भागवत सुधा -करपात्री महाराज पृ. 115

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भागवत सुधा -करपात्री महाराज

भक्ति से अन्तरात्मा प्रसन्न होता है। अन्तरात्मा माने अन्तःकरण। अन्तःकरण की प्रसन्नता तो रज, तम के राहित्य से संभव है। रज कम हो जाय, तम कम हो जाय, तम कम हो जाय, सत्त्व का प्राधान्य हो जाय तथी अन्तःकरण की प्रसन्नता संभव है। सत्त्व का प्राधान्य होगा तो प्रकाश होगा, वैराग्य होगा, विवेक होगा। वैराग्यावैराग्य, ऐश्वर्यानेश्वर्य, ज्ञानाज्ञान और धर्माधर्म ये सब अन्तःकरण के धर्म हैं। अन्तःकरण तामस राजस होता है अवैराग्य, अधर्म, और अनैश्वर्य का प्राधान्य होता है। जब सत्य का विकास होता है तो ऐश्वर्य का प्राधान्य होता है, ज्ञान, वैराग्य, धर्म का प्राधान्य होता है। तभी मन प्रसन्न अर्थात निर्मल हो जाता है, निष्कलंक हो जाता है। रजस्तमोलेशाननुविद्ध हो जाता है। तभी भगवत्तत्त्व समझ में आता है। जिसका अन्तरात्मा पवित्र नहीं है, उसे तो तत्त्वोपदेश सुनने पर भी भगवत्तत्त्व समझ में नहीं आता। जिसका अन्तरात्मा पवित्र है, उसी को भगवत्तत्त्व ठीक-ठीक समझ में आता है। जिसका मन अत्यन्त मलिन है, उसे तो भगवान की कथा सुनने में रुचि ही नहीं होती। अत्यन्त पापी को तो कथा-श्रवण का सुयोग भी नहीं प्राप्त होता। अतः कथा-श्रवण में प्रीति और प्रवृत्ति तदर्थ सात्त्विक आहार-विहार और सात्त्विक ही समस्त व्यवहार का सेवन परमावश्यक है-

तस्मादेकेन मनसा भगवान् सात्वतां पतिः।
श्रोतव्यः कीर्तितव्यश्च ध्येयः पूज्यश्च नित्यदा।।
यदनुध्यासिना युक्ताः कर्मग्रन्थिनिबन्धनम्।
छिन्दन्ति कोविदास्तस्य को न कुर्यात् कथारतिम्।।
शुश्रूषोः श्रद्दधानस्य वासुदेवकथारुचिः।
स्यान्महत्सेवया विप्राः पुण्यतीर्थ निषेवणात्।।
श्रृण्वतां स्वकथां कृष्णः पुण्यश्रवणकीर्तनः।
ह्यद्यन्तःस्थो ह्यभद्राणि विधुनोति सुहृत् सताम्।।
नष्टप्रायेष्वभद्रेषु नित्यं भागवत[1] सेवया।
भगवत्युत्तमश्लोक भक्तिर्भवति नैष्ठिकी।।
तदा रजस्तमोभावाः कामलोभादयश्च ये।
चेत एतैरनाविद्धं स्थितं सत्त्वे प्रसीदति।।
एवं प्रसन्नमनसो भगवद्भक्तियोगतः।
भगवत्तत्त्वविज्ञानं मुक्तसगंस्य जायते।।[2]

(अतः सर्वदा एकाग्र चित्त से सात्त्वतों के स्वामी भगवान श्रीहरि का ही श्रवण, कीर्तन, ध्यान और पूजन करना चाहिए।)
जिनके निरन्तर ध्यान रूप खड्ग से युक्त विवेकीजन कर्म ग्रन्थि के बन्धन को काट डालते हैं, उन भगवान की कथा में कौन प्रेम न करेगा? हे विप्रगण! सुनने की इच्छा वाले श्रृद्धालु पुरुष को महापुरुषों की सेवा करने और पुण्यतीर्थ में रहने से भगवान वासुदेव की कथा में रुचि हो जाती है। जिनका श्रवण, कीर्तन, अत्यन्त पवित्र है, वे साधुजनों के सुहृद् भगवान कृष्ण अपनी कथा सुनने वालों के हृदय में विराजमान हुए उनकी अशुभ वासनाओं को नष्ट कर देते हैं। इस प्रकार भागवत का निरन्तर सेवन करने से असुभ वासनाओं के प्रायः नष्ट हो जाने पर भगवान् उत्तमश्लोक में निश्चल प्रेम-भक्ति उत्पन्न होती है। उस समय-लोभादि जो राजसतामस भाव हैं, उनसे रहित होकर सत्त्वगुण में स्थित हुआ चित्त प्रसन्न और निर्मल हो जाता है।
इस प्रकार भगवान के भक्तियोग से प्रसन्नचित्त हुए आसक्ति रहित साधक को भगवत्तत्त्व का ज्ञान प्राप्त होता है।)

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. श्रीमद् भागवत अथवा भगवद्भक्त।
  2. भागवत 1/2/14-20

