भागवत सुधा -करपात्री महाराज पृ. 196

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भागवत सुधा -करपात्री महाराज

षष्ठ-पुष्प

3. प्रह्लाद-चरित

भगवान की अनेक मंगलमयी लीलायें हैं। अनेक ढंग के भगवान के भक्त हुए और भगवान का अनेक रूपों में आविर्भाव हुआ। भक्तराज प्रह्लाद ने भगवान की आराधना की। भगवान की आराधना में उसकी बड़ी लगन थी। कई लोग कूटनीतिज्ञ होते हैं। वे कहते हैं, ’क्या हर्ज था प्रह्लाद मन-ही-मन भगवान का नाम ले लेता।’ उनका ऐसा कहना कूट नीति है। ऐसा होता तो नृसिंह रूप से भगवान का आविर्भाव न होता। गोस्वामी जी लिखते हैं-

काढ़ि कृपान, कृपा, न कहूँ पितु काल कराल विलोकि न भागे।
‘राम कहाँ?’, सब ठाउँ हैं’, खंभ में?, ‘हाँ’ सुनि हाँक नृकेहरि जागे।
बैरी विदारि भए विकराज, कहे प्रह्लादहिं के अनुरागे।
प्रीति प्रतीति बढ़ी ‘तुलसी’ तब तें सब पाहन पूजन लागे।।[1]
सेवक एक ते एक अनेक भए तुलसी तिहु ताप न डाढ़े।
प्रेम बंदौ प्रहलादहिं को जिन पाहन ते परमेश्वर काढ़े।।[2]

प्रह्लाद की प्रीति को देखकर पाषाण से भगवान का प्रादुर्भाव हो गया। घन पाषाण में द्वणुकादि के भी सन्निविष्ट होने की संभावना नहीं होती। उसी से भगवान् का प्रादुर्भाव हुआ नृसिंह रूप में।

हिरण्यकशिपु ने कहा- ‘‘प्रह्लाद! तू सहारे से, किसके बल के घमंड पर मेरी आज्ञा ठुकराता है? मैं कहता हूँ कि हरि-विष्णु आदि कुछ नहीं है, उधर मन मत लगा। मुझे मान।’’ प्रह्लाद ने बड़ा उत्तम उत्तर दिया- ‘वह मेरा ही बल नहीं है, संसार में जितने बलवान हैं सबका बल वही है।’

न केवलं मे भवतश्य राजन् स वै बलं बलिनां चापरेषाम्।
परेअवरेअमी स्थिरजंगमा ये ब्रह्मादयो येन वशं प्रणीताः।।
स ईश्वरः काल उरुक्रमोअसावोजः सहः सत्त्वबलेन्द्रियात्मा।
स एव विश्वं परमः स्वशक्तिभिः सृजत्यवत्यति गृणत्रयेशः।।
जह्यासुरं भावमिमं त्वमात्मनः समं मनो धत्स्व न सन्ति विद्विषः।
ऋतेअजितादात्मन उत्पथस्थितात् तद्धि ह्यनन्तस्य महत् समर्हणम्।।[3]

