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भागवत सुधा -करपात्री महाराज
तब तक कर्म काण्ड करना चाहिए- यज्ञ, तप, दान करना चाहिए, जब तक पूरा वैराग्य न हो जाय। अथवा भगवान के मंगलमय कथा- सुधा के पान में श्रद्धा जब तक न हो, कर्म करते रहना चाहिए। एतावता कर्म की सीमा है। भगवत्कथा में अखण्ड श्रद्धा अथवा सम्पूर्ण संसार से पूर्ण वैराग्य। इस तरह ज्ञान मार्ग के लिए परम वैराग्य और भक्ति के लिए भगवत्कथा में अखण्ड श्रद्धा। इसके बिना तो ‘श्रम एव हि केवलम्।
3. मोक्ष पर्यवसायी धर्म, अर्थ और काम-
बोले, भाई! धर्म का तो और भी फल है’, इस पर कहा-
धर्मस्य ह्यापवर्गस्य नार्थाअर्थायोपकल्पते।
नार्थस्य धर्मकान्तस्य कामो लाभाय हि स्मृतः।।
कामस्य नेन्द्रियप्रीतिर्लाभे जीवेत यावता।
जीवस्य तत्त्वजिज्ञासा नार्थो यश्चेह कर्मभिः।।[1]
क्योंकि धर्म अपवर्ग-मोक्ष साधक है, उसका प्रयोजन केवल अर्थ-धन नहीं है। धर्म साधक अर्थ का फल केवल काम-भोग भी नहीं है।।9।।
काम का फल भी इन्द्रिय लालन नहीं है, जीवन का फल भी तत्त्व-जिज्ञासा ही है, इस लोक में यज्ञासि कर्मों के द्वारा प्राप्त होने वाले स्वर्गादि फल ही जीवन की सार्थकता नहीं है।।10।।
इन श्लोकों में अपना सारा सिद्धान्त बता दिया। धर्म का मुख्य फल है अपवर्ग भगवत्पद प्राप्ति। बोले-अर्थ भी तो फल है। स्वर्ग मिले, नन्दनवन मिले, चिन्तामणि मिले, कामधेनु मिले, अनन्त-अनन्त भोगसामग्री मिले। इस तरह अर्थ भी तो फल है। इस पर कहा- नहीं। अर्थ जो है, वह धर्म का प्रयोजन नहीं, धर्म का प्रयोजन शुद्ध अपवर्ग है। बोले- पर धर्म से तो अर्थ मिलता ही है फिर धन का क्या फल है? इस पर कहा- धन का परमफल धर्मानुष्ठान है। धन मिल गया, तब यज्ञ करो, व्रत करो, जप करो। परन्तु लोग क्या मानते हैं? लोग मानते हैं कि धर्म का परम फल है अर्थ, अर्थ का फल काम है, काम का फल इन्द्रिय तर्पण है। किसी ने पूछा- क्यों भाई! कर्म बहुत क्यों कर रहे हो? उत्तर दिया- भाई! कर्म न करेंगे तो खायेंगे क्या?
पूछा - खाते क्यों हो? उत्तर दिया- खायेंगे नहीं तो कर्म कैसे करेंगे?
कुर्वते कर्म भोगाय कर्म कर्तु च भुंजते।
नद्यां कीटा इवावर्तादावर्तान्तरमश्नुते।
ब्रजन्तो जन्मनो जन्म लभन्ते नैव निर्वृतिम्।।[2]
कर्म करते हैं भोग के लिए, भोग भोगते हैं कर्म करने के लिए। जैसे नदी में पड़ा हुआ क्रीड़ा एक भँवर से दूसरे भँवर में, दूसरे से तीसरे में पड़ते रहकर सुख नहीं पाता, वैसे जन्म से जन्मान्तर लाभ करते रहने के कारण प्राणी सुख प्राप्त नहीं करते ।।)
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