भागवत सुधा -करपात्री महाराज पृ. 90

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भागवत सुधा -करपात्री महाराज

ये चरित्र नायक, ये मदन-मोहन श्याम सुन्दर, इनका तो अनन्त सौन्दर्य-माधुर्य, इनका अनन्त यश बिलकुल नवनवायमान है। सच्चिदानन्द रस से भी उत्कृष्ट माना जाता है श्रृंगार रस। रसौ वै स:[1] वही रस है। स: कृष्ण:, वही रस है।कौन रस है? संप्रयोगात्मक श्रृंगार रससमुद्र विप्रलंभात्मक श्रृंगारसमुद्र दोनों उद्बेलित हैं। दोनों में ज्वार है, भाटा किसी में नहीं। कहते हैं समुद्र में कभी ज्वार आता है, कभी भाटा आता है, दोनों का विरोध हैं जहाँ संयोग श्रृंगार वहाँ विप्रलभ नहीं, जहाँ विप्रलभ श्रृंगार वहाँ संयोग नहीं। परन्तु कृष्ण में दोनों एक काल में है। क्योंकि वे सकल विरुद्धधर्माश्रय हैं। भगवान सकल विरुद्ध धर्म के आश्रय हैं। अणोरणीयान्महतोमहीयान[2]उसी समय भगवान अणोरणीयान्, उसी समय महतोमहीयान्। इसलिए संयोगात्मक, श्रृंगार विप्रलंभात्मक श्रृंगार दोनों एक काल में उद्बुद्धसंभोगात्मक, विप्रलंभात्मक उभयविध श्रृंगार रससारर्वस्व भगवान श्रीकृष्ण का स्वरूप है। इसलिए ‘नटवर वपुः’=‘नटेभ्योअपि वरं वपुर्यस्य सः’ ‘‘नटेभ्योअपि वरं, नटरोजभ्यः, नटराज राजेभ्योअपि वरं वपुर्यस्य’ इनका मंगलमय स्वरूप ऐसा है कि नटों से भी श्रेष्ठ, नटराज से भी श्रेष्ठ, नटराजराज से भी श्रेष्ठ, नटराजराज भगवान शंकर हैं।

नृत्तावसाने नटराजराजो ननाद ढक्कां नवपंचवारम्।
उद्धर्तुकामः सनकादिसिद्धानेतद्विमर्शे शिवसूत्रजालम्।।

‘अइ उण्। ऋ लृक् ए ओड्.। ऐ औड़्’ ये सब सूत्र भगवान भूतभावन सदाशिव के डमरू से निकले। वे अन्नपूर्णा राजराजेश्वरी भगवती को सिंहासन पर विराजमान करके उनके सामने नृत्य करते हैं। उन्हीं को प्रसन्न करने के लिए भगवान शंकर का नृत्य होता है। ‘पर भगवान् श्रीकृष्ण का तो नटराजों से भी श्रेष्ठ वपु हैं। कालिय नाग पर किसने नाचा? भगवान शंकर तो कैलाश पर्वत पर नृत्य करते हैं, पर श्रीकृष्ण तो कालियनाग के फणों पर नृत्य करने वाले हैं। नटों से, नटराजों से नटराजराजों से भी अत्यन्त सुन्दर मधुर जिनका वपु है, जिसके श्रीविग्रह में सकल सुन्दरताओं का सन्निवेश है विभ्रद्वपुः सकलसुन्दरसन्निवेशंः,[3]जो मूर्ति त्रिलोकी के सौन्दर्य का तिरस्कार करने वाला है, स्वमूर्त्या लोककलावण्यनिर्मुक्त्या लोचनु नृणाम्,[4]ऐसे नटवर वपु है श्रीकृष्ण। नट का तात्पर्य द्विभुजत्व में हैं। व्रजलीला का सर्वस्त तो द्विभुजत्व ही है। इसलिये नटवरवपु कहा। चतुर्भुजत्वादि भगवान का ऐश्वर्य भाव है। उसका प्रभाव माधुर्यभाव के प्राकट्य में नहीं। जैसे सूर्य के समान चंद्र के समान नहीं, वैसे ही माधुर्यभाव के विकाश में- प्राखर्य में, ऐश्वर्यभाव का प्रकाश नहीं। श्रीवृषभानु नन्दिनी में माधुर्यभाव का पूर्ण प्रकाश है।
12. ‘कर्णयोः कर्णिकारं’: -
दोनों कानों में कर्णिकार (पुष्प विशेष) है। कान तो हैं, पर कर्णिकार एक है। मानो संयोगात्मक भाव दिखाने के लिये एक कान के साथ कर्णिकार का सम्बन्ध है और दूसरे के साथ विप्रलंभ की लीला है। इस तरह संभोगात्मक विप्रलंभात्मक उभयविध श्रृंगार रस का अभिव्यंजक है कर्णिकार। ‘कर्णयोः’ द्विवचन, कर्णिकारं एक वचन है। अतः उसमें भी द्वित्व की कल्पना कोई करते हैं। अथवा कनेर तो एक ही है, कभी उसी को वाम कान में धारण करते हैं तो कभी दक्षिण में। कोई ऐसा भी कहते हैं- कणिकार का अर्थ कनेर नहीं है, पीतवर्ण का उत्पलाकार पुष्प (सूर्यमुखी) है। उसका स्वभाव है, सूर्याभिमुख रहता। कर्णिकार के इस स्वभाव को जानकर, उसको श्रीकृष्ण ने धारण किया कि हमारे प्रेमी जिधर मुँह करते हैं, उधर ही मैं भी अभिमुख होता हूँ। एतावता जिधर भक्तगण उधर ही उभयविध श्रृंगार रस उन्मुख।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. (तैत्तिरीयोपनिषद् 2/1)
  2. (कठोपनिषद् 1/2/20)
  3. (भाग 11/1/10)
  4. (भाग 11/1/6)

