भागवत सुधा -करपात्री महाराजषष्ठ-पुष्प 8. श्री जीमाँ ने कहा- तुमने तो बीस भुजा वाले रावण को मारा है, अभी सहस्रभुज रावण है, उसे जीतो तो वीर-पूजा की बात करो। बन्दर-भालुओं ने कहा ठीक है। तैयारी हुई। किष्किन्धा के शूर-वीर, लंका और अयोध्या के शूर-वीर सज-धजकर लड़ाई करने गये। लोगों ने सहस्र भुज रावण को खबर दी। एक बाण उसने ऐसा मारा कि लंका के शूर-वीर लंका पहुँच गये। किष्किन्धा के शूर-वीर किष्किन्धा पहुँच गये, अयोध्या के शूर-वीर अयोध्या पहुँच गये। फिर सभी इकट्ठे हुए, फिर उसने बाण मारा तो जो जहाँ से शूर-वीर आये थे वहीं पहुँच गये। न लड़ाई न झगड़ा। सभी बडे़ परेशान हुए। राम भगवान भी चिन्तित हुए, ‘यह तो बड़ा भयंकर है।’ नारद जी आये। बोले- ‘‘क्यों चिन्तित हो महाराज! उसका वध ये जनक नन्दिनी जानकी जी करेंगी।’’ राम जी ने कहा- ‘ये लड़ेगी, हैं, ये तो बहुत कोमलागीं हें, भला कैसे लडे़ंगी। तो नारद जी! आप ही इनसे कहो।’’ नारद जी ने कहा- ‘‘हमारे कहने से काम नहीं चलेगा। आप हमसे मंत्र दीक्षा लो महाराज और इनकी प्रार्थना करो।’’ श्रीराम को नारद जी ने मंत्र-दीक्षा दी। श्रीराम ने स्तुति की ‘वन्दे विदेह- तनयापदपुण्डरीकं’ इत्यादि। तब श्री जी का दिव्य स्वरूप प्रकट हुआ। उस दिव्य रूप से उन्होंने सहस्रभुज रावण का वध किया। इस तरह ‘श्रीयते हरिणाअपि या सा श्रीः’ हरि भी जिनकी आराधना कहते हैं, वे हैं श्री जी। कबहुक अंब अवसर पाइ। अनन्त ब्रह्माण्ड नायक भगवान सर्वेश्वर सर्वशक्तिमान प्रभु के दरबार तक अपनी बात को पहुँचाना हो, अपना सुख-दुःख, हर्ज-गर्ज सब कुछ कहना हो तो श्री जी ही सुनने के लिये तैयार हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ विनय प्रत्रिका 41
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