भागवत सुधा -करपात्री महाराज
आज तो नया पैसा दक्षिणा में देते हैं, शंकराचार्य महाराज कहते हैं-
अथ बहुमणिमिश्रैर्मौक्तिकैस्त्वां विकीर्य ।
त्रिभुवन कमनीयैः पूजायित्वा च वस्त्रैः ।
मिलितविविधमुक्तां दिव्यमाणिक्ययुक्तां
जननि कलवृष्टिं दक्षिणां तेअर्पयामि ।।[1]
जननि! आपको बहुत से हीरे-रत्न-मोती आदि विखेर कर, न्यौछावर कर, अनन्त-अनन्त रत्न आपके ऊपर बिखेर कर, त्रिभुवन कमनीय जो दिव्य वस्त्र है, वह आपको अर्पण करें। दक्षिणा में सुवर्ण वृष्टि करें। वह भी विविध मुक्ताओं से युक्त हो। मोतियों की वर्षा और ख़ाली मोती नहीं, दिव्य माणिक्यों से युक्त मोती। विविध मुक्ताओं से युक्त जो अखण्ड कनक वृष्टि वह आपको दक्षिणा में समर्पित करूँ।।)
सचमुच भावना के आधार पर ऐसी उपासना करो तो कितनी बड़ी बात बने? हाँ तो द्वापर में भगवान की इस प्रकार पूजा करते-करते भी मन एकाग्र हो जाता है। उसी से भगवस्रूप का प्राकट्य हो जाता है।
8. भगवन्नाम-संकीर्तन:-
यह कलियुग है। इनमें और भी तमोगुण बढ़ गया है। तम का अधिक प्रकोप हो गया है। सत्त्व की टिमटिमाहट भी खतम हो रही है। इतना तमोगुण बढ़ गया है। ऐसी परिस्थिति में अब क्या हो? जोर से चिल्लाओं भगवान् का नाम, जोर से चिल्लाओं। इसीलिए श्रीचैतन्य महाप्रभु आदि का प्रादुर्भाव हुआ। उन्होंने भगवनम-संकीर्तन का अखण्ड दान करना शुरू किया। निरन्तर भगवन्नाम के दान से ‘जो कीडे़-मकोड़े भगवन्नाम नहीं ले सकते’ उनका भी कल्याण हो गया। आज भी ऐसा ही करो। भगव-नामोच्चारण करो। जो कीड़े-मकोडे़ भगवन्नाम नहीं ले सकते, उनका भी कल्याण हो जायगा। बस भगवन्नाम के प्रभाव से ही अन्तःकरण का तम हटेगा, रज घटेगा, मन भी एकाग्र होगा। ऐसा होने पर क्षण भर के लिए अन्तःकरण में परात्पर परब्रह्म की अनुभूत भी हो जायगी। कुछ भी असम्भव नहीं, सब संभव है। इसी दृष्टि से भगवन्नाम संकीर्तन कर्तव्य है।
लेकिन इसका अर्थ यह नहीं कि यज्ञ मत करो। धारणा-ध्यान, पूजादि बिल्कुल करो ही मत। तुलसीदास जी कहते हैं-
कलि केवल मल मूल मलीना। पाप पयोनिधि जन मन मीना ।
नाम कल्पतरु काल कराला। सुमिरत समन सकल जग जाला ।।
राम नाम कलि अभिमत दाता। हित परलोक लोक पितु माता ।।
नहिं कलि करम न भगति विवेकू। राम नाम अवलम्ब न एकू ।।
कालनेमि कलि कपट निधानू। नाम सुमति समरथ भगवान् ।। (रामचरित मानस 1/27)
(परन्तु वे जब ऐसा कहते हैंं) तब उनका मतलब यह नहीं कि ब्राह्मण के लड़के का यज्ञोपवीत संस्कार मत कराओ, उसको गायत्री मंत्र का उपदेश मत करो, या उसको वेद मत पढ़ाओं। यह हरगिज उनका मत नहीं। गोस्वामी जी पक्के मर्यादावादी, वर्णाश्रम धर्म के समर्थक हैं।
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