भागवत सुधा -करपात्री महाराज पृ. 123

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भागवत सुधा -करपात्री महाराज

भगवत्कृपा से भगवत्प्रेप्सा- भगवत्प्राप्ति की उत्कट उत्कण्ठा उदित होती है। विषय तृष्णा तो पिशाची है, पर भगवत्तृष्णा दिव्य है। भगवान के मधुर मनोहर मंगलमय मुखचन्द्र के दर्शन की इच्छा, भगवान के पादारविंद की नखमणिचंद्रिका के दर्शन की ईच्छ, दामिनीद्यतिविनिंदक पीताम्बर के दर्शन की उत्कण्ठा दिव्य है। यह जन्म जन्मान्तरों के पुण्य-पुंजों से मिलती है। यह पुण्य-पुंज का फल है।

कृष्णभावरसभाविता मतिः क्रीयतां यदि कुतोअपि लभ्यते।
तत्र लौल्यमपि मूल्यमेकलं कोटिजन्मसुकृतैनु लभ्यते।।

अर्थात् ‘कृष्णभाव रस भाविता मति’ कहीं से खरीदने से मिलती हो तो खरीदो। बोले- मिलेगी कैसे? उसके लिए व्याकुलता होना, यही उसकी कीमत है। जैसे बुभक्षु भोजन के लिए और जैसे पिपासु पानी के लिए व्याकुल हो उठता है, ऐसे ही भक्त प्राणनाथ-प्रियतम मे मुखचन्द्र का दर्शन करने के लिये व्याकुल रहता है। यह लौल्य कैसे मिलता है? कोटि-कोटि जन्मों के सुकृत से ही मिलता है, बिना उसके नहीं। जन्म-जन्मान्तर का कल्प-कल्पान्तर का पुण्य-पुन्य समुदित हो तब ऐसी उत्कण्ठा होती है। भगवत्पादपंकजसमर्पण-बुद्धि से अनुष्ठित कर्मों के द्वारा ही पुण्य-पुंज हो पाता है। इस तरह ऐसी उत्कृष्ट विवदिषा-तत्त्व जिज्ञासा उत्पन्न हो, यही कर्मो का फल है।
4. ‘तत्त्व’ की तात्त्विक परिभाषा-

वदन्ति तत्तत्त्वविदस्तत्त्वं यज्ज्ञानमद्वयम्।
ब्रह्मेति परमात्मेति भगवानिति शब्द्यते।।[1]

तत्त्ववेत्ता लोग अद्वितीय ज्ञान को ही तत्त्व कहते हैं जो कि ब्रह्म, परमात्मा और भगवान आदि नामों से कहा जाता है।)
तत्त्ववित्ता लोग उसको तत्त्व कहते हैं जो अद्वैत ज्ञान है। सजातीय, विजातीय, स्वगतभेदशून्य जो अखण्ड अनन्त बोध वही तत्त्व है। ‘अद्वयं यज्ज्ञानं तदेव तत्त्वम्’[2], ‘सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म’[3], ‘विज्ञानमानन्दं ब्रह्म’[4], ’अनन्तरोअबाह्यः कृत्स्नः प्रज्ञानघन एव’[5]

हमारे श्रीमज्जीव गोस्वामी ने तत्त्व सन्दर्भ में बड़ा गम्भीर विचार किया है, ऊँचा विचार किया है। उन्होंने कहा- ‘अद्वयं ज्ञानं’ यह तो ठीक है। परन्तु उसकी विशेषता नामों के द्वारा व्यक्त हो। ‘ब्रह्मेति परमात्मेति भगवानिति शब्द्यते’ उसे कोई ब्रह्म कहते हैं, कोई परमात्मा कहते हैं, कोई भगवान कहते हैं।’ वे कहते हैं- ‘‘ब्रह्म जो है, वह अत्यन्त बहिरंग है। बहिरंगों को बहिरंग ब्रह्म का ही दर्शन होता है। ब्रह्म से अन्तरंग है कतिचित् गुण-गण-विशिष्ट परमात्मा। जो अन्तरंग होते हैं, वे परमात्मा को समझ जाते हैं। परमात्मा से भी अन्तरंग है अचिन्त्यअनन्त्तकल्याणगुणगणनलय अनन्तकोटिक-दर्पदर्पदमनपटीयान् पूर्णतम पुरुषोत्तम श्रीकृष्ण भगवान। जो भगवान के अत्यन्त अन्तरंग होते हैं, उन्हीं को भगवान का अनुभव हो पाता है। इसी तरह उसी तत्त्व को भगवान, उसी को परमात्मा और उसी को ब्रह्म कहते हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. भागवत (1/2/11)
  2. भागवत 1/2/11
  3. तैत्ति0 2/1/1
  4. बृहदा0 3/9/28
  5. बृहदा0 4/5/13

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प्रथम-पुष्प
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5. देव दुर्लभ श्रीमद्भागवत: 39
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9. शुकमनमोहक ‘बर्हापीडं’ श्लोक 85
10. 'बर्हापीडं' 87
11. ‘नटवर- वपुः’ 88
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1. शुक-समागम 159
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3. नाम-धाम-प्राणायाम और ध्यान से भगवत्प्राप्ति 175
4. ‘तेषां के योगवित्तमाः’ का समाधान 183
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1. ब्रह्म-नारद संवाद 190
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3. प्रह्लाद चरित 196
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3. राजा बलि की सत्यनिष्ठा 228
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5. धन बड़ा या धनवान ? 230
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1. वेदान्तवेद्य पूर्णतम पुरुषोत्तम ‘श्रीराम’ 233
2. ‘आदि कर्ता स्वयं प्रभु’ श्रीराम 235
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4. प्रभुओं के भी प्रभु ‘श्रीराम’ 238
5. धर्म रक्षक ‘श्रीराम’ 239
6. लीला पुरुषोत्तम ‘श्रीकृष्ण’ 239
7. श्रीवृन्दावन, गोपांगनाएँ; श्रीकृष्ण और राधा का तात्विक स्वरूप 240
8. श्रीकृष्णचन्द्र परमानन्दकन्द का अद्भुत प्राकट्य 242
9. सुषमासारसर्वस्त्र ‘श्रोहरि’ 242
10. अनाघ्रात अनपहत-अनुत्पन्न-अनुपहत और अदृष्टाद्भुत पंकज ‘श्रीकृष्ण’ 242
11. सत्यज्ञानानन्तान्दमात्रैकरसमूर्ति ‘श्रीकृष्ण’ 242/2
12. भगवान् के जन्म और कर्म दिव्य हैं, वे स्वयं अप्राकृत हैं 244
13. श्री वृन्दावनधाम 248
14. मृद्भक्षण लीला 250
15. दामोदरलीला 251
16. निराकार से साकार 252
17. भावुक के दु्रत चित्त पर भगवान् की अभिव्यक्ति ‘भक्ति’ 254
18. श्रीकृष्णचन्द्र और श्रीराधाचन्द्र 255
19. आसन और आशयरूप बाह्यप्रपच्च और पंचकोश के तादात्म्य का त्यागकर श्रीकृष्णचन्द्र परमानन्द कन्द के स्वागत में तन्मय द्वारकास्थ पट्टमहिषीगण 257
20. कथा श्रवण से वैराग्य एवं विज्ञानोपलब्धि 258
21. भगवद्गुणानुवाद से भगवद्भक्ति 259
22. अंतिम पृष्ठ 259

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