भागवत सुधा -करपात्री महाराजभगवान् ने सोचा- ‘इसके भीतर घुस जाना ठीक है, वैसे इससे पार पाना कठिन है। यह बाहर ही देखता है, पराड्मुख है।’ भगवान् उसके भीतर प्रवेश कर गये। हिरण्यकशिपु ने चारों ओर ढूँढ़ा। जब कहीं न पाया तो बोला- ‘विष्णु तो मर गया।’ निशम्य तद्वघं भ्राता हिरण्यकशिपुः पुरा। (जब हिरण्याक्ष के भाई हिरण्यकशिपु को उसके वध का वृतान्त विदित हुआ, तब वह अपने भाई का वध करने वाले को मार डालने के लिये क्रोध करके भगवान् के निवासस्थान बैकुण्ठ धाम में पहुँचा। भगवान विष्णु तो मायावियों में सर्वश्रेष्ठ ठहरे। काल की गति के भी मर्मज्ञ ठहरे। जब उन्होंने देखा कि हिरण्यकशिपु तो हाथ में शूल लेकर काल की भाँति मेरे ही ऊपर धावा कर रहा है, तब उन्होंने विचार किया। जैसे संसार के प्राणियों के पीछे मृत्यु लगी रहती है, वैसे ही मैं जहाँ-जहाँ जाऊँगा, वहीं-वहीं यह मेरा पीछा करेगा। इसलिये मैं इसके हृदय में प्रवेज्ञ कर जाऊँ। जिससे यह मुझे देख न सके; क्योंकि यह तो बहिर्मुख है, बाहर की वस्तुएँ ही देखता है।’) एवं स निश्चित्य रिपोः शरीरमाधावतो निर्विविशेअसुरेन्द्र। (असुर शिरोमणे! जिस समय हिरण्यकशिपु उन पर झपट रहा था, उसी समय ऐसा निश्चय करके डर से काँपते हुए विष्णु भगवान ने अपने शरीर को सूक्ष्म बना लिया और उसके प्राणों के द्वारा नासिका में से होकर हृदय में जा बैठे।) अपश्यन्निति होवाच मयान्विष्टमिदं जगत्। (उनको कहीं न देखकर वह कहले लगा- ‘मैंने सारा जगत् छान डाला, परन्तु वह मिला नहीं। अवश्य ही वह भ्रातृघाती उस लोक में चला गया, जहाँ जाकर फिर लौटना नहीं होता।)
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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