भागवत सुधा -करपात्री महाराजगोस्वामी जी कहते हैं- तरपन होम करहिं विधि नाना। तर्पण करो, यज्ञ करो, होम करो, दान करो, ब्राह्मणों को भोजन कराओ। पर भगवच्चरणारविन्द में रति ही सबका फल चाहो, कुछ और नहीं। जो यज्ञ करते हैं, तप करते हैं, देवी-देवता का पूजन करते हैं, सबका फल भगवान के चरणों में प्रीति ही चाहते हैं, बस और कुछ नहीं, उनके हृदय में भगवान निर्वास करते हैं- सबु करि मागहिं एक फलु रामचरन रति होउ। इसी दृष्टि से ‘स्वकर्मणा तमभ्यर्च्य’ कहा। इसलिए कर्म हो निष्काम ‘यतो भक्तिरधोक्षजे’। दूसरे आचार्य कहते हैं- एतावानेव लोकेअस्मिन् पुंसां धर्मः परः स्मृतः। इस लोक में भगवान के नामोच्चारणादि के सहित किया हुआ भक्तियोग ही मनुष्य का सबसे प्रधान धर्म माना गया है। श्रवण कीर्तन विष्णो: स्मरणं पादसेवनम्। (भगवान विष्णु का श्रवण, कीर्तन, स्मरण पादसेवन, अर्चन, वन्दन, दास्य, सख्य और आत्मनिवेदन करना- यह उनकी नवधा भक्ति है।।) आदौ श्रद्धा ततः साधुसंगोअय भजनक्रिया। पहले श्रद्धा हो। श्रद्धा क्या है? भक्ति का ही एक रूप है। इसी तरह साधु संग, भजन क्रिया- ये सबके सब भक्ति के ही रूप हैं। किन्तु इतना ही कहना है कि अपक्व भक्ति से ही परिपक्व भक्ति बनती है। इसलिए उससे अतिरिक्त हेतु कोई दूसरा नहीं है। अतः ‘न हेतुः कारणं विद्यते यस्यां सा अहैतुकी’ ऐसा कहना उचित ही है। अहैतुकी है भक्ति और अप्रतिहता है, जो किसी भी प्रकार से प्रतिहत नहीं होती और अव्यवहिता (व्यवधान शून्य) होती है। जिसके बीच में क्षणभर का व्यवधान हो, अखण्ड रूप से भगवत्-परायणता, भगवन्निष्ठा हो। इस तरह ‘स वै पुंसां परो धर्मः’।[6] |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ रामचरितमानस 2/128/7
- ↑ रामचरितमानस 2/129
- ↑ भागवत 6/5/22
- ↑ भागवत 7/5/23
- ↑ भक्तिरसामृतसिन्धुः पूर्व विभागे चतुर्थी प्रेमभक्ति लहरी 6-8
- ↑ श्रीधरी-यत्र यत्प्रथमं पृष्टं सर्वशास्त्रसारमैकान्तिकं श्रेयो ब्रूहि इति, तत्रोत्तरम् ‘स वै पंसाभिति’ , अयमर्थः- धर्मा द्विविधः, प्रवृत्तिलक्षणो निवृत्तिलक्षश्चेति। तत्र यः स्वर्गाद्यर्थः प्रवृत्तिलक्षणः सोअपरः। यतस्तु धर्माच्छवणादरादिलक्षणा भक्तिर्भवति स परो धर्मः। स एवैकांतिकं श्रेय इति। कथं भूता? अहैतुकी। हेतुः फलानुसंधान तद्रहिता। अप्रतिहता विघ्नैरनभिभूता। विश्वनाथ चक्रवर्ती सारार्थदर्शिन्याम्- सर्वशास्त्रसांर ऐकान्तिकं श्रेयो ब्रूहि इति प्रश्नद्वयस्य उत्तर माह ‘स वै पुसां’ पुम्मात्राणामेव धर्मः परः परमः श्रवणकीर्तनादि लक्षण। यदुक्तम- ‘एतावानेव लोकेअस्मिन् पुंसां धर्मः परः स्मृतः। भक्तियोगो भगवति तन्नामग्रहणादिभिः (6/3/22)। इत्यतः पर शब्दो विशेष्यो धर्मा भक्तियोग एव भवेदित तथात्र वतुप् प्रत्ययेनैवकारेण चैतदन्यस्य परधर्म पद वाच्यत्वं च निषिद्धम्। यतो भक्तिः प्रेम लक्षणा भवेत्। अहैतुकी हेतुं विनैवोत्पद्यमाना इति सगुणा व्यावत्ता। ननु महानयमपलापः कियते? मैवम्। श्रवण कीर्तनादि रूपो यो धर्मः स भक्तिरेव साधन-नाम्नी, सैव पाकदशायां प्रेम नाम्नी। ते द्वे अपि भक्ति शब्देनैवोच्येते। तदपि ‘भक्त्या संजातया भक्त्या विभ्रत्युत्पुलका तनुम्’ (भाग0 11) इति ‘यतो भक्ति रधीक्षजे’ इत्यादिषु उत्तरस्याः भक्तेः पूर्वा भक्तिः कारणम्। पक्वाम्रस्य कारणं आम्राम्रमितिवत्। स्वादभेद निबन्धनमेव तस्य कारणत्वं बालबोधनार्थ काल्पनिक मेव न तु वास्तवम्। न ह्येकस्यैव पुरुषस्य बाल्ययौवनाद्यनेकावस्थावतो हेतुहेतुमद्भावस्तात्त्विक इति। घटपटौदनाविषु मृत्तन्तुतण्डुलादीनां नामरूपलोप इवेति न तादृशत्वमत्र व्याख्यातुं शक्य मित्यवसेयम्। न च भक्तेः प्रसिद्धो हेतुः साधुसंग एवास्तीति वाच्यम् तस्यापि- ‘आदौ श्रद्धा ततः साधुसगोअथ भजनकिये’ त्यादौ भक्तेद्वितीयभूमिका त्वेनोत्कत्वात्- भक्तित्वमेव। ‘स्यान्महत्सेवया विप्रा’ इत्यगे्रपि तथा व्याख्यास्य मानत्वाच्च।
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