संबंधित लेख

भागवत सुधा -करपात्री महाराज
क्रमांक पाठ का नाम पृष्ठ संख्या
प्रथम-पुष्प
1. निगमकल्परोर्गलितं फलम् 37
2. पुरुषार्थचतुष्टयप्रदायक निगमकल्पतरु 38
3. रसमालयम् 38
4. आत्माराम का भी भगवद्गुणगणार्णव में अवगाहन 38
5. देव दुर्लभ श्रीमद्भागवत: 39
6. युगधर्मों का निरूपण 42
7. विद्या-अविद्या का समुच्चय 44
8. भगवन्नाम-संकीर्तन 48
9. माहात्म्य 51
10. वस्तु-तत्व के साक्षात्कार के लिए श्रवण, मनन और निदिध्यासन अपेक्षित 54
11. ‘जन्माद्यस्य यतोऽन्वयात्’ की भूमिका 54
12. भगवत्तत्व का अनुसंधान- छान्दोग्य शैली में 55
13. भगवतत्व का अनुसंधान -तैत्तिरीय शैली में 56
14. पैंगलोपनिषत् पुराण और महाभारत की शैली में 56
15. परब्रह्म के निःश्वासभूत वेदों की अपौरुषैयता 57
16. वेदों के प्रतिपाद्य सगुण या निर्गुण 59
17. ईश्वर-सिद्धि 64
18. नास्तिकों के भी उद्धार का उपक्रम 64
19. सर्वात्मभाव 68
20. भगवान् जगत के अभिन्ननिमित्तोपादानकारण 70
द्वितीय-पुष्प
1. ‘जन्माद्यस्य यतः’ 71
2. 'अन्वयत्', 'इतरत:', 'च' 72
3. 'अभिज्ञः' 74
4. ‘स्वराट्’ 74
5. ‘तेने ब्रह्महृदा य आदि कवये मुह्यन्ति यत् सूरयः’ 75
6. ‘तेजोवारिमृदां यथा विनिमय: 76
7. ऋषि-सूत-संवाद 78
8. श्रीशुक-वन्दना 82
9. शुकमनमोहक ‘बर्हापीडं’ श्लोक 85
10. 'बर्हापीडं' 87
11. ‘नटवर- वपुः’ 88
12. ‘कर्णयोः कर्णिकारं’ 90
13. ‘विभ्रद्वासः कनककपिशं’ 91
14. ‘रन्ध्रान्वेणोरधरसुधया पूरयन्’ 92
15. ‘वृन्दारण्यं स्वपदरमणं’ 94
16. अकारणकरुण करुणावरुणालय-‘भगवान्’ 95
तृतीय-पुष्प
1. प्रतिपद्य और प्रतिपादक की परब्रह्मरूपता 99
2. परम धर्म 111
3. मोक्ष पर्यवसायी धर्म, अर्थ और काम 118
4. ‘तत्त्व’ की तात्त्विक परिभाषा 123
चतुर्थ-पुष्प
1. भगवान व्यास को देवर्षि नारद की प्रेरणा 127
2. गुणगण भगवान् के उपकारक नहीं 139
3. भगवदाराधन की विधि 143
4. ‘तथा परमहंसानां’ के साथ ‘परित्राणाय साधूनां’ की संगति 154
पंचम-पुष्प
1. शुक-समागम 159
