भागवत सुधा -करपात्री महाराज पृ. 208/2

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भागवत सुधा -करपात्री महाराज

षष्ठ-पुष्प

7. शरणागति एक बार या बार-बार?

एक विचार और है, शरणागति बार-बार या एक बार? महानुभावों ने विचार किया है-

‘ज्योतिष्टोमेन स्वर्गकामो यजेत्’

सर्व प्राप्ति के लिये ज्योतिष्टोम का अनुष्ठान बार-बार करने की आवश्यकता नहीं, एक बार ही पर्याप्त है। एक बार के अनुष्ठान से ही स्वर्ग प्राप्ति निश्चित हो गयी, क्योंकि आवृत्ति का विधान नहीं है। इसी प्रकार एक बार शरणागति हो गई तो काम हो गया। लेकिन एक बार ही वेदान्त श्रवण से काम नहीं चलेगा-

‘आवृत्तिरसकृदुपदेशात्।’[1]

सूत्रार्थः- प्रत्यय की आवृत्ति करनी चाहिये, क्यों कि ‘श्रोतव्यो मन्त्व्यः’[2] आदि श्रुतियों में इस प्रकार का बार-बार उपदेश है। वेद में लिखा है- ‘व्रीहीनवहन्ति’ ‘धानों को कूटे’ कितने बार मूसल चलाये? एक बार मूसल चलाने पर भी अवघात हो गया, परन्तु नहीं-

यावत्तण्डुलनिष्पत्ति र्न स्यात्[3]

‘यावत्पर्यन्त तण्डुलनिष्पत्ति न हो तावत्पर्यन्त अवघाव करे’ इसी प्रकार वेदान्त श्रवण की सीमा है अपरोक्ष साक्षात्कार। वह जब तक न हो तब तक ममन, निदिध्यासन करते चलो। लेकिन शरणागति के लिये ऐसी-कोई बात नहीं। एक बार भी शरणागति हो गई तो ठीक है। सर्वेश्वरत्व, सर्वकारणत्वत्व, सर्वशेषित्व, सुलभत्व और वात्सल्यपूर्ण मातृत्व की दृष्टि से श्री जी की शरणागतिः- शरण्य के सम्बन्ध में आचार्यों ने विचार किया है। श्रीमन्नारायण और श्री जी के स्वरूप पर आचार्यों में मतभेद है। वेदान्तदेशिक की और भिन्न-भिन्न आचार्यों का दृष्टियाँ हैं, उसके साथ यह भी एक दृष्टि है-

एकंज्योतिरभूद्रेधा राधामाधवरूपकम्

एक अनन्त-अखण्ड-निर्विकार ब्रह्मज्योति ही गौर-तेज[4] और श्याम तेज[5] के रूप में प्रकट हुयी। इस तरह श्रीराधा-माधव दोनों एक ही हैं। एक ही अनन्त-अखण्ड-निर्विकार ब्रह्मज्योति श्रीमन्नारायण परात्पर परब्रह्म विष्णु और ऐश्वर्य-माधुर्य की अधिष्ठात्री भगवती महालक्ष्मी के रूप में, श्रीसीता और श्रीराम के रूप में प्रकट हुई है। ऐसा होने पर भी श्री जी में सुलभता अधिक है। सर्वेपूरकत्व, सर्वशक्तिमत्व उनमें है। सर्वकारणत्व, सर्वशोषित्व उनमें है। सुलभत्व तो उनसे ज्यादा और किसी में है ही नहीं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. ब्रह्मसूत्र 4.1.1.1
  2. बृहदारण्यक 4.5.6
  3. अथाअवघातेअपूर्वविधिरेव सन् फलतो नियम इति व्यवह्नियते श्रवणेअपि तथा भविश्यति। (विवरण प्रमेय संगह 1.10 श्रवण विधि
    यद्यपि अवघात में अपूर्व विधि ही है, तथापि जैसे फलत: नियम विधि का व्यवहार होता है, वैसे ही श्रवण में अपूर्व विधि होने पर भी फलत: नियम विधि का व्यवहार होगा।
    अर्थात अवघात से उत्पन्न तण्डुल ही अपूर्ण के प्रति कारण हैं, अन्य साधनों से निष्पन्न तण्डुल नही, इस प्रकार अन्य में निषेध होने से अवघात में नियमविधि फलित होती है। वेदान्त विचार से ही ब्रह्मज्ञान होता है, अन्य साधनों से नहीं होता, इस प्रकार श्रवणविधि को अपूर्व विधि-मानने से भी फलत: नियम विधि हो सकती है।
  4. श्रीराधा
  5. श्रीकृष्ण

