विषय सूचीभागवत सुधा -करपात्री महाराजपंचम-पुष्प4. तेषां के योगवित्तमाः’ का समाधानगीता में शास्त्रार्थ है- जो आपके सगुण-साकार सच्चिदानन्दघन परब्रह्म स्वरूप में सतत-सदा-सर्वदा मन लगाकर आपकी निरन्तर उपासना करते हैं और जो अव्यक्त, निराकार? निर्विकार निर्गुण ब्रह्म की उपासना करते हैं- ध्यान करते हैं- वे दोनों ही योगवित हैं; परन्तु उनमें अतिशयेन योगवित कौन हैं? अर्जुन उवाच (अर्जुन बोला- जो भक्त निरन्तर भगवदर्थ कर्म में लगे हुए अनन्य भाव से आपके शरण होकर सगुण स्वरूप की उपासना करते हैं तथा जो सर्वैषणाओं एवं सर्व कर्मों का भी त्याग करके अक्षर-अव्यक्त सर्वोपाधिरहित ब्रह्म का चिन्तन करते हैं- इन दोनों में कौन श्रेष्ठ हैं?) श्रीभगवानुवाच (श्रीभगवान बोले- जो नित्य निरन्तर उत्तम श्रद्धा से युक्त भक्त सर्वज्ञ परमेश्वर मुझमें मन को समाधिस्थ करके उपासना करते हैं, वे श्रेष्ठ हैं-यह मेरा मत है।) ये त्वक्षरमनिर्देश्यमव्यक्तं पर्युपासते। जो इन्द्रियों के समुदाय को विषयों से निरुद्ध करके एवं सब काल इष्टानिष्ट-प्राप्ति में समभाव रहकर सब भूतों के हित में तत्पर हो, अनिर्देश्य, अव्यक्त आकाश के समान सर्व व्यापक, अचिन्त्य तथा कूटस्थ, अचल और ध्रुव-नित्य अक्षर ब्रह्म की उपासना करते हैं, वे मुझको ही प्राप्त करते हैं। वे प्राप्त ही नहीं करते, किन्तु वे तो ‘ज्ञानी त्वात्मैव मे मतम्’ के अनुसार मेरे आत्मा ही हैं। यह मेरा मत है। भगवान का उत्तर है- मुझ सगुण-साकार सच्चिदानन्द घन परब्रह्म में मन लगाकर नित्य युक्त होकर उपासना करते हैं, वे अतिशयेन मुक्त हैं। जिज्ञासा है- महाराज! निर्गुण-निराकार परब्रह्म की उपासना करने वाले का क्या हाल है? उत्तर- अक्षर, अखण्ड, अव्यय, परात्पर- परब्रह्म का ध्यान करते हैं, वे तो मुझको प्राप्त ही हैं। शंका जितनी करनी हो भरपेट कर सकते हो, सबका समाधान है। इस सम्बन्ध में जितनी शंकाए हैं, उन सबका समाधान किये देते हैं। गंगोत्तरी से गंगा बहती हुई हरिद्वार, प्रयाग होती हुई पटना तक वह चली। सावन-भादों की गंगा है। अब उसे लौटाओ। प्रयाग लाओ, प्रयाग से लौटाओ हरिद्वार तक पहुँचाओ, हरिद्वार से लौटाओ गंगोत्तरी पहुँचाओ और गंगौती में छू-मन्त्र करके लुप्त कर दो। गंगा-प्रवाह के समान ही अहनिश अन्तःकरण की वृत्तियाँ चल रही हैं। प्रमाणवृत्ति की अखण्ड धारा, विपर्यय वृत्ति की अखण्ड धारा, निद्रावृत्ति की अखण्डधारा और स्मृतिवृत्ति[4] की अखण्डधारा चल रही है। इनका इतना प्रबल प्रवाह है कि बहते-बहते अपार संसार-समुद्र हो गया है। प्रमाण की भी अनेक धाराएँ हैं- प्रत्यक्ष प्रमाण, अनुमान[5] प्रमाण, आगम-प्रमाण, उपमान[6]-प्रमाण, अर्थापत्ति-प्रमाण, अनुपलब्धि-प्रमाण, संभव और ऐतिह्य प्रमाण और चेष्टा प्रमाण। इस तरह प्रमाणवृत्ति ढेर की ढेर है, स्मृति वृत्ति ढेर की ढेर है, विकल्प की परम्परा का कोई अन्त नहीं, निद्रा का कितना बड़ा जगड्वाल है? इन सारी वृत्तियों को लौटाओ, खतम करो- ले जाकर ब्रह्म में छू-मन्त्र कर दो। यह कितना कठिन है? इसलिये- क्लेशोअधिकतरस्तेषामव्यक्तासक्तचेतसाम्। (यद्यपि मेरे लिये ही कर्म करने वाले साधकों को भी बहुत क्लेश होता है, तथापि अव्यक्त में आसक्त, अक्षर ब्रह्म का चिन्तन करने वाले साधकों को तो अधिकतर क्लेश होता है, क्योंकि देहाभिमानियों को अक्षरात्मिका अव्यक्त गति बड़े दुःख से प्राप्त होती है।) |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ भगवद्गीता 12.1
- ↑ भगवद्गीता 12.2
- ↑ भगवद्गीता 12.3,4
- ↑
वृत्तयः पश्चतय्यः क्लिष्टाअक्लिष्टाः।
प्रमाणविपर्य्यविकल्पनिद्रास्मृतयः।।
प्रत्यक्षानुमानाअअगमाः प्रमाणानि।
विपर्य्ययो मिथ्याज्ञानमतद्रू पप्र तिष्ठम्।।
शब्दज्ञानाअनुपाती वस्तुशून्यो विकल्पः।
अभावप्रत्ययाअअलम्बनवृत्तिर्निद्रा।।
अनुभूतविषयाअसम्प्रमोषः स्मृति।।(योग दर्शन 1.5.11) - ↑ अनुमिति
- ↑ उपमिति
- ↑ भगवद्गीता 12.5
- ↑ युक्ति
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