भागवत सुधा -करपात्री महाराज पृ. 238

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भागवत सुधा -करपात्री महाराज

अष्टम-पुष्प

4. प्रभुओं के भी प्रभु ‘श्रीराम’

सुमित्रा कहती हैं,‘राम कौन हैं?’

सूर्यस्यापि भवेत् सूर्यो ह्यग्नेरग्निः प्रभोः प्रभुः।
श्रियाः श्रीश्च भवेदग्रद्या कीत्र्याः कीर्तिः क्षमाक्षमा।।
दैवतं देवतानां च भूतानां भूतसत्तमः।
तस्य के ह्यगुणा देवि वने वाप्यथवा पुरे।।[1]

(देवि! श्रीराम सूर्य के भी सूर्य-मप्रकाशक और अग्नि के भी अग्नि-दाहक हैं। वे प्रभु के भी प्रभु, लक्ष्मी की उत्तम लक्ष्मी, और क्षमा की भी क्षमा हैं। इतना ही नहीं- वे देवताओं के भी देवता तथा भूतों के भी उत्तम भूत हैं। वे वन में रहें या या नगर में, उनके लिये कौन-से चराचर प्राणी दोषावह हो सकते हैं। यह उपनिषद् की भाषा है-
श्रीत्रस्य श्रोत्रं मनसी मनो यद्वाचो ह वाचं स उ प्राणस्य प्राणश्चक्षुपश्चक्षुरति मुच्य धीराः प्रेत्यास्माल्लोकादमृता भवन्ति।[2]
(जो श्रोत्र-का श्रोत्र, मन का मना और वाणी की भी वाणी है, वह प्राण का प्राण और चक्षु का चक्षु है, इस रहस्य के जानकार धीर पुरुष संसार से मुक्त होकर इस लोक से जाकर अमर हो जाते हैं।)
भगवान श्रोत्र के भी श्रोत्र हैं, मन के मन हैं, चक्षु के चक्षु हैं, वाक् के वाक् हैं। ‘दग्धुः दग्धा अग्निः’ अग्नितादात्म्यापन्न अयःपिण्ड है दग्धा, अग्नि है दग्धा का भी दग्धा। अयःपिण्ड स्वतः अनुष्णाशीत है, लेकिन अग्नि के संयोग से-अग्नि तादात्म्यापन्न होकर दाहक हो जाता है तब ‘अयो दहति’ बोलते हैं। ‘दग्धुः अयः पिण्डस्य दग्धा अग्निः’, दग्धा अयःपिण्ड में दाहकत्व, प्रकाशकत्व देने वाला जो अग्नि है वह ‘दग्धुः दग्धा’ है। तप्तायः पिण्ड में जो दाहकत्व-प्रकाशकत्व देने वाला जो अग्नि है वह ‘दग्धुः दग्धा’ है। तप्तायः पिण्ड में जो दाहकत्व-प्रकाशकत्व है वह सापेक्ष है सातिशय और अनित्य है। लेकिन जिस अग्नि के सम्बन्ध में लोहपिण्ड में अनित्य और सातिशय दाहकत्व-प्रकाशकत्व आता है, उस अग्नि में दाहकत्व-प्रकाशकत्व निरतिशय है। जैसे ‘दग्धा का दग्धा अग्नि है’ ऐसे ही ‘श्रोत्र के भी श्रोत्र’ भगवान् हैं। शब्द प्रकाशन-सामर्थ्य सम्पन्न इन्द्रिय श्रोत्र है। उस श्रोत्र के भी श्रोत्र’ भगवान् हैं। शब्द प्रकाशन-सामर्थ्य सम्पन्न इन्द्रिय श्रोत्र है। उस श्रोत्र में जो श्रोत्रत्व देने वाला है अर्थात शब्द प्रकाशन-सामर्थ्य जिसके[3] सम्बन्ध से आता है, वे भगवान् श्रोत्र के भी श्रोत्र है- श्रोत्रस्य श्रोत्रम्’। इसी तरह भगवान मन के भी मन है- ‘मनसो मनः’ मन में मन्तव्य पदार्थो को प्रकाशन करने का सामर्थ्य जिससे प्राप्त होता है वह मन का भी मन है। इसी दृष्टि से ‘सूर्यास्यापि भवेत् सूर्यः' भगवान राम सूर्य के भी सूर्य हैं। सूर्य में जो नेत्र प्रकाशन का आप्यायन का सामर्थ्य है, वह जिससे प्राप्त है श्रीराम हैं। ‘अग्नेरग्निः’ श्रीराम अग्नि के भी अग्नि हैं। अग्नि में प्रकाशकत्व जिससे आता है, वह श्री राम हैं। केनोपनिषद् की कथा याद कर लो- अग्नि तृण नहीं जला सका। भगवान ने तृण रख दिया- ‘तृणं निदधौ’,[4] अग्नि ने हजार बल लगाया पर तृण नहीं जला। वायु आया, उसने भी बल लगाया, तृण को टस-से-मस भी नहीं कर सका। ‘प्रभो: प्रभुः’ भगवान प्रभु के भी प्रभु हैं। ईश्वर के भी ईश्वर श्रीराम हैं। हमरे यहाँ नन्ददास एक महात्मा हो गये हैं, वे कहते हैं- ‘हमारा कृष्ण कौन है?

