भागवत सुधा -करपात्री महाराज पृ. 257

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भागवत सुधा -करपात्री महाराज

अष्टम-पुष्प

19. आसन और आशयरूप बाह्यप्रपच्च और पंचकोश के तादात्म्य का त्यागकर श्रीकृष्णचन्द्र परमानन्द कन्द के स्वागत में तन्मय द्वारकास्थ पट्टमहिषीगण

श्रीकृष्णचन्द्र परमानन्दकन्द भगवान हस्तिनापुर से द्वारिका पधारें। प्रोषितभर्तृ का द्वारकास्थ पट्टमहिषीगण प्रियतम सम्मिलन की उत्सुकता से देशकृत एवं कालकृत व्यवधान हटाने के लिये आसन और आशय से उठा- ‘‘उत्तस्थुरारात्सहसाअअसनाशयात्’।[1] यहाँ आशय शब्द से अन्तःकरण विवक्षित है जो कि समस्त काम वासनाओं का आलम है- ‘आशेरते कर्मवासना यत्रासावाशयः’, आशय भी अन्नमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय और आनन्दमय रूप पंचकोशों का उपलक्षण है। इस तरह वे अन्नमयादि पंचकोश कंचुक से तादात्म्याभिमान छोड़ करके और आसन से भी उठ करके सर्वतोभावेन निरावरण होकर प्रियतम के सम्मिलन के लिये उत्सुक हुई। पंचकोशातीत ‘त्वं’ पद लक्ष्यार्थ’ ही जीव की निजी शुद्ध स्वरूप है। ‘तत्पद लक्ष्यार्थ’ व्यापक महाचेतन ही उसका अंशी है। अंश और अंशीका मुख्य सम्बन्ध होता है। जैसे पृथ्वी का अंश लोष्ठ, पाषाणादि पृथ्वी की ओर आकर्षित होता है, वैसे ही परमात्मा के अंश जीवों का परमात्मा की ओर आकर्षण होता है। जिनके मत में चन्द्र का शतांश बृहस्पति नक्षत्र है, दोनों मं केवल औपचारिक अंशांशिभाव है, उनका आकर्षण भले ही न हो पर यहाँ तो प्रेयसीगण सर्वावरण से विमुक्त होकर श्रीकृष्ण के सम्मिलन के लिए उत्सुक हुआ। बड़ी समस्या संसार में है। जहाँ प्रियतम का विश्लेष है, वहीं उत्कट उत्कण्ठा है। लेकिन जब उत्कट उत्कण्ठा तब प्रियतम नहीं। जब विरह है तब उत्कट उत्कण्ठा है, लेकिन प्रियतम नहीं और संयोग है तब उत्कट उत्कण्ठा नहीं, क्योंकि उत्कण्ठा तो विरह में ही होती है। विरह से संतप्त विरहिणी को देखकर मालूम पड़ता है कि इसे कभी प्रियतम का सम्मिलन हुआ ही नहीं? भक्तों ने कहा-

संगम विरह विकल्पे वरमिह विरहो न संगमस्तस्याः।
संगे सैव तथैका त्रिभुवनमपि तन्मयं विरहे।।[2]

भगवान वरदान देने लग जाँय, ‘संगम या विरह माँग लो’ तो विरह ही माँगो, क्योंकि संगम में तो प्रियतम अकेले ही होते हैं, पर विरह में तो सारा संसार ही प्रियतममय होता है।

प्रासादे सा दिशि च सा पृष्ठतः सा पुरः सा
पर्यंके सा पथि पथि च सा तद्वियोगातुरस्य।
हंहो चेतः प्रकृतिरपरा नास्ति मे कापि सा सा
सा सा सा जगति सकले कोअयमद्वैतवादः।।[3]

विप्रलम्भ श्रृंगार में द्रवावस्थाप्रविष्ट आलम्बनमय ही समस्त वस्तुओं का मान होता है। यद्यपि दुनियाँ के प्रेम में ऐसा है तथापि यहाँ के प्रेम में जिस समय प्रियतम का पूर्ण सम्मिलन है, उसी समय उत्कट अत्कण्ठा है। पूर्ण सम्मिलन का अर्थ है अन्तःकरण का सम्मिलन, अन्तरात्मा का अन्तरात्मा से, प्राण का प्राण से सम्मिलन, अंग से अंग का सम्मिलन, रोम-रोम से रोम-रोम का सम्मिलन। इस तरह तरंग से जल का संगम ही बड़ा अद्भुत, फिर क्या कहना आनन्दसिन्धु और उसके सार माधुर्यसिन्धुसर्वस्व का कितना अद्भुत घनिष्ठ सम्बन्ध है जिसका मुकाबला करने वाला दुनियाँ में दूसरा कोई सम्बन्ध नहीं है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. भागवत 1.11.31
  2. साहित्यदर्पणः 10‘ढ’
  3. अमरुशतक

