भागवत सुधा -करपात्री महाराज पृ. 114

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भागवत सुधा -करपात्री महाराज

गोस्वामी जी कहते हैं-

तरपन होम करहिं विधि नाना।
विप्र जेवाँइ देहिं बहु दाना।।[1]

तर्पण करो, यज्ञ करो, होम करो, दान करो, ब्राह्मणों को भोजन कराओ। पर भगवच्चरणारविन्द में रति ही सबका फल चाहो, कुछ और नहीं। जो यज्ञ करते हैं, तप करते हैं, देवी-देवता का पूजन करते हैं, सबका फल भगवान के चरणों में प्रीति ही चाहते हैं, बस और कुछ नहीं, उनके हृदय में भगवान निर्वास करते हैं-

सबु करि मागहिं एक फलु रामचरन रति होउ।
तिन्हके मन मन्दिर बसहु सियरघुनन्दन दोउ।।[2]

इसी दृष्टि से ‘स्वकर्मणा तमभ्यर्च्य’ कहा। इसलिए कर्म हो निष्काम ‘यतो भक्तिरधोक्षजे’। दूसरे आचार्य कहते हैं-

एतावानेव लोकेअस्मिन् पुंसां धर्मः परः स्मृतः।
भक्तियोगो भगवति तन्नामग्रहणादिभिः।।[3]

इस लोक में भगवान के नामोच्चारणादि के सहित किया हुआ भक्तियोग ही मनुष्य का सबसे प्रधान धर्म माना गया है।

श्रवण कीर्तन विष्णो: स्मरणं पादसेवनम्।
अर्चनं वंदनं दास्यं सख्यमात्मनिवेदनम्[4]

(भगवान विष्णु का श्रवण, कीर्तन, स्मरण पादसेवन, अर्चन, वन्दन, दास्य, सख्य और आत्मनिवेदन करना- यह उनकी नवधा भक्ति है।।)
इस मत में भगवन्नाम कीर्तनादि ही परम धर्म है। यही सर्वोत्कृष्ट धर्म है, निष्काम श्रौत-स्मार्त्त धर्म नहीं। इत्यादि। यह सब अवान्तर लीला है। सब आचार्यों ने भिन्न-भिन्न ढंग से रस का अनुभव किया है। इसमें राग-द्वेष की बात नहीं है। सब आचार्य अपने-अपने ढंग से उसी तत्त्व में पर्यवसित होते हैं। पहले पक्ष वाले कहते हैं- ‘अहैतुकी’ का अर्थ क्या है? दूसरे पक्ष वाले कहते हैं- अहैतुकी का अर्थ है हेतु-रहित। पहले वाले कहते हैं- ‘यतः पंचमी कैसे? दूसरे कहते हैं- पंचमी ऐसी है कि जैसे ‘आमाम्र पक्वाम्र’ का हेतु है। वैसे ही भक्ति ही भक्ति का हेतु होती है। क्योंकि भक्ति क्या है?

आदौ श्रद्धा ततः साधुसंगोअय भजनक्रिया।
ततोअनर्थनिवृत्तिः स्यात्ततो निष्ठा रुचिस्ततः।।
अथासक्तिस्ततो भावस्ततः प्रेमाभ्युदंचति।
साधकानामयं प्रेम्णः प्रादुर्भावे भवेत्क्रमः।।
धन्यस्यायं नवः प्रेमा यस्योन्मीलति चेतसि।
अन्तर्वाणिभिरप्यस्य मुद्रा सुष्ठु सुदुर्गमा।।[5]