2. अप्रमत्त के लिये अति सुगम भगवत्प्राप्ति 174
3. नाम-धाम-प्राणायाम और ध्यान से भगवत्प्राप्ति 175
4. ‘तेषां के योगवित्तमाः’ का समाधान 183
5. ‘न किश्चिदपि चिन्तयेत्’ का तात्त्विक अभिप्राय 188
षष्ठ-पुष्प
1. ब्रह्म-नारद संवाद 190
2. माया संतरण का अमोघ उपाय 191
3. प्रह्लाद चरित 196
4. शरणागति 205
5. शरण्य की शरणागति 208
6. शरण्य का स्वरूप 208
7. शरणागति एक बार या बार-बार? 208/2
8. श्री जी 209
सप्तम-पुष्प
1. राजा बलि के पूर्व जन्म का वृतान्त 216
2. भगवान वामन को आविर्भाव 223
3. राजा बलि की सत्यनिष्ठा 228
4. धर्मनिरपेक्ष या धर्मसापेक्ष? 228
5. धन बड़ा या धनवान ? 230
6. ‘धन नहीं धनवान् बड़ा’ 231
अष्टम-पुष्प
1. वेदान्तवेद्य पूर्णतम पुरुषोत्तम ‘श्रीराम’ 233
2. ‘आदि कर्ता स्वयं प्रभु’ श्रीराम 235
3. लताओं तक को प्रेम प्रदान करने वाले ‘श्रीराम’ 236
4. प्रभुओं के भी प्रभु ‘श्रीराम’ 238
5. धर्म रक्षक ‘श्रीराम’ 239
6. लीला पुरुषोत्तम ‘श्रीकृष्ण’ 239
7. श्रीवृन्दावन, गोपांगनाएँ; श्रीकृष्ण और राधा का तात्विक स्वरूप 240
8. श्रीकृष्णचन्द्र परमानन्दकन्द का अद्भुत प्राकट्य 242
9. सुषमासारसर्वस्त्र ‘श्रोहरि’ 242
10. अनाघ्रात अनपहत-अनुत्पन्न-अनुपहत और अदृष्टाद्भुत पंकज ‘श्रीकृष्ण’ 242
11. सत्यज्ञानानन्तान्दमात्रैकरसमूर्ति ‘श्रीकृष्ण’ 242/2
12. भगवान् के जन्म और कर्म दिव्य हैं, वे स्वयं अप्राकृत हैं 244
13. श्री वृन्दावनधाम 248
14. मृद्भक्षण लीला 250
15. दामोदरलीला 251
16. निराकार से साकार 252
17. भावुक के दु्रत चित्त पर भगवान् की अभिव्यक्ति ‘भक्ति’ 254
18. श्रीकृष्णचन्द्र और श्रीराधाचन्द्र 255
19. आसन और आशयरूप बाह्यप्रपच्च और पंचकोश के तादात्म्य का त्यागकर श्रीकृष्णचन्द्र परमानन्द कन्द के स्वागत में तन्मय द्वारकास्थ पट्टमहिषीगण 257
20. कथा श्रवण से वैराग्य एवं विज्ञानोपलब्धि 258
21. भगवद्गुणानुवाद से भगवद्भक्ति 259
22. अंतिम पृष्ठ 259

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