महाभारत सभा पर्व के ‘शिशुपाल वध पर्व’ के अंतर्गत अध्याय 42 के अनुसार शिशुपाल की बातों पर भीम के क्रोध का वर्णन इस प्रकार है[1]-
विषय सूची
शिशुपाल का भगवान कृष्ण की निन्दा करना
शिशुपाल बोला- महाबली राजा जरासंध मेरे लिये बड़े ही सम्माननीय थे। वे कृष्ण को दास समझकर इसके साथ युद्ध में लड़ना ही नहीं चाहते थे। तब इस केशव ने जरासंध के वध के लिये भीमसेन और अर्जुन को साथ लेकर जो नीच कर्म किया है, उसे कौन अच्छा मान सकता है? पहले तो (चैत्यकगिर के शिखर को तोड़कर) बिना दरवाजे के ही इसने नगर में प्रवेश किया। उस पर भी छद्मवेष बना लिया और अपने को ब्राह्मण प्रसिद्ध कर दिया। इस प्रकार इस कृष्ण ने भूपाल जरासंध का प्रभाव देखा। उस धर्मात्मा जरासंध ने जब इस दुरात्मा के आगे ब्राह्मण अतिथि के योग्य पाद्म आदि प्रस्तुत किये, तब इसने यह जानकर कि मैं ब्राह्मण नहीं हूँ, उसे ग्रहण करने की इच्छा नही की। कौरव्य भीष्म! तत्पश्चात जब उन्होंने कृष्ण, भीम और अर्जुन तीनों से भोजन करने का आग्रह किया, तब इस कृष्ण ने ही उनका निषेध किया था। मूर्ख भीष्म! यदि यह कृष्ण सम्पूर्ण जगत का कर्ता धर्ता है, जैसा कि तुम इसे मानते हो तो यह अपने को भली-भाँति ब्राह्मण भी क्यों नहीं मानता? मुझ सबसे बढ़कर आश्चर्य की बात तो यह जान पड़ती है कि ये पाण्डव भी तुम्हारे द्वारा सन्मार्ग से दूर हटा दिये गये हैं, इसलिये ये भी कृष्ण के इस कार्य को ठीक समझते हैं। अथवा भारत! स्त्री के समान धर्मवाले (नपुंसक) और बूढ़े तुम जैसे लोग जिनके सभी कार्यों में पथ प्रदर्शन करते हैं, उनका ऐसा समझना कोई आश्चर्य की बात नहीं है।[1]
शिशुपाल के अपशब्दों से भीम को क्रोध आना
वैशम्पायनजी कहते हैं- जनमेजय! शिशुपाल की बातें बड़ी रूखी थीं। उनक एक-एक अक्षर कटुता से भरा हुआ था। उन्हें सुनकर बलवानों में श्रेष्ठ प्रतापी भीमसेन क्रोधाग्रि से जल उठे। उनकी आँखे स्वभावत: बड़ी-बड़ी और कमल के समान सुन्दर थी। वे क्रोध के कारण अधिक लाल हो गयीं, मानो उनमें खून उतर आया हो। सब राजाओं ने देखा, उनके ललाट में तीन रेखाओं से युक्त भ्रुकुटी तन गयी है, मानो त्रिकूट पर्वत पर त्रिपथ गामिनी गंगा लहरा उठी हों। वे दाँतों से दाँत पीसने लगे, रोष की अधिकता से उनका मुख ऐसा भयंकर दिखायी देने लगा, मानो प्रलय काल में समस्त प्राणियों को निगल जाने की इच्छावाला विकराल काल ही प्रकट हो गया हो। वे उछलकर शिशुपाल के पास पहुँचना ही चाहते थे कि महाबाहु भीष्म ने बड़े वेग से उठकर उन मनस्वी भीम को पकड़ लिया, मानो महेश्वर ने कार्तिकेय को रोक लिया हो। भारत! पितामह भीष्म के द्वारा अनेक प्रकार की बातें कहकर रोके जाने पर भीमसेन का क्रोध शान्त हो गया। शत्रुदमन भीम भीष्मजी की आज्ञा का उल्लंखन उसी प्रकार न कर सके, जैसे वर्षा के अन्त में उमड़ा हुआ होने पर भी महासागर अपनी तटभूमि से आगे नही बढ़ता है। राजन्! भीम सेन के कुपित होने पर भी वीर शिशुपाल भयभीत नहीं हुआ। उसे अपने पुरुषार्थ का पूरा भरोसा था। भीम को बार-बार वेग से उछलते देख शत्रुदमन शिशुपाल ने उनकी कुछ भी परवा नहीं की, जैसे क्रोध में भरा हुआ सिंह मृग को कुछ भी नहीं समझता। उस समय भयनाक पराक्रमी भीमसेन को कुपित देख प्रतापि चेदिराज हँसते हुए बोला- ‘भीष्म! छोड़ दो इसे, ये सभी राजा देख लें कि यह भीम मेरे प्रभाव से उसी प्रकार दग्ध हो जायगा जैसे फतिंगा आग के पास जाते ही भस्म हो जाता है’। तब चेदिराज की वह बात सुनकर बुद्धिमान में श्रेष्ट कुरुकुल तिलक भीष्म ने भीम से यह कहा।[1]
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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