पहले श्रद्धा हो। श्रद्धा क्या है? भक्ति का ही एक रूप है। इसी तरह साधु संग, भजन क्रिया- ये सबके सब भक्ति के ही रूप हैं। किन्तु इतना ही कहना है कि अपक्व भक्ति से ही परिपक्व भक्ति बनती है। इसलिए उससे अतिरिक्त हेतु कोई दूसरा नहीं है। अतः ‘न हेतुः कारणं विद्यते यस्यां सा अहैतुकी’ ऐसा कहना उचित ही है। अहैतुकी है भक्ति और अप्रतिहता है, जो किसी भी प्रकार से प्रतिहत नहीं होती और अव्यवहिता (व्यवधान शून्य) होती है। जिसके बीच में क्षणभर का व्यवधान हो, अखण्ड रूप से भगवत्-परायणता, भगवन्निष्ठा हो। इस तरह ‘स वै पुंसां परो धर्मः’।[6]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. रामचरितमानस 2/128/7
  2. रामचरितमानस 2/129
  3. भागवत 6/5/22
  4. भागवत 7/5/23
  5. भक्तिरसामृतसिन्धुः पूर्व विभागे चतुर्थी प्रेमभक्ति लहरी 6-8
  6. श्रीधरी-यत्र यत्प्रथमं पृष्टं सर्वशास्त्रसारमैकान्तिकं श्रेयो ब्रूहि इति, तत्रोत्तरम् ‘स वै पंसाभिति’ , अयमर्थः- धर्मा द्विविधः, प्रवृत्तिलक्षणो निवृत्तिलक्षश्चेति। तत्र यः स्वर्गाद्यर्थः प्रवृत्तिलक्षणः सोअपरः। यतस्तु धर्माच्छवणादरादिलक्षणा भक्तिर्भवति स परो धर्मः। स एवैकांतिकं श्रेय इति। कथं भूता? अहैतुकी। हेतुः फलानुसंधान तद्रहिता। अप्रतिहता विघ्नैरनभिभूता। विश्वनाथ चक्रवर्ती सारार्थदर्शिन्याम्- सर्वशास्त्रसांर ऐकान्तिकं श्रेयो ब्रूहि इति प्रश्नद्वयस्य उत्तर माह ‘स वै पुसां’ पुम्मात्राणामेव धर्मः परः परमः श्रवणकीर्तनादि लक्षण। यदुक्तम- ‘एतावानेव लोकेअस्मिन् पुंसां धर्मः परः स्मृतः। भक्तियोगो भगवति तन्नामग्रहणादिभिः (6/3/22)। इत्यतः पर शब्दो विशेष्यो धर्मा भक्तियोग एव भवेदित तथात्र वतुप् प्रत्ययेनैवकारेण चैतदन्यस्य परधर्म पद वाच्यत्वं च निषिद्धम्। यतो भक्तिः प्रेम लक्षणा भवेत्। अहैतुकी हेतुं विनैवोत्पद्यमाना इति सगुणा व्यावत्ता। ननु महानयमपलापः कियते? मैवम्। श्रवण कीर्तनादि रूपो यो धर्मः स भक्तिरेव साधन-नाम्नी, सैव पाकदशायां प्रेम नाम्नी। ते द्वे अपि भक्ति शब्देनैवोच्येते। तदपि ‘भक्त्या संजातया भक्त्या विभ्रत्युत्पुलका तनुम्’ (भाग0 11) इति ‘यतो भक्ति रधीक्षजे’ इत्यादिषु उत्तरस्याः भक्तेः पूर्वा भक्तिः कारणम्। पक्वाम्रस्य कारणं आम्राम्रमितिवत्। स्वादभेद निबन्धनमेव तस्य कारणत्वं बालबोधनार्थ काल्पनिक मेव न तु वास्तवम्। न ह्येकस्यैव पुरुषस्य बाल्ययौवनाद्यनेकावस्थावतो हेतुहेतुमद्भावस्तात्त्विक इति। घटपटौदनाविषु मृत्तन्तुतण्डुलादीनां नामरूपलोप इवेति न तादृशत्वमत्र व्याख्यातुं शक्य मित्यवसेयम्। न च भक्तेः प्रसिद्धो हेतुः साधुसंग एवास्तीति वाच्यम् तस्यापि- ‘आदौ श्रद्धा ततः साधुसगोअथ भजनकिये’ त्यादौ भक्तेद्वितीयभूमिका त्वेनोत्कत्वात्- भक्तित्वमेव। ‘स्यान्महत्सेवया विप्रा’ इत्यगे्रपि तथा व्याख्यास्य मानत्वाच्च।

