भागवत सुधा -करपात्री महाराजभगवत्कृपा से भगवत्प्रेप्सा- भगवत्प्राप्ति की उत्कट उत्कण्ठा उदित होती है। विषय तृष्णा तो पिशाची है, पर भगवत्तृष्णा दिव्य है। भगवान के मधुर मनोहर मंगलमय मुखचन्द्र के दर्शन की इच्छा, भगवान के पादारविंद की नखमणिचंद्रिका के दर्शन की ईच्छ, दामिनीद्यतिविनिंदक पीताम्बर के दर्शन की उत्कण्ठा दिव्य है। यह जन्म जन्मान्तरों के पुण्य-पुंजों से मिलती है। यह पुण्य-पुंज का फल है। कृष्णभावरसभाविता मतिः क्रीयतां यदि कुतोअपि लभ्यते। अर्थात् ‘कृष्णभाव रस भाविता मति’ कहीं से खरीदने से मिलती हो तो खरीदो। बोले- मिलेगी कैसे? उसके लिए व्याकुलता होना, यही उसकी कीमत है। जैसे बुभक्षु भोजन के लिए और जैसे पिपासु पानी के लिए व्याकुल हो उठता है, ऐसे ही भक्त प्राणनाथ-प्रियतम मे मुखचन्द्र का दर्शन करने के लिये व्याकुल रहता है। यह लौल्य कैसे मिलता है? कोटि-कोटि जन्मों के सुकृत से ही मिलता है, बिना उसके नहीं। जन्म-जन्मान्तर का कल्प-कल्पान्तर का पुण्य-पुन्य समुदित हो तब ऐसी उत्कण्ठा होती है। भगवत्पादपंकजसमर्पण-बुद्धि से अनुष्ठित कर्मों के द्वारा ही पुण्य-पुंज हो पाता है। इस तरह ऐसी उत्कृष्ट विवदिषा-तत्त्व जिज्ञासा उत्पन्न हो, यही कर्मो का फल है। वदन्ति तत्तत्त्वविदस्तत्त्वं यज्ज्ञानमद्वयम्। तत्त्ववेत्ता लोग अद्वितीय ज्ञान को ही तत्त्व कहते हैं जो कि ब्रह्म, परमात्मा और भगवान आदि नामों से कहा जाता है।) हमारे श्रीमज्जीव गोस्वामी ने तत्त्व सन्दर्भ में बड़ा गम्भीर विचार किया है, ऊँचा विचार किया है। उन्होंने कहा- ‘अद्वयं ज्ञानं’ यह तो ठीक है। परन्तु उसकी विशेषता नामों के द्वारा व्यक्त हो। ‘ब्रह्मेति परमात्मेति भगवानिति शब्द्यते’ उसे कोई ब्रह्म कहते हैं, कोई परमात्मा कहते हैं, कोई भगवान कहते हैं।’ वे कहते हैं- ‘‘ब्रह्म जो है, वह अत्यन्त बहिरंग है। बहिरंगों को बहिरंग ब्रह्म का ही दर्शन होता है। ब्रह्म से अन्तरंग है कतिचित् गुण-गण-विशिष्ट परमात्मा। जो अन्तरंग होते हैं, वे परमात्मा को समझ जाते हैं। परमात्मा से भी अन्तरंग है अचिन्त्यअनन्त्तकल्याणगुणगणनलय अनन्तकोटिक-दर्पदर्पदमनपटीयान् पूर्णतम पुरुषोत्तम श्रीकृष्ण भगवान। जो भगवान के अत्यन्त अन्तरंग होते हैं, उन्हीं को भगवान का अनुभव हो पाता है। इसी तरह उसी तत्त्व को भगवान, उसी को परमात्मा और उसी को ब्रह्म कहते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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