विषय सूचीभागवत सुधा -करपात्री महाराजषष्ठ-पुष्प 2. माया संतरण का अमोघ उपायकहने का अभिप्राय यह है कि श्री भगवान की कथा बहुत सँवार कर कहने की आवश्यकता है, ताकि किसी के सिद्धान्त को ठेस न पहुँचे और श्री हरि में प्रेममयी भक्ति बढे़े, माया से मोहित न हों। मायां वर्णयतोअमुष्य ईश्वरस्यानुमोदतः। जो पुरुष ईश्वर की अचिन्त्य माया का वर्णन करते हैं, अनुमोदन करते हैं अथवा श्रद्धा के साथ नित्य श्रवण करते हैं, उनका चित माया से कभी मोहित नहीं होता।) जय जय जह्यजामजितदोषगृभीतगुणां श्रुतियाँ कहती हैं- अजित! आप सर्वश्रेष्ठ हैं, आप पर कोई विजय नहीं प्राप्त कर सकता, आपकी जय हो, जय हो। प्रभो! आप स्वभाव से ही समस्त ऐश्वर्यों से पूर्ण हैं, इसलिये चराचर प्राणियों को फँसाने वाली माया का नाश कीजिये। इस गुणमयी माया ने दोष के लिये- जीवों के आनन्दादिमय स्वरूप का आच्छादन करके उन्हें बन्धन में डालने के लिये ही सत्त्वादि गुणों को धारण किया है। जगत् मं जितनी भी साधना, ज्ञान, क्रिया आदि शक्तियाँ हैं, उन सबको जगाने वाले आप ही हैं। आप ही माया को मिटा सकते हैं। यद्यपि हम आपका स्वरूपतः वर्णन करने में असमर्थ है, परन्तु जब कभी आप माया के द्वारा जगत् की सृष्टि करके सगुण हो जाते हैं या उसको निषेध करके स्वरूपस्थिति की लीला करते हैं अथवा अपना सच्चिदानन्द स्वरूप श्रीविग्रह प्रकट करके क्रीडा करते हैं, तभी हम यात्किंचित आपका वर्णन करने में समर्थ होती हैं।[4])
(अजित! आपकी जय हो, जय हो। मिथ्या- झूठे गुण धारण करके चराचर जीव को आच्छादित करने वाली इस माया को नष्ट कर दीजिये। आपके बिना बेचारे जीव इसको नहीं मार सकेंग- नहीं पार कर सकेंगे। वेद इस बात का गान करते रहते हैं कि आप सकल सद्गुणों के समुद्र हैं।) श्रुति ने कहा- ‘दोषगृभीत गुणां’ अर्थात् ‘दोषायानन्दाद्यावरणाय गृहीता गुणाः यया ताम्’= उसने आपके अंशभूत जीवों के आनन्दादि स्वरूप का आवरण करने के लिये गुणों को ग्रहण किया है, इसलिये यह अवश्य मारने योग्य है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ भागवत 1.7.53
- ↑ श्री श्रीधर स्वामी जी ने इस श्लोक का आशय इस प्रकार व्यक्त किया है-
जय जयाजित जह्यगजगंमावृतिमजामुपनीतमृषागुणाम्।
न हि भवन्तमृते प्रभवन्त्यमी निगमगीतगुर्णार्णवता तब।।1।।
- ↑ भागवत 10.87.14
- ↑ श्रीधर स्वामी के शब्दों में श्लोकार्थ इस प्रकार है-
भी अजित जय जय उत्कर्षमाविष्कुरु। आदरे वीप्सा। केन व्यापारेण-अगजगदोकसां अगानि स्थावराणि जगंति जगमानि च ओकांसि शरीराणि येषां जीवनां तेषामजामविद्यां जहि नाशय। किमिति गुणवती हन्तव्येत्यत आह- दोषगृभीतगुणां दोषायानन्दाद्यावरणाय गृहीता गुणा यया ताम्। ‘हृग्रहोर्भश्छन्दसि’ इति भकारः। इयं हि स्वैरिणीव परप्रतारणाय गुणान् गृह्नतीत्यतो हन्तव्येति। तहि मय्यपि दोषमावहेदिति ममापि तत्र का शक्तिः स्यादत आह- त्वमिति। यद्यस्मात्वमात्मना स्वरूपेणैव समवरुद्धसमस्तभगः सम्प्राप्तसमस्तैश्चर्योअसि, वशीकृतमायत्वादिति भावः। ननु स्वयमेव ते ज्ञान वैराग्यादिना किं न हन्युरित्यत आह- शक्त्यवबोधकतेति। तेषां त्वमेवान्तर्यामी सर्वशक्त्युद्धोधकः। अतो न ते ज्ञानादौ स्वतन्त्रा इति भावः। नन्वहमकुण्ठज्ञार्नश्रर्यादिगुणो जीवानां कर्मज्ञानादि शक्त्यवबोधनेनाविद्याहंतेत्यत्र किं प्रमाणमिति चेदहमेव प्रमाणमित्याह। निगमो वेदः। नन्वेवम्भूते मयि कथं श्रुतीनां प्रवृत्तिस्तत्राह- क्वचिदिति। कदाचित् सृष्टयादिसमयेअजया मायया चरतः कीडतो नित्यं चालुप्तभगतया सत्यज्ञानानन्ता- नन्दैकरसेनात्मना च चरतो वर्तमानस्य निगमोअनुचरेत् प्रतिपादयेत्। कर्मषष्ठद्यौ। ‘‘यतो वा इमानि भूतानि जायन्ते’’, ‘‘यो ब्रह्माणं विदधाति’’’’’’, ‘‘य आत्मनि तिष्ठन्’’ , ‘‘सत्यं ज्ञानमनन्त ब्रह्म’’, ‘‘यः सर्वज्ञः स सर्ववित् इत्यादि निगम कदम्बस्त्वामेवं भूतं प्रतिपादयीत्यर्थः।
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