भागवत सुधा -करपात्री महाराजपरमात्मा कहाँ बैठकर जगत को बनाता है? कहो, पृथ्वी पर! नहीं। यह पृथ्वी तो बनाने के बाद आई। फिर कहाँ बैठा परमात्मा? फिर जगत रूप कार्य के लिए उपादान चाहिए। अरे भाई! बढ़ई तो लकड़ी से मेज बनाता है, लकड़ी तो नहीं बनाता है। स्वर्णकार सोना से कटक, मुकुट, कुण्डल बनाता है, सोना, तो नहीं बनाता। इसी तरह जगत रूप कार्य किस उपादान से बना? उपादान कहाँ से आया? उपादान तो परमात्मा से भिन्न है ही नहीं? कहते हैं ‘अवयव वन्तोअपि पदार्थाः किं अजन्मानो भवन्ति’; सारा संसार अवयवान होने पर भी क्या जन्म रहित है? एतावता कहना होगा कि कार्यत्व का प्रयोजक सावयतत्त्व है। जो सावयव है वही कार्य है। जो सावयव नहीं वह कार्य भी नहीं। जगत तो सावयव ही है। पृथ्वी,जल, तेज ये सब सावयव हैं। अवयवबान पदार्थ भी क्या अजन्मा होते हैं? अवयववान् है सम्पूर्ण जगत, अजन्मा नहीं हो सकता। ‘अधिष्ठातारं किं अनादृत्य उपेक्ष्य भवविधिः भवोत्पत्तिर्भवति’ क्या अधिष्ठान के बिना कहीं भव की उत्पत्ति हो सकती है? ऐसी परिस्थिति में वस्तुस्थिति पर विचार करना ही चाहिए। इत्येवं श्रुतिनीतिसम्प्लवजलैर्भूयोभिराक्षालिते, ‘हे प्रभो! हमने यद्यपि श्रुति-युक्ति रूपी निर्मल जल से नास्तिकों के दुस्तर्क पंकमलिन मानस को धोने का प्रयास किया। दुस्तर्ककलंकपंक से मलिन जिनका मन है, उन नास्तिकों की बुद्धि को स्वच्छ करने का प्रयास किया। न्यायकुसुमांजलि के तर्कों एवं न्यायकुमांजलि-समुद्धृत श्रुतियों के बल पर उस अनन्त ब्रह्माण्ड नायक सर्वेश्वर परमात्मा का सिद्ध करने का प्रयास किया। फिर भी जिनके हृदय में अब भी आप पर विश्वास नहीं होता तो उनका हृदय तो वज्र का टुकड़ा है। हम क्या करें? हमारा जहाँ मे प्रयत्न हुआ, हमने कर लिया। अब जो हमसे न बना हो, वह आप करो। सर्वेश्वर प्रभो! आप करो। क्योंकि आप अकारण करुण हो, करुणावरुणालय हो। ये जीव नास्तिक अपार संसार-समुन्द्र में पड़ें रहें, अच्छा नहीं। आप इनका भी उद्धार करो। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (न्यायकुसुमाअंजलिः 5/18)
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