ब्रह्म का भी ब्रह्म, ईश्वर का ईश्वर है’-

नन्द भवन को भूषण माई।
जसोदा[5] को लाल वीर हलधर को राधा रमण परम सुखदाई।।
शिव को धन संतन को सर्वस, महिमा वेद पुरानन गाई।
इन्द्र को इन्द्र, देव देवन को, ब्रह्म को ब्रह्म अधिक अधिकाई।।
काल को काल, ईश ईशनको, अति ही अतुल तुल्यो नहिं जाई।
‘नन्ददास’ को जीवन गिरिधर, गोकुल गाँव को कुवँर कन्हाई।।

नन्ददास जी ने कहाँ से यह लिया? वाल्मीकि की रामायण से। सार यह है कि ऐसे रामचन्द्र राघवेन्द्र स्वयं भगवान हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. वाल्मीकि रामायण 2.44.15,16
  2. केनोपनिषद् 1.2
  3. सन्निधान
  4. केनोपनिषद् 3.6
  5. यशुदा

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क्रमांक पाठ का नाम पृष्ठ संख्या
प्रथम-पुष्प
1. निगमकल्परोर्गलितं फलम् 37
2. पुरुषार्थचतुष्टयप्रदायक निगमकल्पतरु 38
3. रसमालयम् 38
4. आत्माराम का भी भगवद्गुणगणार्णव में अवगाहन 38
5. देव दुर्लभ श्रीमद्भागवत: 39
6. युगधर्मों का निरूपण 42
7. विद्या-अविद्या का समुच्चय 44
8. भगवन्नाम-संकीर्तन 48
9. माहात्म्य 51
10. वस्तु-तत्व के साक्षात्कार के लिए श्रवण, मनन और निदिध्यासन अपेक्षित 54
11. ‘जन्माद्यस्य यतोऽन्वयात्’ की भूमिका 54
12. भगवत्तत्व का अनुसंधान- छान्दोग्य शैली में 55
13. भगवतत्व का अनुसंधान -तैत्तिरीय शैली में 56
14. पैंगलोपनिषत् पुराण और महाभारत की शैली में 56
15. परब्रह्म के निःश्वासभूत वेदों की अपौरुषैयता 57
16. वेदों के प्रतिपाद्य सगुण या निर्गुण 59
17. ईश्वर-सिद्धि 64
18. नास्तिकों के भी उद्धार का उपक्रम 64
19. सर्वात्मभाव 68
20. भगवान् जगत के अभिन्ननिमित्तोपादानकारण 70
द्वितीय-पुष्प
1. ‘जन्माद्यस्य यतः’ 71
2. 'अन्वयत्', 'इतरत:', 'च' 72
3. 'अभिज्ञः' 74
4. ‘स्वराट्’ 74
5. ‘तेने ब्रह्महृदा य आदि कवये मुह्यन्ति यत् सूरयः’ 75
6. ‘तेजोवारिमृदां यथा विनिमय: 76
7. ऋषि-सूत-संवाद 78
8. श्रीशुक-वन्दना 82
9. शुकमनमोहक ‘बर्हापीडं’ श्लोक 85
10. 'बर्हापीडं' 87
11. ‘नटवर- वपुः’ 88
12. ‘कर्णयोः कर्णिकारं’ 90
13. ‘विभ्रद्वासः कनककपिशं’ 91
14. ‘रन्ध्रान्वेणोरधरसुधया पूरयन्’ 92
15. ‘वृन्दारण्यं स्वपदरमणं’ 94
16. अकारणकरुण करुणावरुणालय-‘भगवान्’ 95
तृतीय-पुष्प
1. प्रतिपद्य और प्रतिपादक की परब्रह्मरूपता 99
2. परम धर्म 111