(दैत्यराज! ब्रह्मा से लेकर तिनके पर्यन्त सब छोटे-बडे़, चर-अचर जीवों को भगवान ने ही अपने वश में कर रक्खा है। न केवल मेरे और आपके, बल्कि संसार के समस्त बलवानों के बल भी केवल वही हैं। वे ही महापराक्रमी सर्वशक्तिमान प्रभु काल हैं तथा समस्त प्राणियों के इन्द्रियबल, मनोबल, देहबल, धैर्य एवं इन्द्रिय भी वही हैं। वही परमेश्वर अपनी शक्तियोें के द्वारा इस विश्व की रचना, रक्षा और संहार करते हैं। वे ही तीनों गुणों के स्वामी हैं। आप अपना यह आसुर भाव त्याग दीजिये। अपने मन को सबके प्रति समान बनाइये। इस संसार में अपने वश में न रहने वाले कुमार्गगामी मन के अतिरिक्त और कोई शत्रु है ही नहीं। मन में सबके प्रति समता का भाव लाना ही भगवान की सबसे बड़ा पूजा है)।
प्रह्लाद की दृष्टि में केनोपनिषद् की कथा थी। केनोपनिषद् में आख्यान है- देवासुर संग्राम होने लगा। देवताओं ने सर्वान्तरात्मा, सर्वेश्वर, अशरणशरण भगवान् को स्मरण किया। विपद्ग्रस्त प्राणी को भगवान याद आते हैं। भगवान् के तेज से उपबृंहित होकर उन्होंने असुरों को जीत लिया। तब उन्हें घमण्ड हो गया- ‘अपने अस्त्रबल, शस्त्रबल, सैन्यबल, संघटन बल, बाहुबल, बौद्धबल के प्रभाव से हमने असुरों को जीता है।’ आपस में वे एक दूसरे से कहने लगे- ‘वाह! अस्त्र-शस्त्रों की महिमा देखा कि नहीं?’ ‘असुरिति प्राणनाम’ असु माने प्राण। प्राणोपलक्षित अनात्मा में जो रमण करते हैं वे असुर हैं- ‘असु अनात्म-जातम्, तत्र ये रमन्ते ते असुराः’। ‘परमात्मभावमद्वयमपेक्ष्य देवादयोअप्यसुराः’[4] ‘अद्वय परमात्मभाव की अपेक्षा से देवतादि भी असुर ही हैं।’ सु=सुष्ठु शोभनं परब्रह्म, र= तत्र ये रमन्ते ते सुराः’ जो भगवान् में रमण करते हैं वे सुर हैं। भगवान सोचने लगे- ‘‘ये भी असुर हो गये। इनको हमारे बल का ध्यान नहीं है। अपने अस्त्रबल, शस्त्रबल, सैनिकबल, संघटनबल, बाहुबल और बौद्धबल का ध्यान है।।’’ परन्तु भगवान जिस पर कृपा करते हैं, उसका घमण्ड जल्दी दूर कर देते हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. कवितावली 128
  2. कवितावली 117
  3. भागवत 7.8.8-10
  4. शांकरभाष्य ई0 3