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क्रमांक पाठ का नाम पृष्ठ संख्या
प्रथम-पुष्प
1. निगमकल्परोर्गलितं फलम् 37
2. पुरुषार्थचतुष्टयप्रदायक निगमकल्पतरु 38
3. रसमालयम् 38
4. आत्माराम का भी भगवद्गुणगणार्णव में अवगाहन 38
5. देव दुर्लभ श्रीमद्भागवत: 39
6. युगधर्मों का निरूपण 42
7. विद्या-अविद्या का समुच्चय 44
8. भगवन्नाम-संकीर्तन 48
9. माहात्म्य 51
10. वस्तु-तत्व के साक्षात्कार के लिए श्रवण, मनन और निदिध्यासन अपेक्षित 54
11. ‘जन्माद्यस्य यतोऽन्वयात्’ की भूमिका 54
12. भगवत्तत्व का अनुसंधान- छान्दोग्य शैली में 55
13. भगवतत्व का अनुसंधान -तैत्तिरीय शैली में 56
14. पैंगलोपनिषत् पुराण और महाभारत की शैली में 56
15. परब्रह्म के निःश्वासभूत वेदों की अपौरुषैयता 57
16. वेदों के प्रतिपाद्य सगुण या निर्गुण 59
17. ईश्वर-सिद्धि 64
18. नास्तिकों के भी उद्धार का उपक्रम 64
19. सर्वात्मभाव 68
20. भगवान् जगत के अभिन्ननिमित्तोपादानकारण 70
द्वितीय-पुष्प
1. ‘जन्माद्यस्य यतः’ 71
2. 'अन्वयत्', 'इतरत:', 'च' 72
3. 'अभिज्ञः' 74
4. ‘स्वराट्’ 74
5. ‘तेने ब्रह्महृदा य आदि कवये मुह्यन्ति यत् सूरयः’ 75
6. ‘तेजोवारिमृदां यथा विनिमय: 76
7. ऋषि-सूत-संवाद 78
8. श्रीशुक-वन्दना 82
9. शुकमनमोहक ‘बर्हापीडं’ श्लोक 85
10. 'बर्हापीडं' 87
11. ‘नटवर- वपुः’ 88
12. ‘कर्णयोः कर्णिकारं’ 90
13. ‘विभ्रद्वासः कनककपिशं’ 91
14. ‘रन्ध्रान्वेणोरधरसुधया पूरयन्’ 92
15. ‘वृन्दारण्यं स्वपदरमणं’ 94
16. अकारणकरुण करुणावरुणालय-‘भगवान्’ 95
तृतीय-पुष्प
1. प्रतिपद्य और प्रतिपादक की परब्रह्मरूपता 99
2. परम धर्म 111
3. मोक्ष पर्यवसायी धर्म, अर्थ और काम 118
4. ‘तत्त्व’ की तात्त्विक परिभाषा 123
चतुर्थ-पुष्प
1. भगवान व्यास को देवर्षि नारद की प्रेरणा 127
2. गुणगण भगवान् के उपकारक नहीं 139
3. भगवदाराधन की विधि 143
4. ‘तथा परमहंसानां’ के साथ ‘परित्राणाय साधूनां’ की संगति 154
पंचम-पुष्प
1. शुक-समागम 159
2. अप्रमत्त के लिये अति सुगम भगवत्प्राप्ति 174
3. नाम-धाम-प्राणायाम और ध्यान से भगवत्प्राप्ति 175
4. ‘तेषां के योगवित्तमाः’ का समाधान 183
5. ‘न किश्चिदपि चिन्तयेत्’ का तात्त्विक अभिप्राय 188
षष्ठ-पुष्प
1. ब्रह्म-नारद संवाद 190
2. माया संतरण का अमोघ उपाय 191
3. प्रह्लाद चरित 196
4. शरणागति 205
5. शरण्य की शरणागति 208
6. शरण्य का स्वरूप 208
7. शरणागति एक बार या बार-बार? 208/2
8. श्री जी 209
सप्तम-पुष्प
1. राजा बलि के पूर्व जन्म का वृतान्त 216
2. भगवान वामन को आविर्भाव 223
3. राजा बलि की सत्यनिष्ठा 228
4. धर्मनिरपेक्ष या धर्मसापेक्ष? 228
5. धन बड़ा या धनवान ? 230
6. ‘धन नहीं धनवान् बड़ा’ 231
अष्टम-पुष्प
1. वेदान्तवेद्य पूर्णतम पुरुषोत्तम ‘श्रीराम’ 233
2. ‘आदि कर्ता स्वयं प्रभु’ श्रीराम 235
3. लताओं तक को प्रेम प्रदान करने वाले ‘श्रीराम’ 236
4. प्रभुओं के भी प्रभु ‘श्रीराम’ 238
5. धर्म रक्षक ‘श्रीराम’ 239
6. लीला पुरुषोत्तम ‘श्रीकृष्ण’ 239
7. श्रीवृन्दावन, गोपांगनाएँ; श्रीकृष्ण और राधा का तात्विक स्वरूप 240
8. श्रीकृष्णचन्द्र परमानन्दकन्द का अद्भुत प्राकट्य 242
9. सुषमासारसर्वस्त्र ‘श्रोहरि’ 242
10. अनाघ्रात अनपहत-अनुत्पन्न-अनुपहत और अदृष्टाद्भुत पंकज ‘श्रीकृष्ण’ 242
11. सत्यज्ञानानन्तान्दमात्रैकरसमूर्ति ‘श्रीकृष्ण’ 242/2
12. भगवान् के जन्म और कर्म दिव्य हैं, वे स्वयं अप्राकृत हैं 244
13. श्री वृन्दावनधाम 248
14. मृद्भक्षण लीला 250
15. दामोदरलीला 251
16. निराकार से साकार 252
17. भावुक के दु्रत चित्त पर भगवान् की अभिव्यक्ति ‘भक्ति’ 254
18. श्रीकृष्णचन्द्र और श्रीराधाचन्द्र 255
19. आसन और आशयरूप बाह्यप्रपच्च और पंचकोश के तादात्म्य का त्यागकर श्रीकृष्णचन्द्र परमानन्द कन्द के स्वागत में तन्मय द्वारकास्थ पट्टमहिषीगण 257
20. कथा श्रवण से वैराग्य एवं विज्ञानोपलब्धि 258
21. भगवद्गुणानुवाद से भगवद्भक्ति 259
22. अंतिम पृष्ठ 259

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