भागवत सुधा -करपात्री महाराजषष्ठ-पुष्प 3. प्रह्लाद-चरितभगवान की अनेक मंगलमयी लीलायें हैं। अनेक ढंग के भगवान के भक्त हुए और भगवान का अनेक रूपों में आविर्भाव हुआ। भक्तराज प्रह्लाद ने भगवान की आराधना की। भगवान की आराधना में उसकी बड़ी लगन थी। कई लोग कूटनीतिज्ञ होते हैं। वे कहते हैं, ’क्या हर्ज था प्रह्लाद मन-ही-मन भगवान का नाम ले लेता।’ उनका ऐसा कहना कूट नीति है। ऐसा होता तो नृसिंह रूप से भगवान का आविर्भाव न होता। गोस्वामी जी लिखते हैं- काढ़ि कृपान, कृपा, न कहूँ पितु काल कराल विलोकि न भागे। प्रह्लाद की प्रीति को देखकर पाषाण से भगवान का प्रादुर्भाव हो गया। घन पाषाण में द्वणुकादि के भी सन्निविष्ट होने की संभावना नहीं होती। उसी से भगवान् का प्रादुर्भाव हुआ नृसिंह रूप में। हिरण्यकशिपु ने कहा- ‘‘प्रह्लाद! तू सहारे से, किसके बल के घमंड पर मेरी आज्ञा ठुकराता है? मैं कहता हूँ कि हरि-विष्णु आदि कुछ नहीं है, उधर मन मत लगा। मुझे मान।’’ प्रह्लाद ने बड़ा उत्तम उत्तर दिया- ‘वह मेरा ही बल नहीं है, संसार में जितने बलवान हैं सबका बल वही है।’ न केवलं मे भवतश्य राजन् स वै बलं बलिनां चापरेषाम्। (दैत्यराज! ब्रह्मा से लेकर तिनके पर्यन्त सब छोटे-बडे़, चर-अचर जीवों को भगवान ने ही अपने वश में कर रक्खा है। न केवल मेरे और आपके, बल्कि संसार के समस्त बलवानों के बल भी केवल वही हैं। वे ही महापराक्रमी सर्वशक्तिमान प्रभु काल हैं तथा समस्त प्राणियों के इन्द्रियबल, मनोबल, देहबल, धैर्य एवं इन्द्रिय भी वही हैं। वही परमेश्वर अपनी शक्तियोें के द्वारा इस विश्व की रचना, रक्षा और संहार करते हैं। वे ही तीनों गुणों के स्वामी हैं। आप अपना यह आसुर भाव त्याग दीजिये। अपने मन को सबके प्रति समान बनाइये। इस संसार में अपने वश में न रहने वाले कुमार्गगामी मन के अतिरिक्त और कोई शत्रु है ही नहीं। मन में सबके प्रति समता का भाव लाना ही भगवान की सबसे बड़ा पूजा है)। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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