तपस्या के द्वारा आराधना करके एक विशेष प्रकार की शक्ति प्राप्त कर ली है; इसीलिये वे सभी राजा उस से परास्त हो गये हैं। वह राजाओं की बलि देकर एक यज्ञ करना चाहता है। नृपश्रेष्ठ! वह अपनी प्रतिज्ञा प्रायः पूरी कर चुका है। क्योंकि उस ने सेना के साथ आये हुए राजाओं को एक-एक करके जीता है और अपनी राजधानी में लाकर उन्हें कैद करके राजाओं का बहुत बड़ा समुदाय एकत्र कर लिया है। महाराज! उस समय हम भी जरासंध के भय से पीडित हो मथुरा को छोड़कर द्वारका पुरी में चले गये (और अब तक वहीं निवास करते हैं)। राजन्! यदि आप इस यज्ञ को पूर्ण रूप से सम्पन्न करना चाहतें हैं तो उन कैदी राजाओं को छुड़ाने और जरासंध को मारने का प्रयत्न कीजिये। बुद्धिमानों में श्रेष्ठ कुरुनन्दन! ऐसा किये बिना राजसूय यज्ञ का आयोजन पूर्णरूप से सफल न हो सकेगा। भरत श्रेष्ठ! आप जरासंध के वध का उपाय सोचिये। उस के जीत लिये जाने पर समस्त भूपालों की सेनाओं पर विजय प्राप्त हो जायगी।। निष्पाप नरेश! मेरा मत तो यही है, फिर आप जैसा उचित समझें, करें। ऐसी दशा में स्वयं हेतु और युक्तियों द्वारा कुछ निश्चय करके मुझे बताइये।[4]


टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 महाभारत सभा पर्व अध्याय 14 श्लोक 1-15
  2. 2.0 2.1 महाभारत सभा पर्व अध्याय 14 श्लोक 16-35
  3. 3.0 3.1 महाभारत सभा पर्व अध्याय 14 श्लोक 36-52
  4. 4.0 4.1 महाभारत सभा पर्व अध्याय 14 श्लोक 53-70

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