विषय सूचीभागवत सुधा -करपात्री महाराजपंचम-पुष्प5. ‘न किश्चिदपि चिन्तयेत्’ का तात्त्विक अभिप्राय-ध्यानायनं प्रहसितं बहुलाधरोष्ठ- (अत्यन्त प्रेमार्द्रभाव से अपने हृदय में विराजमान श्री हरि के खिलखिलाकर हँसने का ध्यान करे, जो वस्तुंतः ध्यान के ही योग्य है। जिसमें ऊपर और नीचे के दोनों होठों की अत्यधिक अरुण कान्ति के कारण उनके कुन्द कली के समान शुभ्र छोटे-छोटे दाँतों पर लालिमा-सी प्रतीत होने लगी है। इस प्रकार ध्यान में तन्मय होकर किसी अन्य पदार्थ को देखने की इच्छा न करे। इस प्रकार के ध्यानाभ्यासी साधक का श्री हरि में प्रेम हो जाता है, उसका हृदय भक्ति से द्रवित होने लगता है, उत्कण्ठाजनित पे्रमाश्रुओं की धारा में वह बार-बार अपने शरीर को नहलाता है और फिर मछली पकड़ने के काँटै के समान श्रीहरि को अपनी ओर आकर्षित करने के साधन रूप अपने चित्त को भी धीरे-धीरे ध्येय वस्तु से हटा लेता है। जैसे तेल आदि के चुक जाने पर दीपशिखा अपने कारण रूप तेजस तत्त्व में लीन हो जाती है,वैसे ही आश्रय, विषय और राग से रहित होकर मन शान्त- ब्रह्माकार हो जाता है। इस अवस्था के प्राप्त होने पर जीव गुणप्रवाह रूप देहादि उपाधि के निवृत्त हो जाने के कारण ध्याता, ध्येय आदि विभाग से रहित एक अखण्ड परमात्मा को ही सर्वत्र अनुगत देखता है। योगाभ्यास से प्राप्त हुए चित्त का इस अवद्यिा रहित निवृत्ति से अपनी सुख-दुःख रहित ब्रह्मरूप महिमा में स्थिर होकर परमात्मतत्त्व का साक्षात्कार कर लेने पर वह योगी जिन सुख-दुःख के भोक्तृत्व को पहले अज्ञानवश अपने स्वरूप में देखता था उसे अब अविद्याकृत अहंकार में ही देखता है।) |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ भागवत 3.28.33-36
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