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क्रमांक पाठ का नाम पृष्ठ संख्या
प्रथम-पुष्प
1. निगमकल्परोर्गलितं फलम् 37
2. पुरुषार्थचतुष्टयप्रदायक निगमकल्पतरु 38
3. रसमालयम् 38
4. आत्माराम का भी भगवद्गुणगणार्णव में अवगाहन 38
5. देव दुर्लभ श्रीमद्भागवत: 39
6. युगधर्मों का निरूपण 42
7. विद्या-अविद्या का समुच्चय 44
8. भगवन्नाम-संकीर्तन 48
9. माहात्म्य 51
10. वस्तु-तत्व के साक्षात्कार के लिए श्रवण, मनन और निदिध्यासन अपेक्षित 54
11. ‘जन्माद्यस्य यतोऽन्वयात्’ की भूमिका 54
12. भगवत्तत्व का अनुसंधान- छान्दोग्य शैली में 55
13. भगवतत्व का अनुसंधान -तैत्तिरीय शैली में 56
14. पैंगलोपनिषत् पुराण और महाभारत की शैली में 56
15. परब्रह्म के निःश्वासभूत वेदों की अपौरुषैयता 57
16. वेदों के प्रतिपाद्य सगुण या निर्गुण 59
17. ईश्वर-सिद्धि 64
18. नास्तिकों के भी उद्धार का उपक्रम 64
19. सर्वात्मभाव 68
20. भगवान् जगत के अभिन्ननिमित्तोपादानकारण 70
द्वितीय-पुष्प
1. ‘जन्माद्यस्य यतः’ 71
2. 'अन्वयत्', 'इतरत:', 'च' 72
3. 'अभिज्ञः' 74
4. ‘स्वराट्’ 74
5. ‘तेने ब्रह्महृदा य आदि कवये मुह्यन्ति यत् सूरयः’ 75
6. ‘तेजोवारिमृदां यथा विनिमय: 76
7. ऋषि-सूत-संवाद 78
8. श्रीशुक-वन्दना 82
9. शुकमनमोहक ‘बर्हापीडं’ श्लोक 85
10. 'बर्हापीडं' 87
11. ‘नटवर- वपुः’ 88
12. ‘कर्णयोः कर्णिकारं’ 90
13. ‘विभ्रद्वासः कनककपिशं’ 91
14. ‘रन्ध्रान्वेणोरधरसुधया पूरयन्’ 92
15. ‘वृन्दारण्यं स्वपदरमणं’ 94
16. अकारणकरुण करुणावरुणालय-‘भगवान्’ 95
तृतीय-पुष्प
1. प्रतिपद्य और प्रतिपादक की परब्रह्मरूपता 99
2. परम धर्म 111
3. मोक्ष पर्यवसायी धर्म, अर्थ और काम 118
4. ‘तत्त्व’ की तात्त्विक परिभाषा 123
चतुर्थ-पुष्प
1. भगवान व्यास को देवर्षि नारद की प्रेरणा 127
2. गुणगण भगवान् के उपकारक नहीं 139
3. भगवदाराधन की विधि 143
4. ‘तथा परमहंसानां’ के साथ ‘परित्राणाय साधूनां’ की संगति 154
पंचम-पुष्प
1. शुक-समागम 159
2. अप्रमत्त के लिये अति सुगम भगवत्प्राप्ति 174
3. नाम-धाम-प्राणायाम और ध्यान से भगवत्प्राप्ति 175
4. ‘तेषां के योगवित्तमाः’ का समाधान 183
5. ‘न किश्चिदपि चिन्तयेत्’ का तात्त्विक अभिप्राय 188
षष्ठ-पुष्प
1. ब्रह्म-नारद संवाद 190
2. माया संतरण का अमोघ उपाय 191
3. प्रह्लाद चरित 196
4. शरणागति 205
5. शरण्य की शरणागति 208
6. शरण्य का स्वरूप 208
7. शरणागति एक बार या बार-बार? 208/2
8. श्री जी 209
सप्तम-पुष्प
1. राजा बलि के पूर्व जन्म का वृतान्त 216
2. भगवान वामन को आविर्भाव 223
3. राजा बलि की सत्यनिष्ठा 228
4. धर्मनिरपेक्ष या धर्मसापेक्ष? 228
5. धन बड़ा या धनवान ? 230
6. ‘धन नहीं धनवान् बड़ा’ 231
अष्टम-पुष्प
1. वेदान्तवेद्य पूर्णतम पुरुषोत्तम ‘श्रीराम’ 233
2. ‘आदि कर्ता स्वयं प्रभु’ श्रीराम 235
3. लताओं तक को प्रेम प्रदान करने वाले ‘श्रीराम’ 236
4. प्रभुओं के भी प्रभु ‘श्रीराम’ 238
5. धर्म रक्षक ‘श्रीराम’ 239
6. लीला पुरुषोत्तम ‘श्रीकृष्ण’ 239
7. श्रीवृन्दावन, गोपांगनाएँ; श्रीकृष्ण और राधा का तात्विक स्वरूप 240
8. श्रीकृष्णचन्द्र परमानन्दकन्द का अद्भुत प्राकट्य 242
9. सुषमासारसर्वस्त्र ‘श्रोहरि’ 242
10. अनाघ्रात अनपहत-अनुत्पन्न-अनुपहत और अदृष्टाद्भुत पंकज ‘श्रीकृष्ण’ 242
11. सत्यज्ञानानन्तान्दमात्रैकरसमूर्ति ‘श्रीकृष्ण’ 242/2
12. भगवान् के जन्म और कर्म दिव्य हैं, वे स्वयं अप्राकृत हैं 244
13. श्री वृन्दावनधाम 248
14. मृद्भक्षण लीला 250
15. दामोदरलीला 251
16. निराकार से साकार 252
17. भावुक के दु्रत चित्त पर भगवान् की अभिव्यक्ति ‘भक्ति’ 254
18. श्रीकृष्णचन्द्र और श्रीराधाचन्द्र 255
19. आसन और आशयरूप बाह्यप्रपच्च और पंचकोश के तादात्म्य का त्यागकर श्रीकृष्णचन्द्र परमानन्द कन्द के स्वागत में तन्मय द्वारकास्थ पट्टमहिषीगण 257
20. कथा श्रवण से वैराग्य एवं विज्ञानोपलब्धि 258
21. भगवद्गुणानुवाद से भगवद्भक्ति 259
22. अंतिम पृष्ठ 259

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