भागवत सुधा -करपात्री महाराजभक्ति से अन्तरात्मा प्रसन्न होता है। अन्तरात्मा माने अन्तःकरण। अन्तःकरण की प्रसन्नता तो रज, तम के राहित्य से संभव है। रज कम हो जाय, तम कम हो जाय, तम कम हो जाय, सत्त्व का प्राधान्य हो जाय तथी अन्तःकरण की प्रसन्नता संभव है। सत्त्व का प्राधान्य होगा तो प्रकाश होगा, वैराग्य होगा, विवेक होगा। वैराग्यावैराग्य, ऐश्वर्यानेश्वर्य, ज्ञानाज्ञान और धर्माधर्म ये सब अन्तःकरण के धर्म हैं। अन्तःकरण तामस राजस होता है अवैराग्य, अधर्म, और अनैश्वर्य का प्राधान्य होता है। जब सत्य का विकास होता है तो ऐश्वर्य का प्राधान्य होता है, ज्ञान, वैराग्य, धर्म का प्राधान्य होता है। तभी मन प्रसन्न अर्थात निर्मल हो जाता है, निष्कलंक हो जाता है। रजस्तमोलेशाननुविद्ध हो जाता है। तभी भगवत्तत्त्व समझ में आता है। जिसका अन्तरात्मा पवित्र नहीं है, उसे तो तत्त्वोपदेश सुनने पर भी भगवत्तत्त्व समझ में नहीं आता। जिसका अन्तरात्मा पवित्र है, उसी को भगवत्तत्त्व ठीक-ठीक समझ में आता है। जिसका मन अत्यन्त मलिन है, उसे तो भगवान की कथा सुनने में रुचि ही नहीं होती। अत्यन्त पापी को तो कथा-श्रवण का सुयोग भी नहीं प्राप्त होता। अतः कथा-श्रवण में प्रीति और प्रवृत्ति तदर्थ सात्त्विक आहार-विहार और सात्त्विक ही समस्त व्यवहार का सेवन परमावश्यक है- तस्मादेकेन मनसा भगवान् सात्वतां पतिः। (अतः सर्वदा एकाग्र चित्त से सात्त्वतों के स्वामी भगवान श्रीहरि का ही श्रवण, कीर्तन, ध्यान और पूजन करना चाहिए।) |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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