भागवत सुधा -करपात्री महाराजषष्ठ-पुष्प 3. प्रह्लाद-चरितभगवान ने उसे मारने का भी सब इन्तजाम कर रक्खा- न भीतर न बाहर, देहली पर, न आकाश में न पृथ्वी पर, जंघा पर, न दिन में न रात में, सन्ध्या में, न अस्त्र से न शस्त्र से, नाखूनों से विदीर्ण कर डाला। फिर भी भगवान को कोप इतना उग्र था कि वह शान्त ही नहीं हो रहा था। उनके सामने जाने की हिम्मत किसी की नहीं पड़ती थी। ब्रह्मा जी भी जाने का साहस नहीं कहते थे। लक्ष्मी जी से कहा-‘माता[1] आप जाओ। आप तो अनन्तकोटि ब्रह्माण्ड के ऐश्वर्य की अधिष्ठात्री भगवती हो।’ लक्ष्मी जी ने कहा-‘‘ हमने भी ऐसा उग्र रूप कभी देखा नहीं, डर लगता है।’’ फिर ब्रह्मा जी ने प्रह्लाद से कहा- ‘बेटा, तुम्हीं जाओ।’ सिंह से दुनियाँ डरे पर उसका बच्चा नहीं डरता है? सिंह का शावक नहीं डरता, निर्भय होता है। बड़ी निर्भयता के साथ भक्तराज प्रह्लाद गये। भगवान के चरणों में मस्तक रख दिया। भगवान ने बड़ा प्यार किया और कहा- क्वेदं वपुः क्व च वयः सुकुमारमेतत् अर्थात कहाँ यह तुम्हारा कोमल-कान्त-कमनीय सुन्दर पंचवयस्क मंगलमय स्वरूप और कहाँ प्रमत्त-दैत्य-कृत दारूण (भीषण) यातनाएँ। यह अभूतपूर्व विषमता देखने में आई। ‘द्वौ क्व शब्दौ महदन्तरं सूचयतः’ दो क्व शब्द अभूतपूर्व विषमता के सूचक हैं। वत्स! तुम्हारे बुलाने पर मैंने जल्दी-से-जल्दी आने का प्रयत्न किया पर कुछ बिलम्ब हुआ हो तो क्षमा करना। सब देवताओं ने भगवान की स्तुति की, प्रह्लाद ने भी भगवान की स्तुति की। भगवान चाहते थे भक्तराज प्रह्लाद कुछ वरदान माँग लें। प्रह्लाद ने कहा- अहं त्वकामस्त्वद्धषतस्त्वं च स्वाम्यनपाश्रयः। अर्थात् ‘आप हमारे आत्माराम-पूर्णकाम स्वामी हैं, हम आपके निष्काम भक्त हैं। हमारी आपकी प्रीति सौदागरों की प्रीति नहीं है। कुछ आप हम से चाहें, कुछ हम आप से चाहें ऐसा नहीं।’ भगवान् ने कहा-‘‘प्रह्लाद! अमोध-दर्शन है मेरा, कुछ माँगना चाहिये।’’ प्रह्लाद ने कहा- ‘अच्छा, अगर देना है तो यही वरदान दें कि मेरे हृदय में कभी कामना के अंकुर ही न पैदा हो?’’ यदि रासीश मे कामान् वरांस्त्वं वरदर्शभ। (मेरे वरदानिशिरोमणि स्वामी! यदि आप मुझे मुँह माँगा वर देना चाहते हैं तो यह वर दीजिये कि मेरे हृदय में किसी भी कामना के उदय होते ही इन्द्रियाँ, मन, प्राण, देह, धर्म, धैर्य, बुद्धि, लज्जा, श्री, तेज,स्मृति और सत्य- ये सब-के-सब नष्ट हो जाते हैं।) |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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