विषय सूचीभागवत सुधा -करपात्री महाराजअष्टम-पुष्प 17. भावुक के दु्रत चित्त पर भगवान् की अभिव्यक्ति ‘भक्ति’भावुक के दु्रत चित्त पर निखिल रसामृत मूर्ति भगवान् का प्राकट्य ही भक्ति पद का अर्थ है। द्रवीभूत लाक्षा में एक हुए रंग की तरह भक्त के प्रेमार्द्र हृदय में एक हुए भगवान यदि चाहें, तो भी पृथक नहीं हो सकते। नित्य-निकुंज में वृषभानुनन्दिनीस्वरूपमहाभावपरिवेष्टित श्रृंगाररस स्वरूप श्रीकृष्णचन्द्र परपमानन्दकन्द नित्य ही रसाकान्त रहते हैं। यहाँ प्रिया-प्रियतम का सार्वदिक सर्वांगीण सम्प्रयोग का भात भी सर्वदा ही रहता है। जैसे कि सन्निपात ज्वर से आक्रान्त पुरुष जिस समय शीतल मधुर जल का पान करता है ठीक उसी समय में पूर्ण तीव्र पिपासा का भी अनुभव करता है, वैसे ही नित्य निकुंजधाम में जिस समय प्रिया-प्रियतम पारस्परिकपरिरम्भणजन्य रस में निमग्न होते हैं, उसी काल में तीव्रातितीव्र वियोग-जन्य ताप का भी अनुभव करते हैं। अनन्त का परस्पर मिलन अनन्तकाल तक बना रहता है, पर पिपासा बढ़ती जाती है, उत्तरोत्तर अनन्त माधुर्यामृत की अनुभूति होती रहती है। अद्भुत प्रेमोन्माद में श्रीकृष्ण और वृषभानुनन्दिनी को सम्प्रयोग में भी विप्रयोग और विप्रयोग में भी सम्प्रयोग की स्फूर्ति होती है। सदा मिले रहने पर भी मालूम होता है कि कल्पकल्पान्तर से मिले ही नहीं- ‘‘तुव मुख चन्द्र चकोरी मेरे नयना। प्रियतम के गोद में विराजमान होने पर भी अचानक हा मोहन! इस प्रकार मधुर प्रलाप करती हुई एवं लाला जी के अनुराग में मद से विह्वल मनोहर अंगवाली कोई अनिवर्यचनीय नित्य-किशोरी निकुंज भवन में सबसे ऊपर विराज मान है।।) अहेरिव गतिः प्रेम्णः स्वभावकुटिला भवेत्। (प्राचीन पण्डितों का कहना है कि सर्प की भाँति प्रेम की गति स्वभावतः कुटिल होती है, अतः हेतु किम्वा हेतु के अभाव में भी नायक-नायिका के मान का उदय होता है। इस मान में अवहित्था आदि व्यभिचारीभाव सफल होते हैं।) |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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