भागवत सुधा -करपात्री महाराज‘कर्म करते हैं भोग के लिए और भोग भोगते हैं कर्म के लिए।’ यह गौरख धन्धा कब मिटेगा? कर्म के लिए भोग करते हैं, भोग के लिए कर्म करते हैं तो इस अखण्ड धारा को कौन रोकेगा? इसलिए इससे विमुक्त होने के लिए यही आवश्यक है कि संसार से वैराग्य हो। इस दृष्टि से तो धर्म का परम फल है अपवर्ग। वेदान्त सिद्धान्त है- श्रीमद्भागवत सिद्धान्त है कि ‘भव बन्ध’ और ‘भव-मोक्ष’ यह स्ज्ञा अज्ञान से हुई है- अज्ञानसंज्ञौ भवबन्धमोक्षौ द्वौ नाम नान्यौ स्त ऋतज्ञभावात्। अज्ञान के कारण भवबन्घ और मोक्ष की कल्पना है। वास्तव में अखण्ड सच्चिदानन्द परात्पर-परब्रह्म में न भव बन्धन नाम की कोई वस्तु है न मोक्ष नाम की कोई वस्तु। अध्यात्म रामायण के अनुसार - नाहो न रात्रिः सवितुर्यथा भवेत् प्रकाशरूपाण्यभिचारतः क्वचित्। जिनकी संज्ञा अज्ञान से ही कल्पित है, वे संसार सम्बन्धी बन्धन और मोक्ष दोनों ही सत्य और ज्ञान स्वरूप परमात्मा से भिन्न नहीं हैं। जिस प्रकार सूर्य में दिन और रात्रि का अभाव है, वैसे ही विचार करने पर अखण्डचेतनस्वरूप अद्वितीय परमात्मा में बन्धन और मोक्ष नहीं है। शु़द्ध चिद्घन राम में ज्ञान-अज्ञान दोनों की कल्पना नहीं हो सकती। प्रकाश रूप सूर्य में दिन-रात्रि जैसे संभव नहीं। इन सब दृष्टियों से निवारण परात्पर परब्रह्म ही अपवर्ग है। इसलिए अपवर्ग और भगवत्पद प्राप्ति दोनों एक ही हैं। इसलिए कर्मकाण्ड का परमफल अन्त में भगवत्पद प्राप्ति है। उसका गौणफल है अर्थ। अच्छा तो धन मिल गया तो उसका क्या फल? बोले धन का मुख्य फल तो है धर्मानुष्ठान। धन मिला तो यज्ञ करो, दान करो, तप करो, परोपकार करो, समाज सेवा करो, राष्ट्र सेवा करो, गरीबों की सहायता पहँचाओ। यह सब धन का परम फल है। धन का गौण फल काम भी है। काम अर्थात विषय-भोग। यद्यपि लोग काम का परम फल इन्द्रिय तर्पण मानते हैं, परन्तु वैसा है नहीं है। तब क्या फल है? जीवन धारण करना। अरे भाई! पानी पीते हैं किस लिए, इसलिए कि शरीर स्वस्थ रहे, भगवान का भजन हो। भोजन करते हैं किसलिए? इसलिए कि शरीर स्वस्थ रहे, भगवान का भजन करें। उद्देश्य की पवित्रता अत्यावश्य है कोई मक्खन खाता है, बादाम घोट-घोट कर पीता है। हमने पूछा- ‘बेटा तुम मक्खन क्यों खाते हो, बादाम क्यों घोंट-घोंटकर पीते हो? |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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