विषय सूचीभागवत सुधा -करपात्री महाराजषष्ठ-पुष्प 7. शरणागति एक बार या बार-बार?एक विचार और है, शरणागति बार-बार या एक बार? महानुभावों ने विचार किया है- ‘ज्योतिष्टोमेन स्वर्गकामो यजेत्’ सर्व प्राप्ति के लिये ज्योतिष्टोम का अनुष्ठान बार-बार करने की आवश्यकता नहीं, एक बार ही पर्याप्त है। एक बार के अनुष्ठान से ही स्वर्ग प्राप्ति निश्चित हो गयी, क्योंकि आवृत्ति का विधान नहीं है। इसी प्रकार एक बार शरणागति हो गई तो काम हो गया। लेकिन एक बार ही वेदान्त श्रवण से काम नहीं चलेगा- ‘आवृत्तिरसकृदुपदेशात्।’[1] सूत्रार्थः- प्रत्यय की आवृत्ति करनी चाहिये, क्यों कि ‘श्रोतव्यो मन्त्व्यः’[2] आदि श्रुतियों में इस प्रकार का बार-बार उपदेश है। वेद में लिखा है- ‘व्रीहीनवहन्ति’ ‘धानों को कूटे’ कितने बार मूसल चलाये? एक बार मूसल चलाने पर भी अवघात हो गया, परन्तु नहीं- यावत्तण्डुलनिष्पत्ति र्न स्यात्[3] ‘यावत्पर्यन्त तण्डुलनिष्पत्ति न हो तावत्पर्यन्त अवघाव करे’ इसी प्रकार वेदान्त श्रवण की सीमा है अपरोक्ष साक्षात्कार। वह जब तक न हो तब तक ममन, निदिध्यासन करते चलो। लेकिन शरणागति के लिये ऐसी-कोई बात नहीं। एक बार भी शरणागति हो गई तो ठीक है। सर्वेश्वरत्व, सर्वकारणत्वत्व, सर्वशेषित्व, सुलभत्व और वात्सल्यपूर्ण मातृत्व की दृष्टि से श्री जी की शरणागतिः- शरण्य के सम्बन्ध में आचार्यों ने विचार किया है। श्रीमन्नारायण और श्री जी के स्वरूप पर आचार्यों में मतभेद है। वेदान्तदेशिक की और भिन्न-भिन्न आचार्यों का दृष्टियाँ हैं, उसके साथ यह भी एक दृष्टि है- एकंज्योतिरभूद्रेधा राधामाधवरूपकम् एक अनन्त-अखण्ड-निर्विकार ब्रह्मज्योति ही गौर-तेज[4] और श्याम तेज[5] के रूप में प्रकट हुयी। इस तरह श्रीराधा-माधव दोनों एक ही हैं। एक ही अनन्त-अखण्ड-निर्विकार ब्रह्मज्योति श्रीमन्नारायण परात्पर परब्रह्म विष्णु और ऐश्वर्य-माधुर्य की अधिष्ठात्री भगवती महालक्ष्मी के रूप में, श्रीसीता और श्रीराम के रूप में प्रकट हुई है। ऐसा होने पर भी श्री जी में सुलभता अधिक है। सर्वेपूरकत्व, सर्वशक्तिमत्व उनमें है। सर्वकारणत्व, सर्वशोषित्व उनमें है। सुलभत्व तो उनसे ज्यादा और किसी में है ही नहीं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ ब्रह्मसूत्र 4.1.1.1
- ↑ बृहदारण्यक 4.5.6
- ↑ अथाअवघातेअपूर्वविधिरेव सन् फलतो नियम इति व्यवह्नियते श्रवणेअपि तथा भविश्यति। (विवरण प्रमेय संगह 1.10 श्रवण विधि
यद्यपि अवघात में अपूर्व विधि ही है, तथापि जैसे फलत: नियम विधि का व्यवहार होता है, वैसे ही श्रवण में अपूर्व विधि होने पर भी फलत: नियम विधि का व्यवहार होगा।
अर्थात अवघात से उत्पन्न तण्डुल ही अपूर्ण के प्रति कारण हैं, अन्य साधनों से निष्पन्न तण्डुल नही, इस प्रकार अन्य में निषेध होने से अवघात में नियमविधि फलित होती है। वेदान्त विचार से ही ब्रह्मज्ञान होता है, अन्य साधनों से नहीं होता, इस प्रकार श्रवणविधि को अपूर्व विधि-मानने से भी फलत: नियम विधि हो सकती है। - ↑ श्रीराधा
- ↑ श्रीकृष्ण
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