विषय सूचीभागवत सुधा -करपात्री महाराजअष्टम-पुष्प 19. आसन और आशयरूप बाह्यप्रपच्च और पंचकोश के तादात्म्य का त्यागकर श्रीकृष्णचन्द्र परमानन्द कन्द के स्वागत में तन्मय द्वारकास्थ पट्टमहिषीगणश्रीकृष्णचन्द्र परमानन्दकन्द भगवान हस्तिनापुर से द्वारिका पधारें। प्रोषितभर्तृ का द्वारकास्थ पट्टमहिषीगण प्रियतम सम्मिलन की उत्सुकता से देशकृत एवं कालकृत व्यवधान हटाने के लिये आसन और आशय से उठा- ‘‘उत्तस्थुरारात्सहसाअअसनाशयात्’।[1] यहाँ आशय शब्द से अन्तःकरण विवक्षित है जो कि समस्त काम वासनाओं का आलम है- ‘आशेरते कर्मवासना यत्रासावाशयः’, आशय भी अन्नमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय और आनन्दमय रूप पंचकोशों का उपलक्षण है। इस तरह वे अन्नमयादि पंचकोश कंचुक से तादात्म्याभिमान छोड़ करके और आसन से भी उठ करके सर्वतोभावेन निरावरण होकर प्रियतम के सम्मिलन के लिये उत्सुक हुई। पंचकोशातीत ‘त्वं’ पद लक्ष्यार्थ’ ही जीव की निजी शुद्ध स्वरूप है। ‘तत्पद लक्ष्यार्थ’ व्यापक महाचेतन ही उसका अंशी है। अंश और अंशीका मुख्य सम्बन्ध होता है। जैसे पृथ्वी का अंश लोष्ठ, पाषाणादि पृथ्वी की ओर आकर्षित होता है, वैसे ही परमात्मा के अंश जीवों का परमात्मा की ओर आकर्षण होता है। जिनके मत में चन्द्र का शतांश बृहस्पति नक्षत्र है, दोनों मं केवल औपचारिक अंशांशिभाव है, उनका आकर्षण भले ही न हो पर यहाँ तो प्रेयसीगण सर्वावरण से विमुक्त होकर श्रीकृष्ण के सम्मिलन के लिए उत्सुक हुआ। बड़ी समस्या संसार में है। जहाँ प्रियतम का विश्लेष है, वहीं उत्कट उत्कण्ठा है। लेकिन जब उत्कट उत्कण्ठा तब प्रियतम नहीं। जब विरह है तब उत्कट उत्कण्ठा है, लेकिन प्रियतम नहीं और संयोग है तब उत्कट उत्कण्ठा नहीं, क्योंकि उत्कण्ठा तो विरह में ही होती है। विरह से संतप्त विरहिणी को देखकर मालूम पड़ता है कि इसे कभी प्रियतम का सम्मिलन हुआ ही नहीं? भक्तों ने कहा- संगम विरह विकल्पे वरमिह विरहो न संगमस्तस्याः। भगवान वरदान देने लग जाँय, ‘संगम या विरह माँग लो’ तो विरह ही माँगो, क्योंकि संगम में तो प्रियतम अकेले ही होते हैं, पर विरह में तो सारा संसार ही प्रियतममय होता है। प्रासादे सा दिशि च सा पृष्ठतः सा पुरः सा विप्रलम्भ श्रृंगार में द्रवावस्थाप्रविष्ट आलम्बनमय ही समस्त वस्तुओं का मान होता है। यद्यपि दुनियाँ के प्रेम में ऐसा है तथापि यहाँ के प्रेम में जिस समय प्रियतम का पूर्ण सम्मिलन है, उसी समय उत्कट अत्कण्ठा है। पूर्ण सम्मिलन का अर्थ है अन्तःकरण का सम्मिलन, अन्तरात्मा का अन्तरात्मा से, प्राण का प्राण से सम्मिलन, अंग से अंग का सम्मिलन, रोम-रोम से रोम-रोम का सम्मिलन। इस तरह तरंग से जल का संगम ही बड़ा अद्भुत, फिर क्या कहना आनन्दसिन्धु और उसके सार माधुर्यसिन्धुसर्वस्व का कितना अद्भुत घनिष्ठ सम्बन्ध है जिसका मुकाबला करने वाला दुनियाँ में दूसरा कोई सम्बन्ध नहीं है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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