महाभारत सभा पर्व के ‘द्यूत पर्व’ के अंतर्गत अध्याय 70 के अनुसार दुर्योधन के छल-कपटयुक्त वचन और भीम का रोषपूर्ण उद्गार का वर्णन इस प्रकार है[1]-
विषय सूची
दुर्योधन का सभा में कपटी बातें कहना
वैशम्पायनजी कहते हैं - जनमेजय! महारानी द्रौपदी को वहाँ आर्त होकर कुदरी की भाँति बहुत विलाप करती देखकर भी सभा में बैठे हुए राजालोग दुर्योधन के भय से भला या बुरा कुछ भी नहीं कह सके। राजाओं के बेटों और पोतों का मौन देखकर धृतराष्ट्र पुत्र दुर्योधन ने उस समय मुस्कराते हुए पांचाल राजकुमारी द्रौपदी से यह बात कही। दुर्योधन बोला - द्रौपदी! तुम्हारा यह प्रश्न तुम्हारे ही पति महाबली भीम, अर्जुन, सहदेव और नकुल पर छोड़ दिया जाता है। ये ही तुम्हारी पूछी हुई बात का उत्तर दें। पांचालि! इन श्रेष्ठ राजाओं के बीच ये लोग यह स्पष्ट कह दें कि युधिष्ठिर को तुम्हें दाँव पर रखने का कोई अधिकार नहीं था। सभी पाण्डव मिलकर धर्मराज युधिष्ठिर को झूठा ठहरा दें। फिर तुम दास्यभाव से मुक्त कर दी जाओगी। ये धर्मपुत्र महात्मा युधिष्ठिर इन्द्र के समान तेजस्वी तथा सदा धर्म में स्थित रहने वाले हैं। तुमको दाँव पर रखने का इन्हें अधिकार था या नहीं! ये स्वयं ही कह दें; फिर इन्हीं के कथनानुसार तुम शीघ्र दासीपन या अदासीपन किसी एक का आश्रय लो। द्रौपदी! सभी उत्तम स्वभाव वाले कुरुवंशी इस सभा में तुम्हारे लिये ही दुखी हैं और तुम्हारे मन्दभाग्य पतियों को देखकर तुम्हारे प्रश्न का ठीक-ठीक उत्तर नहीं दे पाते हैं।[1]
दुर्योधन की कपटी बातों की प्रशंसा
वैशम्पायनजी कहते हैं- जनमेजय! तदनन्दर एक ओर सभी सभासदों ने कुरुराज दुर्योधन के उस कथन की उच्च स्वर से भूरि-भूरि प्रशंसा की और गर्जना करते हुए वे वस्त्र हिलाने लगे तथा वहीं दूसरी ओर हाहाकार और आर्तनाद होने लगा। दुर्योधन का मनोहर वचन सुनकर उस समय सभा में कौरवों को बड़ा हर्ष हुआ। अन्य सब राजा भी बड़े प्रसन्न हुए तथा दुर्योधन को कौरवों में श्रेष्ठ और धार्मिक कहते हुए उसका आदर करने लगे। फिर वे सब नरेश मुँह घुमाकर राजा युधिष्ठिर की ओर इस आशा से देखने लगे कि देखें, ये धर्मज्ञ पाण्डुकुमार क्या कहते हैं? युद्ध में कभी पराजित न होने वाले पाण्डुनन्दन अर्जुन किस प्रकार अपना मत व्यक्त करते है ? भीमसेन, नकुल तथा सहदेव भी क्या कहते हैं ? इसके लिये उन राजाओं के मन में बड़ी उत्कण्ठा थी। यह कोलाहल शान्त होने पर भीमसेन अपनी चन्दन-चर्चित सुन्दर दिव्य भुजा उठाकर इस प्रकार बोले। भीमसेन ने कहा - यदि ये महामना धर्मराज युधिष्ठिर हमारे पितृतुल्य तथा इस पाण्डुकुल के स्वामी न होते तो हम कोरवों का यह अत्याचार कदापि सहन नहीं करते। ये हमारे पुण्य,तप और प्राणी के भी प्रभु हैं। यदि ये द्रौपदी को दाँव पर लगाने से पूर्व अपने को हारा हुआ यहीं मानते हैं तो हम सब लोग इनके द्वारा दाँव पर रखे जाने के कारण हारे जा चुके हैं। यदि मैं हारा गया न होता तो अपने पैरो से पृथ्वी का स्पर्श करने वाला कोई भी मरणधर्मा मनुष्य द्रौपदी -के इन केशों को छू लेने पर मेरे हाथ से जीवित नहीं बच सकता था। राजाओ! परिघ के समान मोटी और गोलाकार मेरी इन विशाल भुजाओं की ओर तो देखो। इनके बीच में आकर इन्द्र भी जीवित नहीं बच सकता। मैं धर्म के बन्धन में बँधा हूँ, बड़े भाई के गौरव ने मुझे रोक रखा है और अर्जुन भी मना कर रहा है, इसीलिये मैं इस संकट से पार नहीं हो पाता। यदि धर्मराज मुझे आज्ञा दे दें तो जैसे सिंह छोटे मृगों को दबोच लेता है, उसी प्रकार मैं धृतराष्ट्र के इन पापी पुत्रों को तलवार की जगह हाथों के तलवों से मसल डालूँ। वैशम्पायनजी कहते हैं- राजन्! तब भीष्म, द्रोण और विदुर ने भीमसेन को शान्त करते हुए कहा-‘भीम! क्षमा करो, तुम सब कुछ कर सकते हो’।[1]
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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