भागवत सुधा -करपात्री महाराजतृतीय-पुष्प श्री सूत जी महाराज ने शकदेव जी की वन्दना की। यह स्पष्ट हुआ कि श्री शुकदेव जी महाराज ही श्रीमद्भागवत के मुख्य वक्ता हैं। श्रीमद्भागवत साक्षात श्री भगवान का स्परूप ही माना जाता है। जिसके घर में श्रीमद्भागवत विराजमान हैं मानों साक्षात ब्रजेन्द्रनन्दन श्यामसुन्दर मदन-मोहन प्रभु विराजमान हैं, क्यांकि व्यापक सिद्धान्त है कि प्रकाशक प्रकाश्य से अधिक महत्त्व वाला होता है। जिसके द्वारा प्रकाश्य सार्थक हो, उसकी महिमा स्वाभाविक रूप से है। यद्यपि भगवान स्वयं प्रकाश हैं[1], उनका प्रकाशक कोई दूसरा नहीं हो सकता। उनसे दूसरी वस्तु तो वही हो सकती है, जो परतः प्रकाश्य हो। परतः प्रकाश्य से स्वतः प्रकाश्य प्रकाशित हो ऐसा-संभव नहीं। भगवान स्वप्रकाश हैं। ‘अवेद्यत्वे सति अपरोक्षव्यवहार योग्यत्वम् स्वप्रकाशत्वम्’ ऐसा स्वप्रकाश ब्रह्मात्मा ही सिद्ध होता है। वही वेदन का गोचर[2] न होकर के अपरोक्ष व्यवहार के योग्य है। दुनियाँ में कहा जाता है- ‘दीप भी स्वप्रकाश है’, पर नहीं। दीपक में स्वप्रकाशता वास्तविक नहीं। दीपक स्वजातीय प्रकाशानपेक्ष हैं दीपक दीपकान्तर की अपेक्षा नहीं करता, परन्तु चक्षु न होगा तो दीपक का क्या प्रकाश है? लोक में कहा जाता है- ‘‘सूर्य नारायण भी स्वप्रकाश हैं। सूर्य नारायण के प्रकाश के लिए दूसरे प्रकाश की अपेक्षा नहीं। लालटेन, गैस आदि की भी अपेक्षा नहीं। बिना दीपक, लालटेन, गैस के बिना सूर्यान्तर के सूर्यनारायण का प्रकाश होता है।’’ लेकिन सूर्यनारायण के प्रकाश के लिए भी आँख चाहिए। आँख न होगी तो सूर्य को कैसे जानोगे? मन न होगा, बुद्धि न होगी तो सूर्य को कैसे जानोगे? इसलिए इनमें स्वप्रकाशता सापेक्ष है निरपेक्ष स्वप्रकाशता नहीं। निरपेक्ष स्वप्रकाशता भगवत्स्वरूप आत्मा में ही है। उसे सजातीय, विजातीय किसी भी प्रकार के प्रकाश की अपेक्षा नहीं, न सजातीय प्रकाश की अपेक्षा, न विजातीय प्रकाश की अपेक्षा। ऐसा स्वप्रकाश आत्मा होता है, सर्वद्रष्टा आत्मा।[3]
इसलिए श्रुति कहती है-
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑
सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म। (तैत्तिरीयोपनिषद् 2/1)
अत्रायं पुरुषः स्वयं ज्योतिर्भवति (वृहदारण्यको पनिषद् 4/3/9)
तमेव भान्तमनुभाति सर्वे तस्य भाषा सर्वेमिदं विभाति’, (मुण्डको 2/2/10)
अस्मात्सर्वस्मात्पुरतः सुविभातम्’ (नृसिंहोत्तर0 2) - ↑ विषय
- ↑ ‘अवेद्योअप्यरोक्षोअतः स्वप्रकाशो भवत्ययम्। सत्यं ज्ञानमनन्तं चेत्यस्तीह ब्रह्मलक्षणम्’ (पंचदशी 3/28) इन्द्रियजन्य ज्ञानविषयत्वा भावेअप्य परोक्षत्वात् स्वप्रकाश इत्यर्थः। अत्रायं प्रयोग:- आत्मा स्वप्रकाश: संवित्कर्मतामंतरेणाअपरोक्षत्वात् संवेदनवदिति। न च विशेषणा सिद्धो हेतु:। आत्मन: संवित्कर्मत्वे कर्मकर्तृ भाव विरोधप्रसंगात्। स्वस्वरूपेण कृतृत्वं विशिष्टरूपेण कर्मत्वमित्यविरोध इति चेत् गमनत्रियायामपि एकस्यैव स्वरूपेण कर्तृत्वं विशिष्टरूपेण कर्मत्वमित्यतिप्रंगात्। न च साधन विकलो दृष्टांत:। संवेदनस्य संवेदनांतरापेक्षायामनवस्थानादिति। तर्कमते घटो घटज्ञानेन भासते घटज्ञानमनुव्यवसायेनेति संवेदनवत्स्वप्रकाशे दृष्टांत: साधनविकल इति चेन्न, ज्ञानस्य ज्ञानांतरेण भासनाभावात्माधनविकल:। नंवात्मन: स्वप्राशत्वेन सिद्धत्वेअपि ब्रह्मलक्षणाभावात् न ब्रह्मत्वसिद्धरित्याशंक्य तल्लक्षणं तरे योजयति- सत्यमिति। 'सत्यंज्ञानमनंत ब्रह्म' इति श्रुत्या यद् ब्रह्मणो लक्षणमुक्त तदात्मनि विद्यत इत्यर्थ:।
- ↑ बृहदारण्यकोपनिवद् 4/5/15
- ↑ बृहदारण्येकापानिषद् 3/8/11
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