श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
चतुर्थ अध्याय प्रश्न- भगवान ने सृष्टि के आदिकाल में सूर्य को कर्मयोग का उपदेश क्यों दिया? वास्तव में नारायण के रूप में उपदेश देना और सूर्य के रूप में उपदेश ग्रहण करना जगन्नाट्यसूत्रधार भगवान की एक लीला ही समझनी चाहिये जो संसार के हित के लिये बहुत आवश्यक थी। जिस प्रकार अर्जुन महान ज्ञानी नर ऋषि के अवतार थे; परंतु लोकसंग्रह के लिये उन्हें भी उपदेश लेने की आवश्यकता हुई, ठीक उसी प्रकार भगवान ने स्वयं ज्ञान स्वरूप सूर्य को उपदेश दिया, जिसके फलस्वरूप संसार का महान उपकार हुआ है, हो रहा है और होता रहेगा। ‘विवस्वान् मनवे प्राह मनुरिक्ष्वाकवेऽब्रवीत्’- कर्मयोग गृहस्थों की खास विद्या है। ब्रह्मचर्य, गृस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास- इन चारों आश्रमों में गृहस्थ आश्रम ही मुख्य है; क्योंकि गृहस्थ आश्रम से ही अन्य आश्रम बनते और पलते हैं। मनुष्य गृहस्थ आश्रम में रहते हुए ही अपने कर्तव्य कर्मों का पालन करके सुगमता पूर्वक परमात्मप्राप्ति कर सकता है। उसे परमात्म प्राप्ति के लिये आश्रम बदलने की जरूरत नहीं है। भगवान ने सूर्य, मनु, इक्ष्वाकु आदि राजाओं का नाम लेकर यह बताया है कि कल्प के आदि में गृहस्थों ने ही कर्मयोग की विद्या को जाना और गृहस्थाश्रम में रहते हुए ही उन्होंने कामनाओं का नाश करके परमात्मतत्त्व को प्राप्त किया। स्वयं भगवान श्रीकृष्ण और अर्जुन भी गृहस्थ थे। इसलिये भगवान अर्जुन के माध्यम से मानो संपूर्ण गृहस्थों को सावधान[4] करते हैं कि तुम लोग अपने घर की विद्या ‘कर्मयोग’ का पालन करके घर में रहते हुए ही परमात्मा को प्राप्त कर सकते हो, तुम्हें दूसरी जगह जाने की जरूरत नहीं है। गृहस्थ होने पर भी अर्जुन प्राप्त कर्तव्य-कर्म[5] को छोड़कर भिक्षा के अन्न से जीविका चलाने को श्रेष्ठ मानते हैं[6] अर्थात अपने कल्याण के लिये गृहस्थ आश्रम की अपेक्षा संन्यास-आश्रम को श्रेष्ठ समझते हैं। इसलिये उपर्युक्त पदों से भगवान मानो यह बताते हैं कि तुम भी राजघराने के श्रेष्ठ गृहस्थ हो, कर्मयोग तुम्हारे घर की खास विद्या है, इसलिये उपर्युक्त पदों से भगवान मानो यह बताते हैं कि तुम भी राजघराने के श्रेष्ठ गृहस्थ हो, कर्मयोग तुम्हारे घर की खास विद्या है, इसलिये इसी का पालन करना तुम्हारे लिये श्रेयस्कर है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ गीता 3।10
- ↑ शास्त्रों में सूर्य को ‘सविता’ कहा गया है, जिसका अर्थ है- उत्पन्न करने वाला। पाश्चात्य विज्ञान भी सूर्य को संपूर्ण सृष्टि का कारण मानता है।
- ↑ महाभारत में सूर्य के प्रति कहा गया है- 'त्वं भानो जगतश्चक्षुस्त्वमात्मा सर्वदेहिनाम। त्वं योनिः सर्वभूतानां त्वमाचारः क्रियावताम्।।
त्वं गतिः सर्वसांख्यानां योगिनां त्वं परायणम्। अनावृतार्गलद्वारं त्वं गतिस्त्वं मुमुक्षताम् ।।
त्वया संधार्यते लोकस्त्वया लोकः प्रकाश्यते। त्वया पवित्रीक्रियते निर्व्याजं पाल्यते त्वया ।।(वनपर्व 3।36-38) ‘सूर्यदेव! आप संपूर्ण जगत के नेत्र तथा समस्त प्राणियों की आत्मा हैं। आप ही सब जीवों के उत्पत्ति स्थान और कर्मानुष्ठान में लगे हुए पुरुषों के सदाचार (के प्रेरक) हैं।’
‘संपूर्ण सांख्ययोगियों के प्राप्तव्य स्थान भी आप ही हैं। आप ही सब कर्मयोगियों के आश्रय हैं। आप ही मोक्ष के उन्मुक्त द्वार हैं और आप ही मुमुक्षुओं की गति हैं।’ ‘आप ही संपूर्ण जगत को धारण करते हैं। आपसे ही यह लोक प्रकाशित होता है।
आप ही इसे पवित्र करते है और आपके ही द्वारा निःस्वार्थ भाव से इसका पालन किया जाता है।’ - ↑ उपदेश
- ↑ युद्ध
- ↑ गीता 2।5
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