भागवत सुधा -करपात्री महाराजउक्त रीति से वेदों की अपौरुषेयकता भी अखण्ड रही और ईश्वर से उनका निर्माण भी सिद्ध हुआ। अर्थात भगवान की बुद्धि से, भगवान के प्रयत्न से वेदों का आविर्भाव नहीं हुआ, किन्तु पूर्वकल्प की आनुपूर्वी का अनुस्मरण करके उत्तर कल्प में उन्होंने उपर्देश किया। पूर्व-पूर्व कल्प की आनुपूर्वी को अनुस्मरण करके उत्तर-उत्तर कल्प में उपदेश करने के कारण ईश्वर को वेदों के निर्माण में बुद्धि और प्रयत्न का उपयोग नहीं करना पड़ा। ‘सुप्तप्रतिबुद्धिन्याय’ से ही भगवान से वेदों का आविर्भाव होता है। जैसे विद्यार्थी कल जो वेद पढ़ता रहा, कल जो व्याकरण सूत्र पढ़ता रहा- कण्ठस्थ करता रहा, आज उसी को लेता है। सोकर जब प्राणी प्रबुद्ध होता है, सोने के पहले के पाठ को ‘सुप्तप्रतिबुद्धन्याय’ से अभ्यास कर लेता है, वैसे ही भगवान पूर्व कल्प की वेदानुपूर्वी का अनुस्मरण करके द्वितीय कल्प में उपदेश करते हैं। वे सर्वज्ञ हैं, सर्वशक्तिमान् हैं, अनन्त ब्रह्माण्ड नायक हैं, सर्वेश्वर हैं, सर्वद्रष्टा हैं। अनन्तानन्त मंत्र- ब्राह्मणात्मक वेदों को देखते हैं, पूर्व कल्पों का अनुस्मरण करके उत्तर कल्प में उपदेश करते हैं। इसलिए उनके निर्माण में भगवान् की बुद्धि नहीं खर्च होती, तदर्थ भगवान का प्रयत्न नहीं खर्च होता। इसलिए भगवान् में छल कहीं होता हो पद वेदों में उसका लेश भी नहीं है। वेद अत्यन्त निर्दोष हैं। श्री गोस्वामी जी ने ‘सहज श्वाँस श्रुति’ कहकर वेदों को अकृतिम अर्थात अपौरुषेय बताया है। वाचस्पति मिश्र का वह वचन प्रसिद्ध ही है, ‘भगवान ने निहार दिया तो अनन्त ब्रह्माण्ड का मूल पंचभूत बनकर तैयार हो गये। भगवान ने जरा मुस्करा दिया तो अनन्त कोटि ब्रह्माण्ड फलित प्रफुल्लित हो गया। भगवान ने आँख मींच लिया तो अनन्त ब्रह्माण्ड का बंटाढार हो गया।’ निःश्वसितमस्य वेदा वीक्षितमेतस्य पंच भूतानि। ठीक ही है- छूछी भरे, भरी ढरकावै, जब चाहे तब फेर भरावे ।। 16. वेदों के प्रतिपाद्य सगुण या निर्गुण:- ब्रह्मन् ब्रह्मण्यनिर्देश्ये निर्गुणे गुणवृत्तयः। (भगवान! ब्रह्म कार्य-कारणातीत है। सत्त्व, रज, तम ये तीनों गुण उसमें हैं नहीं। वह सर्वथा अनिर्देश्य है। मन और वाणी से संकेत रूप में भी उसका निर्देश नहीं किया जा सकता। वैसे भी श्रुतियों की प्रवृत्ति सगुण में ही होती है। वे जाति, गुण, क्रिया, सम्बन्ध का अथवा रूढ़ि का निर्देष करती हैं। ऐसी स्थिति में श्रुतियाँ निर्गुण ब्रह्म का प्रतिपादन किस प्रकार करती हैं। क्योंकि निर्गुण के प्रतिपादन में उनकी पहुँच हो, ऐसा प्रतीत नहीं होता।।) |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (भागवत 10/87/1)
संबंधित लेख
क्रमांक | पाठ का नाम | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज