विषय सूचीभागवत सुधा -करपात्री महाराजअष्टम-पुष्प 16. निराकार से साकारयह सब कुछ अप्राकृत्य तत्त्व में प्राकृतवत् प्रतीत है, यह अलौकिकता का भाव है। ‘‘नृणां निःश्रेयसार्थाय व्यक्तिर्भगवती नृप।’’[1] उस अचिन्त्य, अनन्त, अग्राह्य, अलक्षण, अव्यपदेश्य तत्त्व का सगुण-साकार विग्रह रूप में इसीलिये प्राकट्य है कि किसी भी भाव से लोगों की उसमें प्रीति हो और उनका कल्याण हो, सहज भाव रागानुगा प्रीति है। रागतः प्राप्त में विधि नहीं होती, वह तो अत्यन्त अप्राप्त में होती है। कान्ता को अपने कान्त में स्वाभाविक राग होता है। सर्वेश्वर सर्वशक्तिमान प्रभु इसी आशय से सहजभाव से उपास्य बनने के लिये प्राकृत से होते हैं। यद्यपि सर्वोपाधिविनिर्मुक्त ब्रह्म निरतिशय परप्रेमास्पद और परमानन्दरूप है।
उससे अधिक प्रेमास्पदता और परमानन्दरूपता की कल्पना कहीं नहीं हो सकती, यद्यपि जब तक प्रारब्ध का अवशेष है, तब तक ज्ञानी को भी अन्तःकरण से ब्रह्मदर्शन वैसा ही ही समझना चाहिये जैसे नेत्र से सूर्यदर्शन, परन्तु जैसे दूरवीक्षण यन्त्र की सहायता से नेत्र द्वारा सूर्य का अतिदिव्य एवं स्पष्ट रूप दिखायी देता है, वैसे ही दिव्यलीलाशक्ति से परम मनोहर सगुणरूप में प्रकटत्व में अन्तःकरण से और विलक्षण चमत्कार अनुभूत होता है, परन्तु प्रारब्ध क्षय हो जाने पर, सर्वोपाधियों के मिटने पर, साक्षात सूर्य्यरूप आत्मस्वरूप उपलब्ध होता है, वह तो सर्वथा ही अनुपमेय है। जैसे श्रीवृषभानुनन्दिनी दर्पण में अपने मुखचन्द्र की मधुरिमा का अनुभव करती हैं, अस्वच्छ दर्पण आदि की अपेक्षा स्वच्छ आदर्श पर, किंवा श्रीकृष्ण के वक्षःस्थल पर, उन्हें अपने मुखचन्द्र की मधुरिमा अधिक भासित होती है, परन्तु उनके मुखचन्द्र का जो माधुर्य है वह तो उनके अन्तरात्माभूत प्रियतम श्रीकृष्ण को ही विदित हो सकता है, किंचित भी सावधान होने पर रसास्वाद में कमी ही रहती है। अतएव भावुकों का कहना है कि मधुर रूप में ही चक्षु हो तभी रूपमाधुर्य का अनुभव हो सकता है और यदि पुष्प में ही घ्राण हो, तब ठीक गन्ध माधुर्य का अनुभव हो सकता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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