3. मोक्ष पर्यवसायी धर्म, अर्थ और काम 118
4. ‘तत्त्व’ की तात्त्विक परिभाषा 123
चतुर्थ-पुष्प
1. भगवान व्यास को देवर्षि नारद की प्रेरणा 127
2. गुणगण भगवान् के उपकारक नहीं 139
3. भगवदाराधन की विधि 143
4. ‘तथा परमहंसानां’ के साथ ‘परित्राणाय साधूनां’ की संगति 154
पंचम-पुष्प
1. शुक-समागम 159
2. अप्रमत्त के लिये अति सुगम भगवत्प्राप्ति 174
3. नाम-धाम-प्राणायाम और ध्यान से भगवत्प्राप्ति 175
4. ‘तेषां के योगवित्तमाः’ का समाधान 183
5. ‘न किश्चिदपि चिन्तयेत्’ का तात्त्विक अभिप्राय 188
षष्ठ-पुष्प
1. ब्रह्म-नारद संवाद 190
2. माया संतरण का अमोघ उपाय 191
3. प्रह्लाद चरित 196
4. शरणागति 205
5. शरण्य की शरणागति 208
6. शरण्य का स्वरूप 208
7. शरणागति एक बार या बार-बार? 208/2
8. श्री जी 209
सप्तम-पुष्प
1. राजा बलि के पूर्व जन्म का वृतान्त 216
2. भगवान वामन को आविर्भाव 223
3. राजा बलि की सत्यनिष्ठा 228
4. धर्मनिरपेक्ष या धर्मसापेक्ष? 228
5. धन बड़ा या धनवान ? 230
6. ‘धन नहीं धनवान् बड़ा’ 231
अष्टम-पुष्प
1. वेदान्तवेद्य पूर्णतम पुरुषोत्तम ‘श्रीराम’ 233
2. ‘आदि कर्ता स्वयं प्रभु’ श्रीराम 235
3. लताओं तक को प्रेम प्रदान करने वाले ‘श्रीराम’ 236
4. प्रभुओं के भी प्रभु ‘श्रीराम’ 238
5. धर्म रक्षक ‘श्रीराम’ 239
6. लीला पुरुषोत्तम ‘श्रीकृष्ण’ 239
7. श्रीवृन्दावन, गोपांगनाएँ; श्रीकृष्ण और राधा का तात्विक स्वरूप 240
8. श्रीकृष्णचन्द्र परमानन्दकन्द का अद्भुत प्राकट्य 242
9. सुषमासारसर्वस्त्र ‘श्रोहरि’ 242
10. अनाघ्रात अनपहत-अनुत्पन्न-अनुपहत और अदृष्टाद्भुत पंकज ‘श्रीकृष्ण’ 242
11. सत्यज्ञानानन्तान्दमात्रैकरसमूर्ति ‘श्रीकृष्ण’ 242/2
12. भगवान् के जन्म और कर्म दिव्य हैं, वे स्वयं अप्राकृत हैं 244
13. श्री वृन्दावनधाम 248
14. मृद्भक्षण लीला 250
15. दामोदरलीला 251
16. निराकार से साकार 252
17. भावुक के दु्रत चित्त पर भगवान् की अभिव्यक्ति ‘भक्ति’ 254
18. श्रीकृष्णचन्द्र और श्रीराधाचन्द्र 255
19. आसन और आशयरूप बाह्यप्रपच्च और पंचकोश के तादात्म्य का त्यागकर श्रीकृष्णचन्द्र परमानन्द कन्द के स्वागत में तन्मय द्वारकास्थ पट्टमहिषीगण 257
20. कथा श्रवण से वैराग्य एवं विज्ञानोपलब्धि 258
21. भगवद्गुणानुवाद से भगवद्भक्ति 259
22. अंतिम पृष्ठ 259

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