श्रीकृष्ण द्वारा मगध की राजधानी की प्रशंसा

महाभारत सभा पर्व के ‘जरासंध वध पर्व’ के अंतर्गत अध्याय 21 के अनुसार श्रीकृष्ण द्वारा मगध की राजधानी की प्रशंसा का वर्णन इस प्रकार है[1]-

श्रीकृष्ण द्वारा मगध का मनोरम वर्णन

श्रीकृष्ण बोले - कुन्तीनन्दन! देखो, वह मगध देश की सुन्दर एवं विशाल राजधानी कैसी शोभा पा रही है। वहाँ पशुओं की अधिकता है। जल की भी सदा पूर्ण सुविधा रहती है। यहाँ भरा-पूरा यह नगर बड़ा मनोहर प्रतीत होता है। तात! यहाँ विहारोपयोगी विपुल, वराह, वृर्षभ (ऋषभ), ऋषिगिरि (मातंग) तथा पाँचवाँ चैत्यक नाम पर्वत है। बड़े बडे़ शिखर वाले ये पाँचों सुन्दर पर्वत शीतल छाया वाले वृक्षों से सुशोभित हैं और एक साथ मिलकर एक-दूसरे के शरीर का स्पर्श करते हुए मानो गिरिव्रज नगर की रक्षा कर रहे हैं। वहाँ लोध नामक वृक्षों के कई मनोहर वन हैं, जिनसे वे पाँचों पर्वत ढके हुए से जान पड़ते हैं। उनकी शाखाओं के अग्रभाग में फूल ही फूल दिखायी देते है। लोधों के ये सुगन्धित वन कामीजनों को बहुत प्रिय हैं। यहीं अत्यन्त कठोर व्रत का पालन करने वाले महामना गौतम ने उशीनरदेश की शूद्रजातीय कन्या के गर्भ से काक्षीवान् आदि पुत्रों को उत्पन्न किया था। इसी कारण वह गौतम मुनि राजाओं के प्रेम से वहाँ आश्रम में रहता तथा मगधदेशीय राजवंश की सेवा करता है। अर्जुन! पूर्वकाल में अंग-वंग आदि महाबली राजा भी गौतम के घर में आकर आनन्दपूर्वक रहते थे। पार्थ! गौतम के आश्रम के निकट लहलहाती हुई पीपल और लोधों की इन सुन्दर एवं मनोरम वनषड्क्तियों को तो देखा। यहाँ अर्बुद और शक्रवापी नाम वाले दो नाग रहते हैं, जो अपने शत्रुओं को संतप्त करने वाले हैं। यहीं स्वस्तिक नाग और मणि नाग के भी उत्तम भवन हैं। मनु ने मगध देश के निवासियों को मेघों के लिये अपरिहार्य (अनुग्राह्य) कर दिया है; (अतः वहाँ सदा ही बादल समय पर यथेष्ट वर्षा करते हैं)। चण्डकौशिक मुनि और मणिमान् नाग भी मगध देश पर अनुग्रह कर चुके हैं। श्वेतवर्ण के वृषभ, विपुल, वाराह, गिरिश्रेष्ठ चैत्यक तथा मातंग गिरि - इन सभी श्रेष्ठ पर्वतों पर सम्पूर्ण सिद्धों के विशाल भवन हैं तथा यतियों, मुनियों और महात्माओं के बहुत से आश्रम हैं।। वृषभ, महापराक्रमी तमाल, गन्धर्वों, राक्षसों तथा नागों के भी निवास स्थान उन पर्वतों की शोभा बढ़ाते हैं।। इस प्रकार चारों ओर से दुर्धर्ष उस रमणीय नगर को पाकर जरासंध को यह अभिमान बना रहता है कि मुझे अनुपम अर्थसिद्धि प्राप्त होगी। आज हम लोग उसके घर पर ही चलकर उसका सारा घमंड हर लेंगे।[1]

भीम, अर्जुन और कृष्ण का चैत्यक पर्वत के परकोट पर आक्रमण

वैशम्पायन जी कहते हैं - जनमेजय! ऐसी बातें करते हुए वे सभी महातेजस्वी भाई श्रीकृष्ण, अर्जुन और भीमसेन मगध की राजधानी में प्रवेश करने के लिये चल पड़े। वह नगर चारों वर्णों के लोगों से भरा-पूरा था। उसमें रहने वाले सभी लोग हष्ट-पुष्ट दिखायी देते थे। वहाँ अधिकाधिक उत्सव होते रहते थे। कोई भी उसको जीत नहीं सकता था। ऐसे गिरिव्रज के निकट वे तीनों जा पहुँचे। वे मुख्य फाटक पर न जाकर नगर के चैत्यक नामक ऊँचे पर्वत पर चले गये। उस नगर में निवास करने वाले मनुष्य तथा बृहद्रथ परिवार के लोग उस पर्वत की पूजा किया करते थे। मगध देश की प्रजा को यह चैत्यक पर्वत बहुत ही प्रिय था।[1] उस स्थान पर राजा बृहद्रथ ने (बृषभरूपधारी) ऋषभ नामक एक मांसभक्षी राक्षस से युद्ध किया और उसे मारकर उसकी खाल से तीन बड़े-बड़े नगाडे़ तैयार कराये, जिन पर चोट करने से महीने भर तक आवाज होती रहती थी। राजा ने उन नगाड़ों को उस राक्षस के ही चमडे़ से मढ़ाकर अपने नगर में रखवा दिया। जहाँ वे नगाड़े बजते थे, वहाँ दिव्य फूलों की वर्षा होने लगती थी। इन तीनों वीरों ने उपर्युक्त तीनों नगाड़ो को फोड़कर चैत्यक पर्वत के परकोटे पर आक्रमण किया। उन सबने अनेक प्रकार के आयुध लेकर द्वार के सामने मगध निवासियों के परम प्रिय उस चैत्यक पर्वत पर धावा किया था। जरासंध को मारने की इच्छा रखकर मानो वे उसके मस्तक पर आघात कर रहे थे। उस चैत्यक का विशाल शिखर बहुत पुराना, किंतु सुदृढ़ था। मगध देश में उसकी बड़ी प्रतिष्ठा थी। गन्ध और पुष्प की मालाओं से उसकी सदा पूजा की जाती थी। श्रीकृष्ण आदि तीनों वीरों ने अपनी विशाल भुजाओं से टक्कर मारकर उस चैत्यक पर्वत के शिखर को गिरा दिया। तदनन्तर वे अत्यन्त प्रसन्न होकर मगध की राजधानी गिरिव्रज के भीतर घुसे।[2]

