भागवत सुधा -करपात्री महाराजये चरित्र नायक, ये मदन-मोहन श्याम सुन्दर, इनका तो अनन्त सौन्दर्य-माधुर्य, इनका अनन्त यश बिलकुल नवनवायमान है। सच्चिदानन्द रस से भी उत्कृष्ट माना जाता है श्रृंगार रस। रसौ वै स:[1] वही रस है। स: कृष्ण:, वही रस है।कौन रस है? संप्रयोगात्मक श्रृंगार रससमुद्र विप्रलंभात्मक श्रृंगारसमुद्र दोनों उद्बेलित हैं। दोनों में ज्वार है, भाटा किसी में नहीं। कहते हैं समुद्र में कभी ज्वार आता है, कभी भाटा आता है, दोनों का विरोध हैं जहाँ संयोग श्रृंगार वहाँ विप्रलभ नहीं, जहाँ विप्रलभ श्रृंगार वहाँ संयोग नहीं। परन्तु कृष्ण में दोनों एक काल में है। क्योंकि वे सकल विरुद्धधर्माश्रय हैं। भगवान सकल विरुद्ध धर्म के आश्रय हैं। अणोरणीयान्महतोमहीयान[2]उसी समय भगवान अणोरणीयान्, उसी समय महतोमहीयान्। इसलिए संयोगात्मक, श्रृंगार विप्रलंभात्मक श्रृंगार दोनों एक काल में उद्बुद्धसंभोगात्मक, विप्रलंभात्मक उभयविध श्रृंगार रससारर्वस्व भगवान श्रीकृष्ण का स्वरूप है। इसलिए ‘नटवर वपुः’=‘नटेभ्योअपि वरं वपुर्यस्य सः’ ‘‘नटेभ्योअपि वरं, नटरोजभ्यः, नटराज राजेभ्योअपि वरं वपुर्यस्य’ इनका मंगलमय स्वरूप ऐसा है कि नटों से भी श्रेष्ठ, नटराज से भी श्रेष्ठ, नटराजराज से भी श्रेष्ठ, नटराजराज भगवान शंकर हैं। नृत्तावसाने नटराजराजो ननाद ढक्कां नवपंचवारम्। ‘अइ उण्। ऋ लृक् ए ओड्.। ऐ औड़्’ ये सब सूत्र भगवान भूतभावन सदाशिव के डमरू से निकले। वे अन्नपूर्णा राजराजेश्वरी भगवती को सिंहासन पर विराजमान करके उनके सामने नृत्य करते हैं। उन्हीं को प्रसन्न करने के लिए भगवान शंकर का नृत्य होता है। ‘पर भगवान् श्रीकृष्ण का तो नटराजों से भी श्रेष्ठ वपु हैं। कालिय नाग पर किसने नाचा? भगवान शंकर तो कैलाश पर्वत पर नृत्य करते हैं, पर श्रीकृष्ण तो कालियनाग के फणों पर नृत्य करने वाले हैं। नटों से, नटराजों से नटराजराजों से भी अत्यन्त सुन्दर मधुर जिनका वपु है, जिसके श्रीविग्रह में सकल सुन्दरताओं का सन्निवेश है विभ्रद्वपुः सकलसुन्दरसन्निवेशंः,[3]जो मूर्ति त्रिलोकी के सौन्दर्य का तिरस्कार करने वाला है, स्वमूर्त्या लोककलावण्यनिर्मुक्त्या लोचनु नृणाम्,[4]ऐसे नटवर वपु है श्रीकृष्ण। नट का तात्पर्य द्विभुजत्व में हैं। व्रजलीला का सर्वस्त तो द्विभुजत्व ही है। इसलिये नटवरवपु कहा। चतुर्भुजत्वादि भगवान का ऐश्वर्य भाव है। उसका प्रभाव माधुर्यभाव के प्राकट्य में नहीं। जैसे सूर्य के समान चंद्र के समान नहीं, वैसे ही माधुर्यभाव के विकाश में- प्राखर्य में, ऐश्वर्यभाव का प्रकाश नहीं। श्रीवृषभानु नन्दिनी में माधुर्यभाव का पूर्ण प्रकाश है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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