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क्रमांक पाठ का नाम पृष्ठ संख्या
प्रथम-पुष्प
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3. रसमालयम् 38
4. आत्माराम का भी भगवद्गुणगणार्णव में अवगाहन 38
5. देव दुर्लभ श्रीमद्भागवत: 39
6. युगधर्मों का निरूपण 42
7. विद्या-अविद्या का समुच्चय 44
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9. शुकमनमोहक ‘बर्हापीडं’ श्लोक 85
10. 'बर्हापीडं' 87
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षष्ठ-पुष्प
1. ब्रह्म-नारद संवाद 190
2. माया संतरण का अमोघ उपाय 191
3. प्रह्लाद चरित 196
4. शरणागति 205
5. शरण्य की शरणागति 208
6. शरण्य का स्वरूप 208
7. शरणागति एक बार या बार-बार? 208/2
8. श्री जी 209
सप्तम-पुष्प
1. राजा बलि के पूर्व जन्म का वृतान्त 216
2. भगवान वामन को आविर्भाव 223
3. राजा बलि की सत्यनिष्ठा 228
4. धर्मनिरपेक्ष या धर्मसापेक्ष? 228
5. धन बड़ा या धनवान ? 230
6. ‘धन नहीं धनवान् बड़ा’ 231
अष्टम-पुष्प
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2. ‘आदि कर्ता स्वयं प्रभु’ श्रीराम 235
3. लताओं तक को प्रेम प्रदान करने वाले ‘श्रीराम’ 236
4. प्रभुओं के भी प्रभु ‘श्रीराम’ 238
5. धर्म रक्षक ‘श्रीराम’ 239
6. लीला पुरुषोत्तम ‘श्रीकृष्ण’ 239
7. श्रीवृन्दावन, गोपांगनाएँ; श्रीकृष्ण और राधा का तात्विक स्वरूप 240
8. श्रीकृष्णचन्द्र परमानन्दकन्द का अद्भुत प्राकट्य 242
9. सुषमासारसर्वस्त्र ‘श्रोहरि’ 242
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11. सत्यज्ञानानन्तान्दमात्रैकरसमूर्ति ‘श्रीकृष्ण’ 242/2
12. भगवान् के जन्म और कर्म दिव्य हैं, वे स्वयं अप्राकृत हैं 244
13. श्री वृन्दावनधाम 248
14. मृद्भक्षण लीला 250
15. दामोदरलीला 251
16. निराकार से साकार 252
17. भावुक के दु्रत चित्त पर भगवान् की अभिव्यक्ति ‘भक्ति’ 254
18. श्रीकृष्णचन्द्र और श्रीराधाचन्द्र 255
19. आसन और आशयरूप बाह्यप्रपच्च और पंचकोश के तादात्म्य का त्यागकर श्रीकृष्णचन्द्र परमानन्द कन्द के स्वागत में तन्मय द्वारकास्थ पट्टमहिषीगण 257
20. कथा श्रवण से वैराग्य एवं विज्ञानोपलब्धि 258
21. भगवद्गुणानुवाद से भगवद्भक्ति 259
22. अंतिम पृष्ठ 259

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