भागवत सुधा -करपात्री महाराजबल्कलवसनधारी कन्दमूलफलाशी हो। लेकिन आप यह जानते हो कि स्त्री क्या बला है, पुरुष क्या बला है, स्त्री-पुरुष का भेद बोध आप को है। आपका पुत्र विविक्तदृष्टि है। उसकी दृष्टि विविक्त परमपवित्र है। दृश्य उसकी बुद्धि में प्रस्फुरित ही नहीं होता। शुद्ध परात्पर परब्रह्म ही स्फुरित होता है। इसलिए अपनी अन्तरात्मा से कौन लज्जा करता है? हमारी अन्तरात्मा से हमको कहाँ लज्जा है। वह तो सबका अन्तरात्मा है। हमारा भी अन्तरात्मा है। स्त्री पुंभेद रहित है। इसलिए उससे हम को कोई लज्जा नहीं आपको तो स्त्री पुरुष का भेद स्फुरित होता है। आप से हमारा लज्जित होना उचित है।’’ उसके बाद शुक जाकर कहीं किसी अरण्य में पाषाण प्रतिमा के तुल्य निर्विकल्प अखण्ड समाधि में विराजमान हो गये। तो भगवान वेदव्यास के शिष्य समिधा लेने के लिए वन में जाते थे। उन्होंने कई दिन देखा- ‘महात्मा बड़े तेजोमय हैं।’ ‘ब्रह्मविदिव वे सोम्य भासि’[1]कहते हैं- ‘ब्रह्मविद् का मुख भी कुछ विलक्षण होता है।’ श्रति में महर्षि कहते हैं- हे शिष्य! विदित होता है तू ब्रह्मविद् हो गया है। ब्रह्मविद् जैसा तेरा मुख प्रतीत हो रहा है।’ शिष्यों ने आकर गुरु जी से कहा- ‘‘महाराज! वन में एक ऐसे परमहंस हैं जो ब्रह्मविद्वरिष्ठ तत्त्वज्ञानी प्रतीत होते हैं। पाषाण-प्रतिमा के तुल्य निश्चल निर्विकल्प बैठे हैं।’’ व्यास को मालूम हो गया, हाँ ठीक है। वे श्रीमद्भागवत का निर्माण कर चुके थे। शिष्यों से कहा- ‘‘एक श्लोक है, वहाँ जाकर आसपास उसी को तुम पढ़ा करना। इसके पढ़ने से कोई सिंह-व्याघ्रादि जन्तु तुम्हें बाधा नहीं डालेंगे।’’
‘‘कौन श्लोक है वह भगवन?’’ शिष्यों ने पूछा। बर्हापीडं नटवरवपुः कर्णयोः कणिकारं (भगवान परमानन्दकन्द श्रीकृष्णचन्द्र नटवर वपु को धारण किये, बर्हमय आपीड को धारण किये, वैजन्ती माला को पहने, कानों में कर्णिकार धारण किए, पीताम्बरधर वैजयन्ती माला को पहने, अधर सुधा से वेणु को परिपूरित करते हुए, गोपवृन्दों के संग विलसित होते हुए श्रीमद् वृन्दावन धाम में पधारे।।) |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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