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भागवत सुधा -करपात्री महाराज
6. युगधर्मां का निरूपणः-
तस्मात् सर्वात्मना राजन् हृदिस्थं कुरु केशवम् ।
भ्रियमाणो ह्यवहितस्ततो यासि परां गतिम् ।।
भ्रियमाणैरभिध्येयो भगवान् परमेश्वरः ।
आत्मभावं नयत्यंग सर्वात्मा सर्वसंश्रयः ।।
कलेर्दोषनिधे राजन्नस्ति ह्येकी महान् गुणः ।
कीर्तिनादेव कृष्णस्य मुक्तसंग परं व्रजेत ।।
कृते यद् ध्यायतो विष्णुं त्रेतायां यजतो मखैः ।
द्वापरे परिचर्यायां कलौ तद्धरिकीर्तनात् ।।[1]
(राजन! अब शरीर की मृत्यु का समय निकट आ गया है। भक्तिभावना से भरपूर होकर सम्पूर्ण शक्ति लगाकर, अन्तःकरण की सारी वृत्तियों को सब ओर से हटाकर एकमात्र श्रीहरि में ही रमा कर, प्रभु को हृदय सिंहासन पर बैठा लो। ऐसा करने पर अवश्य ही तुम्हें परमगति की प्राप्ति होगी।।)
(जो मृत्यु के सन्निकट हैं, उन्हें सब प्रकार से परमेश्वर्यशाली भगवान का ध्यान करना चाहिये। प्रिय परीक्षित! श्रीहरि सबके परमाश्रय हैं। सबके जीवन धन आत्मा ही हैं। जो एकमात्र उन्हीं को अपना आत्मा, परम आत्मीय समझकर मन को उन्हीं में समाये रहते हैं, उन्हें वे आत्मसात कर लेते हैं।।)
(राजन यों तों कलियुग दोषों का खजाना है, परन्तु इसमें एक बहुत बड़ा गुण है। वह यही कि कलियुग में करुणावरुणालय श्रीकृष्ण का संकीर्तन करने मात्र से ही सम्पूर्ण आसक्तियाँ छूट जाती हैं और परमात्मा की प्राप्ति हो जाती है।।)
इस धोर कलिकाल में मन राजस तो हो ही गयी है, तामस भी हो गया है। सत्त्व का प्रकाश अत्यन्त क्षीण हो गया है। सत्ययुग में सत्त्व की प्रधानता होती है, सत्त्वगुण-प्रधान होता है। सत्त्व का स्वभाव है प्रकाश, चाञ्चल्यहीन होने के कारण स्थिर है। चंचलता नहीं है, प्रकाशात्मकता है। यदि प्रकाशात्मक चित्त किसी वस्तु को खोजने लगे तो वह वस्तु बड़ी सरलता से मिल जाती है। इसलिए अदृश्य अग्राह्य-अलक्षण-अचिन्त्य-अव्यपदेश्य-निर्विकार परब्रह्म का स्फुरण होना, उस प्रकाशात्मक रजोविहीन तमोविहीन शुद्ध चित्त में कुछ कठिन नहीं। इसलिए कृतयुग में ध्यान में परात्पर परब्रह्म मिलते हैं, उन दिनों मन परम शान्त होता है, अत्यन्त एकाग्र होता है। कहा जाता है-
सर्वार्थावभासनशालि चित्तसत्त्वम्
प्राणी का चित्तसत्त्व ‘सर्वार्थावभासनशालि’ है। सर्वार्थ का प्रकाशन करने में समर्थ है। जो युक्त होते हैं उन्हें तो हरेक पदार्थ का सदा सर्वदा भान होता रहता है। ‘युक्तस्य सर्वदा भानम्’ (भाषा परिच्छेद) जो युक्त योगी हैं, जिनका निर्मल चित्त है, उनकी यह अद्भुत महिमा है। मान लिया युक्त नहीं हुआ, युंजान हुआ तो भी ध्यान करने से सब पता लग जाता है। सन्निकृष्ट-विप्रकृष्ट, अतीत-अनागत वर्तमान सब वस्तुओं को स्वतः स्फुरण मन में हो जाता है।
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