भागवत सुधा -करपात्री महाराजभगवान हँस पडे़। फाटक खुल गया। कहा- ‘आओ उदयनाचार्य।’ भगवान भक्तवत्सल हैं। कृपालु हैं। ऐसे उदयनाचार्य भगवान से बोले ‘काले कारुणिक त्वयैव कृपया ते तारणीया नराः।’ इन नास्तिकों का भी आप उद्धार करना। क्योंकि आप अकारण करुण हो। करुणावरुणालय हो। आप जैसा करुणावरुणालय अकारण करुण कोई है ही नहीं। इसलिए आप ठुकराओ नहीं। श्री भगवान बोले- ‘‘उदयनाचार्य! करें क्या? कोई निमित्त होना चाहिए।’’ उदयनाचार्य बोले- ‘‘निमित्त तो है। वे आपका चिन्तन करते हैं। शास्त्रार्थ हुआ आस्तिकता व नास्तिकता का। शास्त्रार्थ होते-होते रात्रि के आठ बज गये, दस बज गये, एक बज गया। जनता ने कहा- बस महाराज! अब शास्त्रार्थ बन्द करो। कल शास्त्रार्थ होगा। जनता की बात माननी पड़ती है। शास्त्रार्थ बन्द हुआ। चले तो गये आस्तिक भी अपने घर, नास्तिक भी। पर नींद दोनों में से किसी को भी नहीं। आस्तिक रात, रात भर सोचता रहा- ऐसी युक्ति कोई बढ़ियाँ मिले कि ईश्वर को सिद्ध कर दूँ। नास्तिक जगता रहा, सोचता रहा- कोई ऐसी युक्ति मिले कि ईश्वर की धज्जियाँ उड़ा दूँ। इस तरह हे नाथ! जब नास्तिक भी आपका चिन्तन करता है तो मैंने ठीक ही कहा- ईश्वर सिद्धि के विपरीत ढ़ंग से नास्तिक भी आपका उच्च चिन्तन करता है। इसलिए कारुणिक! उनका भी उद्धार आप ही करो।’’ ‘किन्तु प्रस्तुत विप्रतीपविधयोअप्युच्चैर्भवच्चिन्तकाः। इस तरह से हमारे आस्तिक सज्जन किसी के विरोधी नहीं होते। वे प्राणिमात्र का कल्याण, नास्तिक का भी कल्याण चाहते हैं। क्योंकि जानते हैं- ‘अमृतस्य पुत्राः’[1]अमृत जो अनन्तब्रह्माण्डनायक परमात्मा उसके सब पुत्र हैं। आस्तिक हो चाहे नास्तिक सभी उसी अजर, अमर, अखण्ड, अनन्त परमात्मा के पुत्र हैं। केवल नाटक है यब सब। भूमि परत भा डाभर पानी। जनु जीवहिं माया लपटानी।[2] ऊपर से पानी बरसा बड़ा पवित्र, निर्मल, निष्कलंक पर, भूमि पर पड़ते ही मलिन हो गया। गंगा का जल भी कभी गड़बड़ गंदा हो जाता है, श्रावण भादों के महीने में। यमुना का जल भी श्रावण भादों में गन्दा हो जाता है। हम उसे घर में लाते हैं। निर्मली बूटी डालते हैं। जरा-सा फिटकरी घुमा देते हैं। वह जल फिर से निर्मल हो जाता है। इस तरह हम मानते हैं कि अभी का जो डाकू बाल्मीकि है, कालान्तर में महर्षि वाल्मीकि हो सकता है। आजकल जो शोषक है, वही कल पोषक हो सकता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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