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ब्रह्म वैवर्त पुराण
श्रीकृष्ण जन्म खण्ड (उत्तरार्द्ध): अध्याय 90
पुरुष अथवा स्त्री- कोई भी आभूषणों से रहित नहीं था। न पापी थे न धूर्त; न क्षुधार्त न निन्दित। प्राणियों की वृद्धावस्था नहीं आती थी; वे निरन्तर नवयुवक बने रहते थे। सभी देहधारी मानसिक तथा शारीरिक व्याधि से रहित और निर्विकार थे। इस प्रकार सत्ययुग में जो सत्य, दया आदि धर्म बतलाया गया है; वह त्रेतायुग में एक पाद से हीन और द्वापर में सत्ययुग का आधा रह जाता है। कलि के प्रारंभ में वही धर्म निर्बल और कृश हो जाता है तथा उसका एक ही पाद अवशिष्ट रह जाता है। व्रजेश्वर! उस समय दुष्टों, लुटेरों और चोरों का अंकुर उत्पन्न होने लगता है। लोग अधर्मपरायण हो जाते हैं। उनमें कुछ लोग भयवश अपने पापों पर परदा डालते रहते हैं। धर्मात्माओं को सदा भय लगा रहता है और पापी भी काँपते रहते हैं। राजाओं में धर्म नाम मात्र का रह जाता है और ब्राह्मणों की वेदनिष्ठा कम हो जाती है। उनमें कोई-कोई ही व्रत और धर्म में तत्पर रहते हैं; प्रायः सभी मनमाना आचरण करने लगते हैं। जब तक तीर्थ वर्तमान हैं, जब तक सत्पुरुष स्थित हैं और जब तक ग्रामदेवता, शास्त्र तथा पूजा-पद्धति मौजूद है; तभी तक कुछ-कुछ तप, सत्य तथा स्वर्गदायक धर्म का अंश विद्यमान रहता है। तात! दोष के भण्डार रूप इस कलियुग का एक महान गुण भी है, इसमें मानसिक धर्म पुण्यकारक होता है, परंतु मानसिक पाप नहीं लगता।[1] पिता जी! कलियुग के अंत में अधर्म पूर्णरूप से व्याप्त हो जायेगा। उस समय चारों वर्ण मिलकर एक वर्ण हो जायँगे। न वेदमंत्रोच्चारण से पवित्र विवाह होगा और न सत्य तथा क्षमा का ही अस्तित्व रह जायेगा। ग्राम्यधर्म की प्रधानता से विवाह सदा स्त्री की स्वीकृति पर ही निर्भर करेगा। ब्राह्मण सदा यज्ञोपवीत और तिलक नहीं धारण करेंगे। वे संध्या वन्दन और शास्त्रों से हीन हो जायेंगे। उनका वंश सुनने मात्र को रह जायगा। सब लोग अनियमित रूप से सबके साथ बैठकर भोजन करेंगे। चारों वर्णों के लोग अभक्ष्यभक्षी और परस्त्रीगामी हो जायँगे। स्त्रियों में कोई पतिव्रता नहीं रह जायेगी। घर-घर में कुलटा ही दीख पड़ेगी; वे अपने पति को नौकर की तरह डराती-धमकाती रहेंगी। पुत्र पिता की और शिष्य गुरु की भर्त्सना करेगा। प्रजाएँ राजा को और राजा प्रजाओं को पीड़ित करता रहेगा। दुष्ट, चोर और लुटेरे सत्पुरुषों को खूब कष्ट देंगे। पृथ्वी अन्न से हीन और गायें दूध रहित हो जायँगी। दूध के कम हो जाने पर घी और माखन का सर्वथा अभाव हो जायेगा। सभी मनुष्य सत्यहीन हो जायेंगे और वे सदा झूठ बोलेंगे। ब्राह्मण पवित्रता, संध्या- वन्दन और शास्त्रज्ञान से हीन होकर बैलों को जोतेंगे, रसोइया का काम करेंगे और सदा शूद्रा में लवलीन रहेंगे। शूद्र ब्राह्मण-पत्नियों से प्रेम करेंगे। रसोइया तथा लम्पट शूद्र जिस ब्राह्मण का अन्न खायेंगे, उसकी सुन्दरी पत्नी को हथिया लेंगे। नौकर राजा का वध करके स्वयं राजा बन बैठेंगे। सभी लोग स्वच्छन्दाचारी, शिश्नोदरपरायण, पेटू, रोगग्रस्त, मैले-कुचैले, खण्डित मंत्रों से युक्त और मिथ्या मंत्रों के प्रचारक होंगे। जातिहीन, अवस्थाहीन और निन्दक गुरु होंगे। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ कलेर्दोषनिधेस्तात गुण एको महानपि। मानसं च भवेत् पुण्यं सुकृतं न हि दुष्कृतम्।। (90।29)
कलि कर एक पुनीत प्रतापा। मानस पुन्य होहिं नहिं पापा।। (श्रीरामचरितमानस 7।103।8)
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