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भागवत सुधा -करपात्री महाराज
विलज्जमानया यस्य स्थातुमीक्षापथेअमुया।
विमोहिता विकल्पन्ते ममाहमिति दुर्धियः।।[1]
(यह माया तो उनकी आँखों के सामने ठहरती ही नहीं, विलज्जित होकर दूर से ही भाग जाती है। फिर भी अज्ञजन उस माया से ही विमोहित होकर ‘यह मैं हूँ यह मेरा है’ इस प्रकार अनर्गल प्रलाप करते रहते हैं, बकते रहते हैं।)
माया स्वयं इनके सामने खड़ी होने में शर्माती है। माया इनसे लडे़गी कैसे? जितने भी दैत्य-दानव हैं वे तो माया के बच्चे हैं। जब माया ही इनके सामने खड़ी नहीं हो सकती तो माया के बच्चे क्या लड़ेंगे? इनकी युद्ध चिकीर्षा मेरे बिना और कौन पूरी कर सकता है? ‘लेकिन ये तो हमारे नाथ-स्वामी है। इनके साथ कैसे युद्ध करेंगे। असुर बनकर ही युद्ध कर सकेगे।’
सनकादि योगीश्वर दर्शन करने जा रहे थे, उन्होंने रोक दिया। कहा- ‘बाबा जी खडे़ रहिये।’ बाबाजी ने डाँटते हुए कहा- ‘भगवान विष्णु सर्वान्तरात्मा हैं। उनका दर्शन नहीं करन देते। हमें जाने से रोकता है। उन्हें छिपाता है। जा असुर हो जा।’ इस प्रकार जय-विजय ने ‘आ बैल मुझे मार’ की लौकोक्ति को चरितार्थ करते हुए जान-बूझकर शाप ले लिया। भगवान् की युद्ध चिकीर्षा को पूर्ण करने की भावना से ही उक्त पाप किया था। कालान्तर में वही हिरण्याक्ष और हिरण्यकशिपु बने। हिरण्याक्ष के साथ भगवान का युद्ध हुआ। भगवान लडे़, खूब लड़े और मार भी डाला पर समझ गये कि कोई मिला, अच्छा मिला। भगवान् ने अपने आपको विजयी नहीं माना-
यं विनिर्जित्य कृच्छेण विष्णुः क्ष्मोद्धार आगतम्।
नात्मानं जयिनं मेने तद्वीर्य भूर्यनुस्मरन् ।।
(जब विष्णु भगवान जल से पृथ्वी का उद्धार कर रहे थे, तब वह उनके सामने आया। बड़ी कठिनाई से उन्होंने उस पर विजय तो प्राप्त कर ली, परन्तु उसके बहुत समय बाद भी उन्हें बार-बार हिरण्याक्ष की शक्ति और बल का स्मरण हो आया करता था और उसे जीत लेने पर भी वे अपने को विजयी नहीं समझते थे।)
हिरण्याक्ष तो मारा गया। हिरण्यकशिपु ने ब्रह्मा जी से वरदान माँग रखा था-‘न भीतर मरूँ, न बाहर मरूँ, न आकाश में मरूँ, न पाताल में मरूँ, न दिन में मरूँ, न रात में मरूँ, न अस्त्र से मरूँ न शस्त्र से मरूँ..............।’ बड़ा भयंकर था वह। भगवान् का उनसे पीछा किया। जहाँ-जहाँ भगवान् जाँय, वहीं-वहीं वह पहुँच जाय। बैकुण्ठ में, साकेत में, गोलाक में जहाँ भी जाँय, वहीं वह ताल ठोककर युद्ध करने के लिए तैयार हो जाय।
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