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क्रमांक पाठ का नाम पृष्ठ संख्या
प्रथम-पुष्प
1. निगमकल्परोर्गलितं फलम् 37
2. पुरुषार्थचतुष्टयप्रदायक निगमकल्पतरु 38
3. रसमालयम् 38
4. आत्माराम का भी भगवद्गुणगणार्णव में अवगाहन 38
5. देव दुर्लभ श्रीमद्भागवत: 39
6. युगधर्मों का निरूपण 42
7. विद्या-अविद्या का समुच्चय 44
8. भगवन्नाम-संकीर्तन 48
9. माहात्म्य 51
10. वस्तु-तत्व के साक्षात्कार के लिए श्रवण, मनन और निदिध्यासन अपेक्षित 54
11. ‘जन्माद्यस्य यतोऽन्वयात्’ की भूमिका 54
12. भगवत्तत्व का अनुसंधान- छान्दोग्य शैली में 55
13. भगवतत्व का अनुसंधान -तैत्तिरीय शैली में 56
14. पैंगलोपनिषत् पुराण और महाभारत की शैली में 56
15. परब्रह्म के निःश्वासभूत वेदों की अपौरुषैयता 57
16. वेदों के प्रतिपाद्य सगुण या निर्गुण 59
17. ईश्वर-सिद्धि 64
18. नास्तिकों के भी उद्धार का उपक्रम 64
19. सर्वात्मभाव 68
20. भगवान् जगत के अभिन्ननिमित्तोपादानकारण 70
द्वितीय-पुष्प
1. ‘जन्माद्यस्य यतः’ 71
2. 'अन्वयत्', 'इतरत:', 'च' 72
3. 'अभिज्ञः' 74
4. ‘स्वराट्’ 74
5. ‘तेने ब्रह्महृदा य आदि कवये मुह्यन्ति यत् सूरयः’ 75
6. ‘तेजोवारिमृदां यथा विनिमय: 76
7. ऋषि-सूत-संवाद 78
8. श्रीशुक-वन्दना 82
9. शुकमनमोहक ‘बर्हापीडं’ श्लोक 85
10. 'बर्हापीडं' 87
11. ‘नटवर- वपुः’ 88
12. ‘कर्णयोः कर्णिकारं’ 90
13. ‘विभ्रद्वासः कनककपिशं’ 91
14. ‘रन्ध्रान्वेणोरधरसुधया पूरयन्’ 92
15. ‘वृन्दारण्यं स्वपदरमणं’ 94
16. अकारणकरुण करुणावरुणालय-‘भगवान्’ 95
तृतीय-पुष्प
1. प्रतिपद्य और प्रतिपादक की परब्रह्मरूपता 99
2. परम धर्म 111
3. मोक्ष पर्यवसायी धर्म, अर्थ और काम 118
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चतुर्थ-पुष्प
1. भगवान व्यास को देवर्षि नारद की प्रेरणा 127
2. गुणगण भगवान् के उपकारक नहीं 139
3. भगवदाराधन की विधि 143
4. ‘तथा परमहंसानां’ के साथ ‘परित्राणाय साधूनां’ की संगति 154
पंचम-पुष्प
1. शुक-समागम 159
2. अप्रमत्त के लिये अति सुगम भगवत्प्राप्ति 174
3. नाम-धाम-प्राणायाम और ध्यान से भगवत्प्राप्ति 175
4. ‘तेषां के योगवित्तमाः’ का समाधान 183
5. ‘न किश्चिदपि चिन्तयेत्’ का तात्त्विक अभिप्राय 188
षष्ठ-पुष्प
1. ब्रह्म-नारद संवाद 190
2. माया संतरण का अमोघ उपाय 191
3. प्रह्लाद चरित 196
4. शरणागति 205
5. शरण्य की शरणागति 208
6. शरण्य का स्वरूप 208
7. शरणागति एक बार या बार-बार? 208/2
8. श्री जी 209
सप्तम-पुष्प
1. राजा बलि के पूर्व जन्म का वृतान्त 216
2. भगवान वामन को आविर्भाव 223
3. राजा बलि की सत्यनिष्ठा 228
4. धर्मनिरपेक्ष या धर्मसापेक्ष? 228
5. धन बड़ा या धनवान ? 230
6. ‘धन नहीं धनवान् बड़ा’ 231
अष्टम-पुष्प
1. वेदान्तवेद्य पूर्णतम पुरुषोत्तम ‘श्रीराम’ 233
2. ‘आदि कर्ता स्वयं प्रभु’ श्रीराम 235
3. लताओं तक को प्रेम प्रदान करने वाले ‘श्रीराम’ 236
4. प्रभुओं के भी प्रभु ‘श्रीराम’ 238
5. धर्म रक्षक ‘श्रीराम’ 239
6. लीला पुरुषोत्तम ‘श्रीकृष्ण’ 239
7. श्रीवृन्दावन, गोपांगनाएँ; श्रीकृष्ण और राधा का तात्विक स्वरूप 240
8. श्रीकृष्णचन्द्र परमानन्दकन्द का अद्भुत प्राकट्य 242
9. सुषमासारसर्वस्त्र ‘श्रोहरि’ 242
10. अनाघ्रात अनपहत-अनुत्पन्न-अनुपहत और अदृष्टाद्भुत पंकज ‘श्रीकृष्ण’ 242
11. सत्यज्ञानानन्तान्दमात्रैकरसमूर्ति ‘श्रीकृष्ण’ 242/2
12. भगवान् के जन्म और कर्म दिव्य हैं, वे स्वयं अप्राकृत हैं 244
13. श्री वृन्दावनधाम 248
14. मृद्भक्षण लीला 250
15. दामोदरलीला 251
16. निराकार से साकार 252
17. भावुक के दु्रत चित्त पर भगवान् की अभिव्यक्ति ‘भक्ति’ 254
18. श्रीकृष्णचन्द्र और श्रीराधाचन्द्र 255
19. आसन और आशयरूप बाह्यप्रपच्च और पंचकोश के तादात्म्य का त्यागकर श्रीकृष्णचन्द्र परमानन्द कन्द के स्वागत में तन्मय द्वारकास्थ पट्टमहिषीगण 257
20. कथा श्रवण से वैराग्य एवं विज्ञानोपलब्धि 258
21. भगवद्गुणानुवाद से भगवद्भक्ति 259
22. अंतिम पृष्ठ 259

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