भागवत सुधा -करपात्री महाराज
13. ‘बिभ्रद्वासः कनककपिशं’:-
जैसे अग्नि में तपाया हुआ कनक देदीप्यमान, चमचमाता है, ऐसे ही चमचमाते हुए पीताम्बर धारण किये हुए हैं श्याम सुन्दर। यह श्रृंगार है, श्रृंगार आवृत होना चाहिए। निरावरण श्रृंगार रसाभस बन जाता है। रस सावरण होकर भी शोभा देता है। निरावरण रस शोभित नहीं होता। फिर भगवान तो रससार सर्वस्व हैं, निखितरसामृतमूर्ति हैं। संप्रयोगात्मक-विप्रयोगात्मक उद्बुद्ध-उभयविध श्रृंगार रससारसर्वस्व ही हैं। अतः अनका प्राबरक पीताम्बर है। माया के स्वरूप में विमोहकता और प्रावरकता है। पीताम्बर में भी विमोहकता और प्रावरकता है। माया त्रिगुणमयी होती हुई भी एक सी परिलक्षित होती है। पीताम्बर भी गुण (सूत्र) मय होता हुआ एक-सा प्रतीत होता है। इन सब दृष्टियों से पीताम्बर माया है-
नाहं प्रकाशः सर्वस्य योगमायासमावृतः ।
मूढोअयं नाभिजानाति लोको मामजमव्ययम्।।[1]
(गुणों के मेल का नाम योग है, वही माया है। उस योगमाया से आच्छादित होने के कारण मैं सब लोगों के सामने प्रकट नहीं हूँ। किन्हीं भक्तों के सम्मुख ही प्रकट हूँ। इसलिए मूढ़ प्राणी प्रकट रूप से मुझ आज, अविनाशी को नहीं जानते हैं)
माया का चाकचिक्य देखकर लोग लोटपोट हो जाते हैं। दामिनीद्युतिविनिन्दक पीताम्बरसमावृत्त नवनीलघर जैसी पीताम्बरधर मदनमोहन श्यामसुन्दर की आभा प्रभा शोभा कान्ति है। ‘कनक कपिश’ केवल पीताम्बर नहीं, किन्तु तप्तकांचन के सदृश सुवर्ण वर्णाम्बर है। क्यों? इसलिए कि सुवर्ण मोहक है। बड़े-बडे़ ईमानदारों का ईमान डुबाने वाला सुवर्ण ही होता है, अतः सुवर्णवर्ण पीताम्बर व्यामोहक कनकतुल्य माया है। जो इन कनक के आवरण में फँसा तो रसात्मा ब्रह्म को क्या देखेगा? ऐसे आवरण से अपने श्रीअंग को आवृत कर भगवान श्रीवृन्दावन धाम में पधारे। भावुक कहते हैं। श्रीबल्लभाचार्य भी मानते हैं पीताम्बर माया है। पर यह प्राकृत माया नहीं, किन्तु यह श्रीवृषभानुनन्दिनी ही हैं। किंबहुना! श्रीकृष्णचन्द्र परमानन्द कन्द के श्रीअंग पर जितने भर भी आभूषण हैं, सब श्रीवृषभ्ज्ञानुनन्दिनी ही हैं। जहाँ वनमाला को माया माना है, वहाँ भी यही समझना चाहिए कि माया के स्वरूप में अनेकता, आह्लादकता और आच्छादकता है। वनमाला में भी यही सब हैं। इस दृष्टि से वनमाला माया है-
स्वमायां वनमालाख्यां नानागुणमयीं दधत्।
वासश्च्छन्दोमयं पीतं ब्रह्मसूत्रं त्रिवृत् स्वरम्।।
दामिनी से अनन्तगुणित पीताम्बर है।[2]उस पीताम्बर से परिवेष्टित भगवान श्रीकृष्णचन्द्र परमानन्दकन्द का मधुर मंगलमय स्वरूप श्रीशुकदेव जी के मन में आया।
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