जरासंध का आक्रमण की सूचना से व्रत रखना

इसी समय वेदों के पारगामी विद्वान् ब्राह्मणों ने अनेक अपशकुन देखकर राजा जरासंध को उनके विषय में सूचित किया। पुरोहितों ने राजा को हाथी पर बिठाकर उसके चारों ओर प्रज्वलित आग घुमायी। प्रतापी राजा जरासंध ने अनिष्ट की शान्ति के लिये व्रत की दीक्षा के नियमों का पालन करते हुए उपवास किया।[3]

श्रीकृष्ण, अर्जुन और भीम का नगर में प्रवेश करना

भारत! इधर भगवान् श्रीकृष्ण, भीमसेन और अर्जुन स्नातक व्रत का पालन करने वाले ब्राह्मणों के वेष में अस्त्र शस्त्रों का परित्याग करके अपनी भुजाओं से ही आयुधों का काम लेते हुए जरासंध के साथ युद्ध करने की इच्छा रखकर नगर में प्रविष्ट हुए। उन्होंने खाने-पीने की वस्तुओं, फूल-मालाओं तथा अन्य आवश्यक पदार्थों की दूकानों से सजे हुए हाट-बाट की अपूर्व शोभा और सम्पदा देखी। नगर का वह वैभव बहुत बढ़ा-चढ़ा, सर्वगुण सम्पन्न तथा समस्त कामनाओं की पूर्ति करने वाला था। उस गली की अद्भुत समृद्धि को देखकर वे महाबली नरश्रेष्ठ श्रीकृष्ण, भीम और अर्जुन एक माली से बलपूर्वक बहुत सी मालाएँ लेकर नगर की प्रधान सड़क से चलने लगे। उन सबके वस्त्र अनेक रंग के थे। उन्होंने गले में हार और कानों में चमकीले कुण्डल पहन रक्खे थे। वे क्रमशः बुद्धिमान् राजा जरासंध के महल के समीप जा पहुँचे। जैसे हिमालय की गुफाओं में रहने वाले सिंह गौओं का स्थान ढूँढते हुए आगे बढ़ते हों, उसी प्रकार वे तीनों वीर राजभवन की तलाश करते हुए वहाँ पहुँचे थे। महाराज! युद्ध में विशेष शोभा पाने वाले उन तीनों वीरों की भुजाएँ साखू के लट्ठे जैसी सुशोभित हो रहीं थी। उन पर चन्दन और अंगुरु का लेप किया गया था।[3]

जरासंध द्वारा श्रीकृष्ण और पाण्डव कुमारों का सत्कार

शालवृक्ष के तने के समान ऊँचे डील और चौड़ी छाती वाले गजराज सदृश उन बलवान् वीरों को देखकर मगध निवासियों को बड़ा आश्चर्य हुआ। वे नरश्रेष्ठ लोगों से भरी हुई तीन ड्योढ़ियों को पार करके निर्भय एवं निश्चिन्त हो बड़े अभिमान के साथ राजा जरासंध के निकट गये। वे पाद्य, मधुपर्क और गोदान पीने के योग्य थे। उनका सर्वत्र सत्कार होता था। उन्हें आया देख जरासंध उठकर खड़ा हो गया और उसने विधिपूर्वक उनका आतिथ्य सत्कार किया। तदनन्तर शक्तिशाली राजा ने इन तीनों अतिथियों से कहा - ‘आप लोगों का स्वागत है।’ जनमेजय! उस समय अर्जुन और भीमसेन तो मौन थे। उनमें से महाबुद्धिमान् श्रीकृष्ण ने यह बात कही - ‘राजेन्द्र! ये दोनों एक नियम ले चुके हैं; अतः आधी रात से पहले नहीं बोलते। आधी रात के बाद ये दोनों आपसे बात करेंगे’। तब राजा उन्हें यज्ञशाला में ठहराकर स्वयं राजभवन में चला गया। फिर आधी रात होने पर जहाँ वे ब्राह्मण ठहरे थे, वहाँ वह गया। राजन्! उसका यह नियम भूमण्डल में विख्यात था। भारत! युद्धविजयी राजा जरासंध स्नातक ब्राह्मणों का आगमन सुनकर आधी रात के समय भी उनकी आवभागत के लिये उनके पास चला जाता था।[4]

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 1.2 महाभारत सभा पर्व अध्याय 21 श्लोक 1-15
  2. महाभारत सभा पर्व अध्याय 21 श्लोक 16-28
  3. 3.0 3.1 महाभारत सभा पर्व अध्याय 21 श्लोक 16-28
  4. महाभारत सभा पर्व अध्याय 21 श्लोक 29-46

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