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भागवत सुधा -करपात्री महाराज
क्रमांक पाठ का नाम पृष्ठ संख्या
प्रथम-पुष्प
1. निगमकल्परोर्गलितं फलम् 37
2. पुरुषार्थचतुष्टयप्रदायक निगमकल्पतरु 38
3. रसमालयम् 38
4. आत्माराम का भी भगवद्गुणगणार्णव में अवगाहन 38
5. देव दुर्लभ श्रीमद्भागवत: 39
6. युगधर्मों का निरूपण 42
7. विद्या-अविद्या का समुच्चय 44
8. भगवन्नाम-संकीर्तन 48
9. माहात्म्य 51
10. वस्तु-तत्व के साक्षात्कार के लिए श्रवण, मनन और निदिध्यासन अपेक्षित 54
11. ‘जन्माद्यस्य यतोऽन्वयात्’ की भूमिका 54
12. भगवत्तत्व का अनुसंधान- छान्दोग्य शैली में 55
13. भगवतत्व का अनुसंधान -तैत्तिरीय शैली में 56
14. पैंगलोपनिषत् पुराण और महाभारत की शैली में 56
15. परब्रह्म के निःश्वासभूत वेदों की अपौरुषैयता 57
16. वेदों के प्रतिपाद्य सगुण या निर्गुण 59
17. ईश्वर-सिद्धि 64
18. नास्तिकों के भी उद्धार का उपक्रम 64
19. सर्वात्मभाव 68
20. भगवान् जगत के अभिन्ननिमित्तोपादानकारण 70
द्वितीय-पुष्प
1. ‘जन्माद्यस्य यतः’ 71
2. 'अन्वयत्', 'इतरत:', 'च' 72
3. 'अभिज्ञः' 74
4. ‘स्वराट्’ 74
5. ‘तेने ब्रह्महृदा य आदि कवये मुह्यन्ति यत् सूरयः’ 75
6. ‘तेजोवारिमृदां यथा विनिमय: 76
7. ऋषि-सूत-संवाद 78
8. श्रीशुक-वन्दना 82
9. शुकमनमोहक ‘बर्हापीडं’ श्लोक 85
10. 'बर्हापीडं' 87
11. ‘नटवर- वपुः’ 88
12. ‘कर्णयोः कर्णिकारं’ 90
13. ‘विभ्रद्वासः कनककपिशं’ 91
14. ‘रन्ध्रान्वेणोरधरसुधया पूरयन्’ 92
15. ‘वृन्दारण्यं स्वपदरमणं’ 94
16. अकारणकरुण करुणावरुणालय-‘भगवान्’ 95
तृतीय-पुष्प
1. प्रतिपद्य और प्रतिपादक की परब्रह्मरूपता 99
2. परम धर्म 111
3. मोक्ष पर्यवसायी धर्म, अर्थ और काम 118
4. ‘तत्त्व’ की तात्त्विक परिभाषा 123
चतुर्थ-पुष्प
1. भगवान व्यास को देवर्षि नारद की प्रेरणा 127
2. गुणगण भगवान् के उपकारक नहीं 139
3. भगवदाराधन की विधि 143
4. ‘तथा परमहंसानां’ के साथ ‘परित्राणाय साधूनां’ की संगति 154
पंचम-पुष्प
1. शुक-समागम 159
2. अप्रमत्त के लिये अति सुगम भगवत्प्राप्ति 174
3. नाम-धाम-प्राणायाम और ध्यान से भगवत्प्राप्ति 175
4. ‘तेषां के योगवित्तमाः’ का समाधान 183
5. ‘न किश्चिदपि चिन्तयेत्’ का तात्त्विक अभिप्राय 188
षष्ठ-पुष्प
1. ब्रह्म-नारद संवाद 190
2. माया संतरण का अमोघ उपाय 191
3. प्रह्लाद चरित 196
4. शरणागति 205
5. शरण्य की शरणागति 208
6. शरण्य का स्वरूप 208
7. शरणागति एक बार या बार-बार? 208/2
8. श्री जी 209
सप्तम-पुष्प
1. राजा बलि के पूर्व जन्म का वृतान्त 216
2. भगवान वामन को आविर्भाव 223
3. राजा बलि की सत्यनिष्ठा 228
4. धर्मनिरपेक्ष या धर्मसापेक्ष? 228
5. धन बड़ा या धनवान ? 230
6. ‘धन नहीं धनवान् बड़ा’ 231
अष्टम-पुष्प
1. वेदान्तवेद्य पूर्णतम पुरुषोत्तम ‘श्रीराम’ 233
2. ‘आदि कर्ता स्वयं प्रभु’ श्रीराम 235
3. लताओं तक को प्रेम प्रदान करने वाले ‘श्रीराम’ 236
4. प्रभुओं के भी प्रभु ‘श्रीराम’ 238
5. धर्म रक्षक ‘श्रीराम’ 239
6. लीला पुरुषोत्तम ‘श्रीकृष्ण’ 239
7. श्रीवृन्दावन, गोपांगनाएँ; श्रीकृष्ण और राधा का तात्विक स्वरूप 240
8. श्रीकृष्णचन्द्र परमानन्दकन्द का अद्भुत प्राकट्य 242
9. सुषमासारसर्वस्त्र ‘श्रोहरि’ 242
10. अनाघ्रात अनपहत-अनुत्पन्न-अनुपहत और अदृष्टाद्भुत पंकज ‘श्रीकृष्ण’ 242
11. सत्यज्ञानानन्तान्दमात्रैकरसमूर्ति ‘श्रीकृष्ण’ 242/2
12. भगवान् के जन्म और कर्म दिव्य हैं, वे स्वयं अप्राकृत हैं 244
13. श्री वृन्दावनधाम 248
14. मृद्भक्षण लीला 250
15. दामोदरलीला 251
16. निराकार से साकार 252
17. भावुक के दु्रत चित्त पर भगवान् की अभिव्यक्ति ‘भक्ति’ 254
18. श्रीकृष्णचन्द्र और श्रीराधाचन्द्र 255
19. आसन और आशयरूप बाह्यप्रपच्च और पंचकोश के तादात्म्य का त्यागकर श्रीकृष्णचन्द्र परमानन्द कन्द के स्वागत में तन्मय द्वारकास्थ पट्टमहिषीगण 257
20. कथा श्रवण से वैराग्य एवं विज्ञानोपलब्धि 258
21. भगवद्गुणानुवाद से भगवद्भक्ति 259
22. अंतिम पृष्ठ 259

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