|
भागवत सुधा -करपात्री महाराज
अष्टम-पुष्प
4. प्रभुओं के भी प्रभु ‘श्रीराम’
सुमित्रा कहती हैं,‘राम कौन हैं?’
सूर्यस्यापि भवेत् सूर्यो ह्यग्नेरग्निः प्रभोः प्रभुः।
श्रियाः श्रीश्च भवेदग्रद्या कीत्र्याः कीर्तिः क्षमाक्षमा।।
दैवतं देवतानां च भूतानां भूतसत्तमः।
तस्य के ह्यगुणा देवि वने वाप्यथवा पुरे।।[1]
(देवि! श्रीराम सूर्य के भी सूर्य-मप्रकाशक और अग्नि के भी अग्नि-दाहक हैं। वे प्रभु के भी प्रभु, लक्ष्मी की उत्तम लक्ष्मी, और क्षमा की भी क्षमा हैं। इतना ही नहीं- वे देवताओं के भी देवता तथा भूतों के भी उत्तम भूत हैं। वे वन में रहें या या नगर में, उनके लिये कौन-से चराचर प्राणी दोषावह हो सकते हैं।
यह उपनिषद् की भाषा है-
श्रीत्रस्य श्रोत्रं मनसी मनो यद्वाचो ह वाचं स उ प्राणस्य प्राणश्चक्षुपश्चक्षुरति मुच्य धीराः प्रेत्यास्माल्लोकादमृता भवन्ति।[2]
(जो श्रोत्र-का श्रोत्र, मन का मना और वाणी की भी वाणी है, वह प्राण का प्राण और चक्षु का चक्षु है, इस रहस्य के जानकार धीर पुरुष संसार से मुक्त होकर इस लोक से जाकर अमर हो जाते हैं।)
भगवान श्रोत्र के भी श्रोत्र हैं, मन के मन हैं, चक्षु के चक्षु हैं, वाक् के वाक् हैं। ‘दग्धुः दग्धा अग्निः’ अग्नितादात्म्यापन्न अयःपिण्ड है दग्धा, अग्नि है दग्धा का भी दग्धा। अयःपिण्ड स्वतः अनुष्णाशीत है, लेकिन अग्नि के संयोग से-अग्नि तादात्म्यापन्न होकर दाहक हो जाता है तब ‘अयो दहति’ बोलते हैं। ‘दग्धुः अयः पिण्डस्य दग्धा अग्निः’, दग्धा अयःपिण्ड में दाहकत्व, प्रकाशकत्व देने वाला जो अग्नि है वह ‘दग्धुः दग्धा’ है। तप्तायः पिण्ड में जो दाहकत्व-प्रकाशकत्व देने वाला जो अग्नि है वह ‘दग्धुः दग्धा’ है। तप्तायः पिण्ड में जो दाहकत्व-प्रकाशकत्व है वह सापेक्ष है सातिशय और अनित्य है। लेकिन जिस अग्नि के सम्बन्ध में लोहपिण्ड में अनित्य और सातिशय दाहकत्व-प्रकाशकत्व आता है, उस अग्नि में दाहकत्व-प्रकाशकत्व निरतिशय है। जैसे ‘दग्धा का दग्धा अग्नि है’ ऐसे ही ‘श्रोत्र के भी श्रोत्र’ भगवान् हैं। शब्द प्रकाशन-सामर्थ्य सम्पन्न इन्द्रिय श्रोत्र है। उस श्रोत्र के भी श्रोत्र’ भगवान् हैं। शब्द प्रकाशन-सामर्थ्य सम्पन्न इन्द्रिय श्रोत्र है। उस श्रोत्र में जो श्रोत्रत्व देने वाला है अर्थात शब्द प्रकाशन-सामर्थ्य जिसके[3] सम्बन्ध से आता है, वे भगवान् श्रोत्र के भी श्रोत्र है- श्रोत्रस्य श्रोत्रम्’। इसी तरह भगवान मन के भी मन है- ‘मनसो मनः’ मन में मन्तव्य पदार्थो को प्रकाशन करने का सामर्थ्य जिससे प्राप्त होता है वह मन का भी मन है। इसी दृष्टि से ‘सूर्यास्यापि भवेत् सूर्यः' भगवान राम सूर्य के भी सूर्य हैं। सूर्य में जो नेत्र प्रकाशन का आप्यायन का सामर्थ्य है, वह जिससे प्राप्त है श्रीराम हैं। ‘अग्नेरग्निः’ श्रीराम अग्नि के भी अग्नि हैं। अग्नि में प्रकाशकत्व जिससे आता है, वह श्री राम हैं। केनोपनिषद् की कथा याद कर लो- अग्नि तृण नहीं जला सका। भगवान ने तृण रख दिया- ‘तृणं निदधौ’,[4] अग्नि ने हजार बल लगाया पर तृण नहीं जला। वायु आया, उसने भी बल लगाया, तृण को टस-से-मस भी नहीं कर सका। ‘प्रभो: प्रभुः’ भगवान प्रभु के भी प्रभु हैं। ईश्वर के भी ईश्वर श्रीराम हैं। हमरे यहाँ नन्ददास एक महात्मा हो गये हैं, वे कहते हैं- ‘हमारा कृष्ण कौन है?
ब्रह्म का भी ब्रह्म, ईश्वर का ईश्वर है’-
नन्द भवन को भूषण माई।
जसोदा[5] को लाल वीर हलधर को राधा रमण परम सुखदाई।।
शिव को धन संतन को सर्वस, महिमा वेद पुरानन गाई।
इन्द्र को इन्द्र, देव देवन को, ब्रह्म को ब्रह्म अधिक अधिकाई।।
काल को काल, ईश ईशनको, अति ही अतुल तुल्यो नहिं जाई।
‘नन्ददास’ को जीवन गिरिधर, गोकुल गाँव को कुवँर कन्हाई।।
नन्ददास जी ने कहाँ से यह लिया? वाल्मीकि की रामायण से। सार यह है कि ऐसे रामचन्द्र राघवेन्द्र स्वयं भगवान हैं।
|
|